मीरा के विरह में उनके लौकिक जीवन :– मीरा की माधुर्य भाव की भक्ति में सबसे प्रगाढ़ और मार्मिक स्वर विरह का है। उन्होंने ऐसा प्रियतम ही चुना है, जिससे लौकिक जगत में मिलन संभव नहीं । इसलिए निरंतर दृढ़ होते हुए उनके इस प्रेम की अनिवार्य परिणति विरह ही है।
उनके कठिन संघर्षपूर्ण जीवन के अभावों ने एक ओर तो उनकी भक्ति को खरे कंचन का सा स्वरूप दिया तो दूसरी ओर यह पीड़ा कृष्ण विछोह की उस अलौकिक अनुभूति के साथ एकसार हो गयी जो जितनी आध्यात्मिक थी उतनी ही लौकिक भी । मीरा की विरहाभिव्यक्ति में अलौकिक प्रियतम के प्रेम विवशता तथा उन्हें न पा सकने की पीड़ा आदिभाव बहुत तीव्रता के साथ उभरे ।
मीरा के विरह में उनके लौकिक जीवन
ऐसे में वे प्रिय से नैकट्य और उनके प्रति समर्पण में बाधक राणा, राणाकुल और रूढ़िवादी समाज के प्रति अपना धिक्कार स्पष्ट व्यक्त करती है। ये संदर्भ उनके विरह को मानवीय गहराई और विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। मीरा की भक्ति जितनी उनके अन्तर्जगत में घटित होती है उतना ही वह बाह्यजगत को भी अपने अनुरूप बनाने के लिए संघर्ष करती हैं।
राणा विक्रमाजीत सिंह का संकट यही है। भक्ति रस में डूबी हुई मीरा साधु समाज का वह समां बांध देती हैं कि स्त्रीविरोधी सामंती समाज अपनी सारी वर्जनाओं के बावजूद उसके सात्विक वेग के आगे एक पल भी ठहर नहीं पाता ।
मीरा अपने प्रभु के प्रति व्यक्त ही नहीं हुई, अपितु उन्होंने उस अलौकिक को कई रंग-रूप प्रदान किये। सामंती नैतिकताओं की कतई परवाह न करते हुए अपने वैधव्य के लिए निर्धारित विधि निषेधों को ताक पर रखते हुए मीरा ने गिरधर नागर को स्वकीया भाव से पूजा और चाहा।
उनके लिए श्रृंगार किया, सेज सजाई। उनसे रूठी और उनसे मान भी गई। मीरा की भक्ति के समान ही उनके विरह में भी स्वानुभूति का वह उत्कट रंग है जिसे विरह भावना के शास्त्रीय रूप-स्वरूप या दशाओं में बांध कर नहीं देखा जा सकता।
लीला पुरूष परब्रह्म श्रीकृष्ण मीरा के प्रियतम हैं। ऐसे प्रियतम से मिलन केवल स्वप्न में ही संभव है। स्वाभाविक है कि इस प्रकार के स्वप्नों की परिणति या तो उस स्वप्न में प्राप्त मिलन सुख के मंदिर भाव में डूब कर उसके वर्णन में होती है अथवा इस प्रकार के मिलन का उद्भव वास्तविक जीवन में घटित विद्रोह की पीड़ा को अधिक गहरा कर जाता है।
स्वप्न या कल्पना में पाये संयोग के अल्प संयोगों को भी मीरा ने डूब कर व्यक्त किया है। यही वह उनकी सबसे मूल्यवान थाती है जिसके बल पर वह प्रिय वियोग के साथ-साथ अपने विरोध में खड़े कुल-कुटुंब और समाज के सारे अत्याचारों का सामना करती है। स्वप्न में कृष्ण मिलन का वर्णन करती हुई मीरा कहती हैं :–
‘भाई म्हाणे सुपणा मां परव्या दीनानाथ ।
छप्पन कोटां जणां पधाऱ्या दूल्होसिरी ब्रजनाथ ।
सुपणा मां तोरण बंध्यारी सुपणामां गया हाथ ।
सुपणा मां म्हारे परण गया पायां अचल सोहाग।
मीरा रो गिरधर मिल्यारी; पुरब जणम रो भाग।
इस प्रकार मीरा के इस अद्भुत स्वप्न में गिरधर नागर ने मीरा को छप्पन करोड़ देवताओं की साक्षी में ब्याह लिया है। ऐसे अलौकिक सुहाग की स्वामिनी मीरा ने स्वयं को पूरी तरह से गिरधर के रंग में ‘रंग लिया है। उनके प्राणों में प्रतिपल ऐसे प्रियतम की प्रतीक्षा है। वे अपने रोम-रोम से गिरधर के आगमन का संदेश सुनना चाहती हैं, किन्तु ऐसे सुख के संयोग उन्हें बहुत कम प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि इन गिनती के संयोग क्षणों में वे आनंद से नाच उठती है। कहती हैं :-
और उनके लिए यह सावन जिसने विरह को अतिदीर्घ और असह्य बनाया है अपने समस्त वेभव समेत प्रिय हो उठता है। प्रिय के आने पर जैसे उनकी युगों-युगों की प्रतीक्षा पूरी होती है। वे कृष्ण से सदैव अपने नेत्रों के आगे बने रहने का अनुरोध करती हैं। ऐसे रसिक शिरोमणि करूणानिधान प्रिय से पल भर का भी बिछोह मीरा को सह्य नहीं है, किन्तु यह विछोह ही जैसे उनका एक मात्र प्राप्य है। वास्तविकता भी यही है।
मीरा का प्रिय से मिलन केवल उनके अन्तर्जगत में ही संभव हुआ है। लौकिक । जगत में प्रिय का चिर वियोग ही उनके जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। यहां प्रिय का साहचर्य या उनसे अपने प्रेम का प्रतिदान उन्हें प्राप्त नहीं हो पाया है। यह उनके कृष्ण के प्रति समर्पित जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है।
चिर विरह के इस दु:ख के सोने का सुहागा उनके प्रति बैर रखने वाले स्वजन और समाज हैं। इन अनुभवों से मीरा का अपने एक मात्र आश्रम व अवलंब से विछोह का दुःख और असह्य हो उठता है। विरह जनित भावस्थिति में उनमें संयोग की स्थिति का औत्सुक्य और चचलता भावों की गहराई और प्रगाढ़ता में बदल जाते हैं। प्रेम यहां अधिक व्यक्त व्यापक और उदार होता दिखाई देता है।
यहां मीरा अपनी धनीभूत पीड़ा के साथ जीवन और जगत के कण-कण के प्रति संबोधित हैं। उनकी आत्माभिव्यक्ति के इस रंग में उनका अद्भुत आत्म प्रसार लक्षित किया जा सकता है। इस विरह में मीरा की मनोदशाओं के विविध रूप प्राप्त होते हैं।
अलौकिक प्रियतम के प्रति निवेदित मीरा की विरहाभिव्यक्ति में कभी-कभी निर्गुण संतों के रहस्यवादी स्वर की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। ऐसे प्रसंगों में उनकी प्रेम विफलता में आत्मा और परमात्मा के बीच जगत में घटित होने वाले विछोह का अर्थ भी देखा जा सकता है। मीरा ने यहां ‘भव प्रवंच’ को संतों के से विराग से ही देखा है। वे कहती हैं :-
म्हारे आज्यो जी रामां, थारे आवत आस्यां सामां ।।टेक ।।
तुम मिलियां में बोही सुख पाऊं, सो मनोरथ कामां।
तुम बिच हम बिच अंतर नाहीं, जैसे सूरज घामां।
मीरा के मन अवर न माने चाहे सुन्दर स्यामां।।
कबीर की तरह मीरा को भी विरह भुजंग डस गया है। कहती हैं :— विरह नागण मोरी काया डसी है, लहर लहर जिवजावै।
विरह ने मन और काया पर पूरी तरह से अधिकार कर लिया है। उन्हें देश-काल की कोई सुध-बुध नहीं है। सारी रात आंखों में कट जाती है। प्रिय को पत्र लिख भेजना चाहती है, किन्तु लिख नहीं पातीं। हाथ कांपते हैं, आंखों से आंसुओं की झड़ी लगी है। कोई ऋतु, कोई उत्सव, कोई त्यौहार अच्छा नहीं लगता। कहीं-कहीं मीरा ने विरह वर्णन की पारंपरिक शैली का भी उपभोग किया है।
उनके पदों में वर्षा ऋतु के उद्दीपक रूप में अनेक चित्र मिलते हैं। दादुर, मोर, पपीहा को वे उनकी प्रिय विछोह को उद्दीप्त करने वाली पारंपरिक भूमिका में ही देखती हैं। पपीहे से तो वे अत्यधिक दु:खी हो जाती हैं। उसे फटकारती हुई कहती हैं:-
‘पपइया रे पिव की वाणी न बोल ।।टेक ।।
सुणि पावेली विरहिणी रे, भारो राखेली पांख मरोड़।’
इसी पपीहे पर प्रिय से संयोग की स्थिति में वे निछावर हो जाने की बात कहती है। मीरा ने विरह को‘बारहमासा’ में भी व्यक्त किया है तथा इसके अन्तर्गत वे प्रत्येक ऋतु की विरह के लिए दुःखदाई हो जाने वाली भूमिका का वर्णन करती है :–
जेठ महीने जल बिणा पंछी दुख होई, हो।
मोर असाढ़ा कुरलहे, धन चात्रक सोई, हो।
सावण में झड़ लागियो, सखि तीजा खेले हो।
भादवै नदिया बहै, दूरी जिन मेले हो।
विरह की अतिपीड़ा में वे प्रिय की कठोरता के प्रति उलाहनों में व्यक्त होती हैं। उसे अत्यन्त कठोर हृदय वाला निर्भाही भी कहती हैं। पीड़ा का आधिक्य उनके लिए इतना असह्य है कि वे प्राण भी तज देना चाहती हैं। कहती हैं :–
‘विरह की मारी मैं बन डोलूं प्राण तज् करवतल्यूं कासी।’
इस विरह ‘समुंद का पारे लगाने वाला हरि अविनाशी’ ही है। मीरा उसके कारण जोगन’ हो जाने की बात भी कहती है। उसी के लिए उन्होंने घर, संसार, स्वजन सब त्याम दिये हैं।
ये स्वजन मीरा की अनूभुतियों से सर्वथा अपरिचित और अनात्मीय हैं। वे मीरा की भाव विह्वलता की हंसी. उड़ाते हैं। मीरा प्रिय के प्रेम और वियोग की पीड़ा में दीवानगी की हद तक डूब जाती हैं। वे अपनी पीड़ा की नाना अनुभूतियों के साथ अति मुखर हैं और कुछ पदों में ढिढोरा पीट कर अपने प्रेम दीवानी होने की खबर देने के साथ-साथ प्रिय वियोग के लिए अभिशप्त प्रीति में किसी अन्य के न पड़ने की बात कहना चाहती हैं। यह वस्तुत: प्रेम की थीर की अतिशयता का ही व्यंजनापूर्ण कथन है।
इस प्रकार मीरा का विरह, प्रिय विछोहजन्य पीड़ा की सघन मार्मिक अनुभूतियों की बड़ी वैविध्यपूर्ण और विश्वसनीय अभिव्यक्ति है। इसके अन्तर्गत विरह वर्णन के पारंपरिक रूपों का उपयोग करने के बावजूद मीरा उनके परिपाटीबद्ध रूपों का अनुकरण नहीं करती है।
मीरा के विरह में उनके लौकिक जीवन के अभाव के पक्ष की गहरी भूमिका है, इस कथन के प्रकाश में उसकी विशेषताओं का निर्धारण कीजिए | – अगर आपको यह पोस्ट पसंद आई हो तो आप कृपया करके इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। और हमारे “FaceBook Page” को फॉलो करें। अगर आपका कोई सवाल या सुझाव है तो आप नीचे दिए गए Comment Box में जरुर लिखे ।। धन्यवाद 🙏 ।।
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