ये अश्रु राम के | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |
ये अश्रु राम के आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल,
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़,
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास।
ये अश्रु राम के
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में इस तथ्य का वर्णन किया गया है कि अपने स्वामी को व्याकुल देखकर हनुमान का हृदय विक्षुब्ध हो उठा।
व्याख्या– ये अश्रुबिंदु मेरे स्वामी राम के नेत्रों से गिरे हैं—इस तथ्य का ज्ञान होने पर और हनुमान अपने स्वामी की चिंता दूर करने के लिए व्याकुल हो उठे। उनके उस उत्तेजित रूप की तुलना कवि ने विक्षुब्ध सागर से की है और वह कहता है कि जिस प्रकार प्रलयकाल में उनचास पवनें वेग से चलने लगती हैं और सागर में भयंकर ज्वार उमड़ उठता है, उसी प्रकार राम को चिंताग्रस्त देखकर हनुमान का हृदय रूपी सागर का उनके कष्ट दूर करने के लिए व्याकुल हो उठा।
“जिस प्रकार प्रलय के समय उनचासों पवनें भयंकर गर्जन करती हुई पवन- लोक से प्रवाहित होती हैं और उनके प्रहार से समुद्र की सतह पर एकत्र वाष्प- राशि आकाश में उड़ जाती है, उसी प्रकार हनुमान का संचित प्राणों का आवेग फूट पड़ा और उस आवेग में आत्मविश्वास और आवेश के कारण उनके हृदय में जो चिंता के मेघ मंडरा रहे थे वे उड़ने लगे और शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो गए। वे चिंतामुक्त हो गए और उन्होंने दृढ़ संकल्प के साथ अपना मार्ग निर्धारित कर लिया।”
– कवि आगे कहता है कि जिस प्रकार प्रलय-काल में सागर में भीतर ही भीतर सैकड़ों भंवरें चक्कर काटती हुई समुद्र – जल को मथा करती हैं, उसमें भयंकर लहरें उठती और गिरती रहती हैं—उन ऊंची लहरों के कारण समुद्र के वक्षस्थल पर जल के पहाड़ उठते और टूटकर गिरते रहते हैं; उसी प्रकार मान के हृदय रूपी सागर में भी विचारों की भयंकर लहरें चक्कर काटने लगीं और उनके हृदय का मंथन करने लगीं।
अभिप्राय यह है कि उनके हृदय में इस विषय में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क उठने-मिटने लगे कि मैं अपने स्वामी राम के कष्टों को कैसे दूर कर सकता हूं। अपने स्वामी के कष्टों को दूर करने की दिशा में हनुमान के हृदय में विचारों का प्रवाह उसी प्रकार उमड़ने-घुमड़ने और टकराने लगा जिस प्रकार प्रलय-काल में वायु के प्रलय आघातों के कारण समुद्र में ऊंची-ऊंची तरंगें उठती हैं और परस्पर टकराती रहती हैं।
भाव यह है कि अभी हनुमान के हृदय में विचार – तरंगे उठ ही रही थीं, वे कोई क्रियात्मक रूप नहीं ले पाए थे। जिस प्रकार सागर का अथाह ल अपने मार्ग में पड़ने वाले प्रत्येक अवरोध को मिटाता हुआ अपनी सीमा का विस्तार किया करता है, उसी प्रकार हनुमान के भाव भी संपूर्ण बाधा-बंधनों को तोड़ते हुए राम को चिंतामुक्त करने के लिए अधीर हो उठे।
उत्साह के कारण उनका वक्षस्थल गर्व से फूल उठा और वे मर्यादा तथा शील का अतिक्रमण करते हुए दिशाओं और समस्त ब्रह्मांड को निगलने के लिए उघत होकर विजयोन्माद से पूर्ण शक्ति और वेगपूर्वक प्रतिक्षण आगे की ओर बढ़ने लगे। इस प्रकार भयानक दृश्य उपस्थित करते हुए वज्र के समान सुदृढ़ शरीरांगों वाले हनुमान, जो एकादश रुद्र के अवतार थे, भयंकर अट्टहास करते हुए महाकाश में पहुंच गए।
विशेष
1. प्रस्तुत पंक्तियों में कवि निराला प्रलयकालीन भयावह वातावरण की सृष्टि करने में पूर्णत: समर्थ हुए हैं। ‘प्रसाद’ ने भी कामायनी में प्रलय-काल का ऐसा ही वर्णन किया है
लहरें व्योम चूमती उठती,
चपलाएं असंख्य नचतीं ।
गरल जलद की खड़ी झड़ी में,
बूंदें निज संसृति रचतीं ।
2. हनुमान बल और पराक्रम के पौराणिक प्रतीक रहे हैं और वे पवन के पुत्र स्वीकार किए जाते हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में इन्हीं तथ्यों का आश्रय लेते हुए उन्हें प्रबल पराक्रमी दिखाया गया है और उनके पिता की ओर से उनचास पवन चलते दिखाए गए हैं।
3. भाषा को भावानु – रूप बनाने के लिए कवि ने द्वित्व वर्णों का बहुल प्रयोग किया है।
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