भक्तिन का चरित्र चित्रण | स्मृति की रेखाएं | महादेवी वर्मा |

भक्तिन का चरित्र चित्रण | स्मृति की रेखाएं | महादेवी वर्मा |

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भक्तिन का चरित्र चित्रण :— महादेवी जी के प्रायः सभी रेखाचित्रों में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करने वाली भक्तिन को यदि उद्दाम जिजीविषा एवं सेवाधर्मिता का प्रतीक स्वीकारा जाय तो अत्युक्ति न होगी। उसके चरित्र में एक सामान्य भारतीय ग्रामीण नारी का प्रतिनिधित्व तो मुखर होता ही है किन्तु उसका निजी व्यक्तित्व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं।

सामान्य ग्रामीण नारी की भांति कृपणता, छुआछूत जप-तप, धार्मिक रूढ़िवादिता तो उसमें है ही, उसके हृदय में स्नेह, औदार्य और सहानुभूति के साथ जीवन संघर्षों में रत रहने की दुर्निवार शक्ति और साहस तथा अलभ्य सेवा परायणता उसके निजी व्यक्तित्व को रेखांकित करते हैं। उसकी कष्ट-सहिष्णुता, साहस, धैर्य, अपमान न सह सकने की अदम्य लालसा, कर्तव्य परायणता तथा अनथक कार्य तत्परता उसके चरित्र की अतिरिक्त विशेषताएं हैं, जिनसे उसका चरित्र निर्मित हुआ है।

भक्तिन का चरित्र चित्रण

जहां तक भक्तिन की जीवन – कथा का प्रश्न है, वह ऐतिहासिक झुंसी के ग्राम-प्रसिद्ध अहीर की कन्या है। जन्म से उसका नाम लछमिन है किन्तु उसके जीवन से नाम का विरोधाभास होने के कारण वह अपना वास्तविक नाम गुप्त ही रखना चाहती है। इसीलिए उसके बाह्माचार को देखकर महादेवी जी ने उसे भक्तिन नाम दे दिया है, जो स्वयं उसे भी पसन्द है।

बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी : भक्तिन न केवल ग्राम प्रसिद्ध अहीर की लड़की थी वरन एकमात्र लड़की होने का भी सौभाग्य उसे मिला था। बचपन में ही मां की मृत्यु हो जाने और घर में विमाता के होते हुए भी उसे पिता की ओर से जो लाड-प्यार मिला, उससे उसके व्यक्तित्व में बचपन से ही पिता की अक्खड़ता और आत्म-सम्मान की प्रबल भावना का उद्रेक होना स्वाभाविक ही था।

पिता ने सम्पन्न अहीर घर में उसका विवाह कर दिया किन्तु जब पिता की मृत्यु हुई तो सास ने बहाना बनाकर उसे मायके भेजा और विमाता ने जब उचित सत्कार नहीं किया तो वह न केवल बिना जल ग्रहण किये ही ससुराल लौट गयी वरन वहां जाकर सास से झगड़ भी पड़ी और शोक व्यक्त करने के लिए अपने गहने पति की ओर फेंक दिये। पति बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी के स्वभाव को जानता था।

इसीलिए घर का सारा काम करने के बावजूद जब उसकी जिठानियां उसको शिकायतें उसके पति से करतीं तो वह चुप रहता । जिठानियां आये दिन अपने पतियों से पिटती रहतीं किन्तु उसके पति ने कभी उस पर उंगली भी नहीं उठायी। यहां तक कि जब उसकी एक-एक कर तीन लड़कियां हो गयीं और काले-कलूटे लड़कों को जनने वाली जिठानियां तथा सास की ओर से भी उसे उपेक्षा मिलने लगी तो उसे अपनी लड़कियों के साथ पूरे घर-बाहर का काम देखना पड़ता किन्तु उसने कभी उफ तक न की इससे पति का और भी अधिक प्रेम उसे मिलने लगा।

अपनी बात वाली पत्नी के स्वभाव को वह अच्छी तरह जान गया था। यही कारण था कि उसकी बात कभी टली नहीं और न किसी को उसका अपमान करने का साहस हुआ।

कष्ट-सहिष्णुता : भक्तिन के चरित्र में कष्ट-सहिष्णुता की पराकाष्ठा दिखाई देती है। बचपन में ही मां की मृत्यु ने उसके जीवन को झकझोर डाला था। विमाता के दुर्व्यवहार और पिता की असामयिक मृत्यु से मायके की ठण्डी छांह तो छिन ही गयी थी, पुत्रियों को जन्मने के कारण पति के अतिरिक्त सभी के स्नेह से भी उसे वंचित होना पड़ा। घर में उसका जीवन उपेक्षित-सा था। घर-बाहर का सारा काम उसे करना पड़ता और जिठानियां चारपाइयों पर दिनभर आराम करती रहती। खाना बनाने से लेकर खेती-पाती, अमराई देखना और गाय-भैसों को चारा-पानी की सारी व्यवस्था उसी के जिम्मे थी ।

एकनिष्ठ पति परायणा: पति के लिए भक्तिन के हृदय में एकनिष्ठ प्रेम भाव था। उसने न तो पति के जीवित रहते किसी पर पुरुष को ओर आंख उठाकर देखा और न बाद में वेधव्य जीवन को कलंकित किया। पति के प्रेम से वह धन्य थी। पति की मृत्यु होने के उपरान्त उसने दूसरा पति करने की अपेक्षा वेधव्य ग्रहण कर संन्यास-सा ले लिया।

सम्पत्ति पर आंख लगाये घरवालों ने जब उसे दूसरा विवाह कर लेने का परामर्श दिया तो वह आग-बबूला हो उठी और पांव पटक-पटककर आंगन को कम्पायमान करते हुए बोली- “हम कुकुरी बिलारी न होयं, हमार मन पुसाई तो हम दूसर के जाव नाहित तुम्हारे पचै की छाती पै हो रहा भूंजब और राज करव, समुझे रहौ । “ – एक पतिव्रता नारी ही ऐसे शब्द कह सकती है। घरवाले कहीं फिर कोई ऐसा ही प्रसंग न छेड़ दें, यह सोच कर उसने कान फुंकवा, कण्ठी – माला धारण कर, पति के नाम पर घी से चिकने केशों को मुंडवा कर दीक्षा ले ली और प्रायः संन्यासिनी- सा जीवन व्यतीत कर घर गृहस्थी देखने लगी।

सांसारिक व्यवहार कुशलता : परिस्थितियों में पड़कर भक्तिन को  सांसारिक व्यवहार का पर्याप्त ज्ञान हो चुका था। वह ज्ञान उसे कुछ तो विमाता के क्रिया-कलापों और ससुराल को उपेक्षणीय स्थिति में सारा कामकाज संभालने के कारण मिला। उसे अपनी लड़कियों के साथ घर – बाहर का सारा काम करना पड़ता और तब जाकर कहीं दो टुकड़े रूखे-सूखे खाने को मिलते।

सारा काम खुद संभालने के कारण उसे पता था कि अमराई का कौन सा पेड़, खेतों का कौन-सा हिस्सा और गाय-भैंसों में कौन अच्छे हैं। इस सम्बन्ध में उसका सबसे बढ़ा-चढ़ा ज्ञान भी इसी कारण था । जब पारिवारिक तनाव से वह ऊब चुकी और उसने अपना हिस्सा अलग करने का निर्णय ले लिया तो एक दिन सचमुच ही उसने सबको अंगूठा दिखा दिया। इतना ही नहीं, उसने बंटवारा होते समय बड़ी चतुराई दिखायी। ऊपर-ऊपर से असन्तोष प्रकट कर उसने भीतर – भीतर प्रसन्न होकर जो भी हिस्सा लिया, वह सबसे अच्छा था।

कुछ ही दिनों में पति-पत्नी के परिश्रम से खेत सोना उगलने लगे और उसका घर धन-धान्य से सम्पन्न हो गया। उसकी व्यवहार कुशलता का परिचय उस समय भी मिला जब पति की मृत्यु के उपरांत, सम्पत्ति पर लालची निगाहें लगाये परिवारी जनों को धता बताकर उसने कुछ और ही व्यवस्था कर दी। बड़ी बेटी का धूमधाम से विवाह करने के उपरान्त जब उसने शेष दोनों छोटी बेटियों के भी विवाह कर दिये बड़े दामाद और लड़की को अपने ही घर में रख लिया ताकि जेठ- जिठौत सम्पत्ति पर आंख न लगा सकें।

जन्म की अभागिनी : किन्तु भक्तिन के किये कराये पर एक दिन फिर वज्रपात हो गया। उस जन्म की अभागिन ने स्वयं अपना वैधव्य तो देखा ही, बड़ी लड़की भी जल्दी ही विधवा हो गयी। जेठ-जिठौतों की आंखें उसकी सम्पत्ति पर लगी ही थीं। उन्होंने एक चाल चलकर जिठौत के साले को बड़ी बेटी का पति बना दिया। विवश मां बेटी खून का घूंट पीकर रह गयीं ।

जबर्दस्ती बने घर जमाई ने पूरी घर-गृहस्थी चौपट कर दी और जब खेती का लगान देना दूभर हो गया तो जमींदार से एक दिन की कड़ी धूप की सजा पाकर भक्तिन विचलित हो उठी। जीवन में पहली बार अपमानित भक्तिन यह न सह सकी और गांव छोड़कर नौकरी की तलाश में इलाहाबाद चली आयी। किन्तु जन्म की अभागिनी होते हुए भी उसकी अदम्य जिजीविपा ने उसके संघर्ष – पथ को अवरुद्ध न किया। वह भाग्य और जीवन की विडम्बनाओं से लड़ती, निरन्तर कर्म पथ पर अग्रसर रही।

सेवा-परायणा एवं अनन्य स्वामिभक्ति : भक्तिन के प्रारम्भिक जीवन में ही हमें उसके चरित्र में उत्कट कार्य क्षमता, अनवरत परिश्रम एवं कष्ट सहिष्णुता दिखायी देती है। अपमानित होकर जब वह काम की तलाश में महादेवी जी से मिलती है तो यहां से उसके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ होता है। महादेवी जी की सेवा में वह जिस तत्परता का प्रदर्शन करती हैं उसे देखते हुए उसकी अनन्य स्वामिभक्ति पर सहज ही में ईर्ष्या होती है।

लेखिका इसीलिए उसे सेवा-धर्म में हनुमान जी से प्रतिस्पर्दधा करने वाली बताती है। भक्तिन अनन्य भाव से महादेवी जी को प्रसन्न रखने एवं उनके प्रत्येक कार्य को तत्परता से करने में ऐसी सन्नद्ध दिखायी देती है, यही उसके कर्तव्य की अन्तिम पराकाष्ठा हो । वह उनके भोजन बनाने, कपड़े संभालने या अन्य गृह कार्य करने के साथ ही उनके पीछे पीछे छाया की तरह लगी रहती है और समय- असमय कोई भी छोटा काम क्यों न हो, झट से संकेत मिलते ही कर डालती है।

कभी उत्तर पुस्तिकाओं को बांधना, अधूरे चित्रों को बटोरना या कभी आंचल से चटाई को झाड़ देना ही नहीं, जब महादेवी जी रात में सबके सो चुकने पर एकान्त में लिखने-पढ़ने बैठतीं तो कहीं उन्हें किसी वस्तु की जरूरत न पड़ जाय इसलिए एक चटाई बिछाकर एक कोने पर वह भी बैठ जाती। महादेवी जी की दृष्टि किसी पुस्तक पर उठी नहीं कि झट से रंग पूछकर वह पुस्तक उन्हें थमा देती, या महादेवी को थकान महसूस होती देख झट से चाय बना लाती या एक गिलास मट्ठा पिला देती । उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित होती तो एकान्त में प्रत्येक पृष्ठ को पलट-पलट कर उसमें अपने सहयोग का अंश ढूंढ़ती और स्नेह से उसे माथे और हृदय से लगा लेती।

महादेवी जी से मिलने आने वाले लोगों में से किसको उनका कितना स्नेह – आदर मिल सकता है, उसी भाव से वह भी अभ्यागतों का अलग-अलग ढंग से स्वागत करती। युद्ध – काल में वह आत्म-रक्षार्थ महादेवी जी से गांव चलने का अनुरोध करती है। आर्थिक कमी को दूर करने के लिए वह अपनी पाई-पाई इकट्ठी की गई सारी पूंजी खर्च करने को तत्पर हो उठती है।

युद्ध से उसे भय लगता है किन्तु जब स्वामिनी ही गांव नहीं जाती तो वह भी कैसे जा सकती है। फिर उनकी देख-रेख, उनकी इस प्रकार सेवा कौन करेगा? उसे जेल से भी डर लगता। यहां तक कि जेल की दीवारें देखते ही वह मूर्छित हो जाती किन्तु जब महादेवी जी के जेल जाने की अफवाह उसने सुनी तो वह स्वयं भी जेल जाने को तत्पर हो उठी। उसके बिना मालकिन वहां कैसे रहेगी। वह बड़े लाट तक इस विषय पर लड़ने को उद्यत हो उठती है कि मालकिन के जेल जाने पर उसे जेल क्यों नहीं जाने दिया जायेगा।

 

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