कामायनी एक फैन्टेसी | कामायनी आधुनिक काव्य होते हुए भी एक फेंटेसी है इस कथन की मीमांसा कीजिए
कामायनी एक फैन्टेसी
‘कामायनी’ हिन्दी साहित्य की बहुचर्चित कृति है और इसकी गणना आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य के रूप में की जाती है। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में इतिहास; पुराण, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान तथा संस्कृति के विविध आयामों को अत्यन्त सशक्तता से रूपायित करने का सफल प्रयास किया है।
वस्तुतः ‘कामायनी’ में एक साथ अनेक विचारधाराओं का समावेश किया गया है जो अन्य किसी महाकाव्य में दृष्टिगोचर नहीं होता है । इसके अतिरिक्त, ‘कामायनी’ के महत् उद्देश्य एवं जीवन-सन्देश के आधार पर भी इस महाकाव्य की महत्ता स्वयं सिद्ध है। ‘कामायनी’ के विषय में विभिन्न आलोचकों ने अपने मत प्रकट किए हैं।
कामायनी एक फैन्टेसी
डॉ0 इन्द्रनाथ मदान ‘कामायनी’ के विषय में लिखते हैं—“कामायनी एक असफल कृति है और इसकी असफलता भी साधारण कोटि की न होकर, असाधारण कोटि की है। इसका मूल्यांकन करते समय प्रायः हर आलोचक ने इसकी राह से गुजरने के बजाय अपनी राह को इस पर लादने की कोशिश की है। इसका परिणाम यह निकला है कि वह कृति से दूर और अपने निकट होता गया है, इसे बोलने का कम अवसर देता रहा है। वह अपने मत को उसी तरह इस पर आरोपित करता रहा है, जिस तरह कवि ने समरसता या आनन्दवाद को इस पर आरोपित कर इसकी संश्लिष्टता को भंग किया है ।”
‘कामायनी’ को कुछ अर्थों तक गजानन माधव मुक्तिबोध भी एक असफल महाकाव्य की संज्ञा से ही अभिहित करते हैं और वे इसे महाकाव्य न कहकर फैन्टेसी (स्वप्न – चित्र ) कहते हैं । वास्तव में, ‘कामायनी’ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य में इस प्रकार का दृष्टिकोण गजानन माधव मुक्तिबोध ने ही प्रस्तुत किया है और उन्होंने ‘कामायनी’ का मूल्यांकन भी मार्क्सवादी सिद्धान्त पर किया है। वे ‘कामायनी’ को फैन्टेसी कहते हुए लिखते हैं कि –
‘कामायनी’ उस अर्थ में कथा-काव्य नहीं है जिस अर्थ में ‘साकेत’ है । ‘कामायनी’ की कथा केवल एक फैन्टेसी है। जिस प्रकार एक फैन्टेसी में मन की निगूढ़ कृतियों का, अनुभूत जीवन-समस्याओं का, इच्छित विश्वासों और इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप होता है, उसी प्रकार ‘कामायनी’ में भी हुआ है। कामायनीकार के हृदय में चिरकाल से संचित, (किन्हीं विशेष बातों के सम्बन्ध में) जो संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ हैं,
जो तीव्र दंश हैं, जो निगूढ़ आघात हैं, उन सब में एक जीवन आलोचनात्मक के सूत्र हैं। ये सब प्रतिक्रियाएँ, ये सब दंश और आघात जीवन-आलोचनात्मक वेदना से युक्त होकर उस फैन्टेसी में प्रकट हुए हैं, जिसे हम ‘कामायनी’ कहते हैं ।”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सबसे पहले ‘कामायनी’ का समाज शास्त्रीय विश्लेषण गजानन माधव मुक्तिबोध ने ही किया है। मुक्तिबोध अपने समाज शास्त्रीय एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण को ‘कामायनी’ और उसके कवि जयशंकर प्रसाद पर इस तरह आरोपित करते हैं कि प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में बड़ी लम्बी यात्रा की है ।
गजानन माधव मुक्तिबोध के अनुसार, “कामायनी’ की रूप-रचना फैन्टेसी है और इस काव्य में छायावाद युग की समस्याओं को उठाया है। इसका मनु वेदकालीन नहीं है, वह अपनी ऐतिहासिक भूमि से उत्पन्न हुआ है। फैन्टेसी के सम्बन्ध में गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं
“फैन्टेसी के अन्तर्गत कवि-कल्पना, जीवन की सारभूत विशेषताएँ प्रकट करते हुए, एक ऐसी चित्रावली प्रस्तुत करता है कि जिससे वह तथ्यात्मक जीवन, जिसकी कि स्वानुभूत विशेषताएँ प्रोद्भासित की गई हैं, अधिकाधिक प्रच्छन्न, गौण और नेपथ्यवासी हो जाए । संक्षेप में, फैन्टेसी के अन्तर्गत, भाव-पक्ष प्रधान और विभाव-पक्ष गौण और प्रच्छन्न तो होता ही है, साथ ही यह भाव-पक्ष, कल्पना को उत्तेजित करके, बिम्बों की रचना करते हुए एक ऐसा मूर्त विधान उपस्थित करता है
कि उस मूर्त विधान में उस विधान के नियम होते हैं । इस मूर्त विधान में विभाव-पक्ष मात्र सूचित होता है, मात्र ध्वनित होता है। किन्तु उस नेपथ्य-वासी मूलाधार के बिना, उस अण्डरग्राउण्ड–भूमिगत – विभाव पक्ष के बिना, उस मूर्त विधान का जीवन-महत्व प्रोद्भासित ही नहीं हो सकता । “
प्रसाद जी ने स्वयं ‘कामायनी’ में स्वीकार किया है कि उन्होंने ‘कामायनी’ की रचना करते समय कल्पना से भी काम लिया है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा है कि फैन्टेसी के अन्तर्गत कल्पना से भी कवि कार्य लेता है । अतः इस संदर्भ में जयशंकर प्रसाद का यह विचार उल्लेखनीय है, जो उन्होंने ‘कामायनी’ के ‘आमुख’ में लिखा है
‘यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है। इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व देखते हुए, सांकेतिक, अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं । मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष, सहृदय और मस्तिष्क का सम्बंध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
इन्हीं सब के आधार पर ‘कामायनी’ की कथा – सृष्टि हुई है। हाँ, ‘कामायनी’ की कथा-शृंखला मिलाने के लिए कहीं-कहीं कल्पना को भी काम में ले आने का अधिकार मैं नहीं छोड़ सका हूँ ।””
वास्तव में कवि को यह अधिकार होता है कि वह अपने काव्य की रचना हेतु कल्पना से कार्य परन्तु वह कैसे और किस तरह लेता है, यह विषय विचारणीय है। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ के मुख में जो वक्तव्य लिखा है उसमें वह अपने मन की बात कह रहे हैं किन्तु यह बात कहाँ तक र किस तरह ‘कामायनी’ के भीतर से निकलती है, इसे यहाँ देखना होगा ।
आलोचकों ने प्रायः प्रसाद जी ने वक्तव्य के अनुसार ही ‘कामायनी’ का मूल्यांकन किया है र इसे आप्त वचन के रूप में स्वीकार कर इसे ‘कामायनी’ पर आरोपित करना प्रारम्भ कर दिया, न्तु उन्होंने यह भुला दिया कि यह कृति का अभिन्न अंग है या नहीं है। प्रत्येक आलोचक ने नी-अपनी दृष्टि से प्रसाद जी के ‘कामायनी’ में लिखे ‘आमुख’ को अधिक महत्व प्रदान किया और व्य पर कम बल देकर इसका मूल्यांकन करना प्रारम्भ कर दिया।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रायः अन्य आलोचकों की भांति इसमें असंगति को अपने स्तर खोजा है। उन्होंने ‘कामायनी’ में दो बड़ी असंगतियों की ओर संकेत किया है। पहली असंगति स्त्रों के विषय में और दूसरी इसकी आन्तरिक योजना के विषय में है। उनके अनुसार श्रद्धा- इड़ा सामंजस्य का स्वर ‘कामायनी’ में सुनने को इसलिए नहीं मिला कि श्रद्धा में कमी कवि की एकान्तिकर भावना के अनुकूल क्यों है । इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “जिस समन्वय का कवि ने अन्त में रखा है, उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रकृति के कारण काव्य के भीतर नहीं पाया है।”
इस प्रकार आचार्य शुक्ल ‘कामायनी’ की आन्तरिक योजना में असंगति का अनुभव करते वस्तुतः आन्तरिक योजना में असंगति रमणीय कल्पना से भी है, जो एक फैन्टेसी में भी होती और जिसका उल्लेख गजानन माधव मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप में किया है।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ‘कामायनी’ का विवेचन इसे अलग-अलग खानों में विभाजित करके ते हैं—“इस प्रकार वे इसके विविध पहलुओं को पृथक-पृथक मूल्यांकित करने से, इसके सृजनात्मक डों की पहचान में तो सफल हो जाते हैं, परन्तु इसके सृजन में जो अखण्डता है, और जो काव्य हावी है, जिसे आरोपित किया गया है, का मूल्यांकन करने में वह असमर्थ रहे हैं। निष्कर्ष रूप ‘कामायनी’ की मूल कल्पना उदात्त है और उक्त उदात्त कल्पना का व्यक्तिकरण भी सफलतापूर्वक गया है। 2
इस प्रकार आचार्य वाजपेयी भी यह स्वीकार करते हैं कि प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में कल्पना भी आधार बनाया है, जो फैन्टेसी का एक प्रमुख तत्व है।
प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में कथा-वस्तु फैन्टेसी के रूप में चित्रित की है। इसके अतिरिक्त होंने फैन्टेसी के माध्यम से आत्म-जीवन को और उस आत्मजीवन में प्रतिबिम्बित जीवन जगत् बिम्बों को तथा तत्सम्बन्ध में अपने विचारों एवं चिन्तन को अपने जीवन-निष्कर्षों का प्रस्तुत या है।
प्रायः आलोचकों का ‘कामायनी’ के विषय में यही मत है कि ‘कामायनी’ ऐतिहासिक महाकाव्य इसलिए उसमें वेदकालीन युग प्रवृत्तियों को चित्रित किया गया है परन्तु यह मत निराधार एवं नक प्रतीत होता है। प्रसाद जी का कामायनी की रचना के मूल में जो उद्देश्य रहा है, वह वेदकालीन जीवन-चित्रण नहीं है अपितु वह आधुनिक प्रवृत्तियों और विचारों को कल्पनात्मक रूप से प्रस्तुत क हैं।
वस्तुतः प्रसाद जी के लिए वैदिक कथानक एक विस्तृत फैन्टेसी (स्वप्न-चित्र) का कार्य कर है, जिसके माध्यम से वे एक ओर आधुनिक जीवन तथ्यों एवं स्वयं सोचे हुए अपने निष्कर्षों चित्रात्मक पद्धति से उद्घाटित करना चाहते हैं। साथ ही, दूसरी ओर वह फैन्टेसी, उन तथ्यों अं निष्कर्षों की वर्तमानता को अपने काल तथा स्थान से पृथक करते हुए और इस तरह उन तथ्यों र निष्कर्षों को दूरी प्रदान कर, न केवल आकर्षक बना रही है अपितु वह फैन्टेसी अपने आकर्षण द्वारा वर्तमान जीवन में प्राप्त उन तथ्यों की सप्रश्नता को समाप्त कर रही है । इस प्रकार ‘कामायन के अन्तर्गत यह फैन्टेसी एक ही साथ दो कार्य करती है।
गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस सम्बन्ध में लिखा है, ‘कामायनी’ एक आधुनिक काव्य जिसमें आधुनिक प्रवृत्तियों, तथ्यों तथा प्रश्नों को उपस्थित किया गया है। चूंकि इन आधुनिक तत्व को विशाल फैन्टेसी (तथा इसके भीतर अनेक अन्य फैन्टेसियों) में घुला-मिला दिया गया है तथा वर्तमा जीवन से आकर्षण दूरी पैदा की गई है, इसलिए ‘कामायनी’ हमें ऐतिहासिक महाकाव्य जैसी कु मालूम होती है।”
प्रसाद जी ‘कामायनी’ में मनु, श्रद्धा एवं इड़ा के चरित्रों के माध्यम से जिन निष्कर्षों पर पहुँच हैं, उनके क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हैं। पुरुष, स्त्री, व्यक्ति, समाज, सभ्यता और मुक्ति आदि समग्र विष प्रसाद जी की विश्लेषण-मयी काव्यानुभूति के अन्तर्गत आते हैं – यह बात पृथक है कि उन सामान्यीकरणों से मतभेद रखते हुए, उनकी मान्यताओं की आलोचना की जाये।
वस्तुतः प्रसाद ज ने ये प्रश्न चित्रात्मक रूप में उद्घाटित किये हैं। उन्होंने ‘कामायनी’ में पात्रों का चित्रण काल्पनि एवं फैन्टेसी-प्रधान ढंग से किया है। प्रसाद जी ने मनु को अत्यन्त निराशाग्रस्त चित्रित क्यों किय है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि उसकी परिस्थिति ही ऐसी है। प्राचीन देव-सृषि का विध्वंस हो गया है। मनु का भी सब कुछ ध्वस्त हो गया है। वह संसार में एकाकी है और उ यह नहीं सूझ रहा कि वह जीवन में क्या करे, वह निराश है और उनकी निराशा के एक ही तत् को उद्घाटित करता है प्राचीन सुख का लाभ । यही कारण है कि मनु कहता है।
‘बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिन्ता
तेरे हैं कितने नाम!
अरी पाप है तू, जा चल, जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम ।
विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते ! बस चुप कर दे;
चेतनता चल जा जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे।’
मनु के मन में उस विलास-सुख की घनीभूत प्रभाव छायाएँ अभी भी अंकित हैं। अभाव-दुःख के पीछे, मनु की देव-स्वभाव-सहज-वासना, सुख-लोलुपता भी छिपी हुई है, नहीं तो यह न कहा जाता
इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ को इतिहास के रूप में उपस्थित न कर वर्तमान पूंजीवाद – समाजवाद के विकास का लघु-सा इतिहास रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें उस समाज की प्रमुख समस्या अहं, व्यक्ति को काव्य क्षेत्र में, उसके नग्न रूप में उपस्थित की है।
यही कारण है कि छायावादी व्यक्तिवाद में अपने अभिलाषा-लोक की माधुरी पर मुग्ध होने की वृत्ति है, क्योंकि उसमें अभिलाषा की अन्तर्मुख आत्मचेतना है । इसके साथ ही व्यक्तिवाद तो अपने को समग्र सृष्टि का, जगत का केन्द्र समझता है । अतएव मनु श्रद्धा से कहता है
‘यह जलन नहीं सह सकता मैं,
चाहिए मुझे मेरा ममत्व
इस पंचभूत की रचना में,
मैं रमण करूं बन एक तत्व ।’
प्रसाद जी की विश्व सृष्टि और जीवन सृष्टि श्रद्धा के चरित्र में प्रकट हुई है। इसलिए पुरातनता के मैले-कुचैले वस्त्रों को उतार कर वास्तविक जीवन निर्माण की ओर मनु को उन्मुख करती हुए श्रद्धा कहती है
‘एक तुम यह विस्तृत भूखण्ड,
प्रकृति वैभव से भरा अमन्द,
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनन्द । ‘
श्रद्धा इस प्रकार आरम्भ में भौतिक सुख-समृद्धि की प्रगल्भ प्रेरणा तैयार करती है। वह मनु की मनःस्थिति को समझती हुई बहुत ही मार्मिक सहानुभूति से कहती है-
‘अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते ? तुच्छ विचार!
तपस्वी : आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म-विस्तार ।’
प्रसाद जी को यदि मनु तथा श्रद्धा का आदि मानव और आद्या मानवी के रूप में ही प्रस्तुत करना था तो फिर समाज-विकास के आरम्भिक इतिहास को ध्यान में रख कर करना था और मानवता की विजय घोषणा की आवश्यकता ही नहीं थी ।
‘कामायनी’ में इड़ा बुद्धि की प्रतीक नहीं ( प्रसाद जी ने उसे बुद्धि का प्रतीक-चरित्र स्वीकार किया है) अपतु वह तो पूंजीवादी समाज की मूल विचार धारा का प्रतीक है। वह ज्ञानोन्नति तथा वर्ग-विभाजन के आधार पर नूतन सभ्यता का निर्माण करती है
वह जीवन संघर्ष में योग्यतम की विजय वाले सिद्धान्त को विश्व का चिरंतन मूल नियम मानती है। किन्तु, पूंजीवादी नियम विधान के प्रतिकूल जाने के लिए उसके मन में कोई सहानुभूति नहीं । इड़ा कहती है
‘अग्रसर हो रही यहाँ फूट,
सीमाएँ कृत्रिम रहीं टूट,
श्रम भाग वर्ग बन गया जिन्हें
अपने बल का है गर्व उन्हें ।’
प्रसाद जी ने इड़ा को विज्ञान तथा यंत्र से संयुक्त कर कदाचित उसको बुद्धिवाद कहा हो । वास्तव में बुद्धिवाद वह धारणा है जो यह मानती है कि जगत्, सृष्टि और मानवता अर्थात् समग्र अस्तित्व के मूलभूत और अन्तिम स को बुद्धि द्वारा समझा जा सकता है। इसलिए इड़ा बुद्धिवाद का प्रतीक न होकर स्वयं श्रद्धा अबुद्धिवादी है अर्थात् बुद्धि से अतीत अनुभूति के माध्यम से ही श्रद्धा विश्व-रहस्य समझती है ।
। अन्ततः गजानन माधव मुक्तिबोध के शब्दों में कह सकते हैं “तात्पर्य यह कि ‘कामायनी’ आदि-मानव की कथा नहीं है, वह ऐतिहासिक काव्य भी नहीं है। वह एक आधुनिक काव्य है, जिसमें आधुनिक समस्या है, जिसको एक कथा- फैन्टेसी के विशाल चित्र फलक में अंकित किया गया है
निश्चय ही यदि इस प्रकार आधुनिक समस्या को प्रस्तुत करना था तो उस समस्या की पार्श्व भूमि तथा उसके विकास क्रम को संगठित रूप से, हर बात का ध्यान रखते हुए ही, प्रस्तुत करना था। किन्तु, प्रसाद जी ने ठीक छायावादी कवि की स्वयं-गति द्वारा ही ‘कामायनी’ प्रस्तुत की है।” सारांशतः ‘कामायनी’ एक आधुनिक काव्य होते हुए भी फैन्टेसी है।
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