शंकर या Mahadev आर्य संस्कृति जो आगे चलकर सनातन शिव धर्म या शैव धर्म नाम से जानी जाती है मैं सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है वह त्रिदेव में एक देव हैं उन्हें देवों के देव महादेव भी कहते हैं इन्हें भोलेनाथ शंकर महेश रूद्र नीलकंठ गंगाधर आदि नामों से भी जाना जाता है
शिव अनादि आदि मध्य और अनंत है। Mahadev है प्रथम और Mahadev ही है अंतिम। Mahadev है सनातन धर्म का परम कारण और कार्य। Mahadev है धर्म की जड़। Mahadev से ही है धर्म अर्थ काम और मोक्ष है। सभी जगत Mahadev की ही शरण में है जो Mahadev के प्रति शरणागत नहीं है वह प्राणी दुख के गहरे गर्त में डूबता जाता है ऐसा पुराण कहते हैं जाने अनजाने Mahadev का अपमान करने वाले को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती है।
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Mahadev स्वयं ब्रह्मा है
Mahadev के रूप को धारण करते हैं और लंबी लंबी खूबसूरत जिनकी जटाएं आए हैं जिनकेे हाथ में पिनाक धनुष है
जो सत् स्वरूप हैं अर्थात् सनातन हैं, ओमवार स्वरूप दिव्यगुणसम्पन्न उज्जवलस्वरूप होते हुए भी जो दिगम्बर हैं। जो Mahadev नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, अर्धनग्न शरीर पर राख या भभूत मले, जटाधारी, गले में रुद्राक्ष और सर्प लपेटे, तांडव नृत्य करते हैं तथा नंदी जिनके साथ रहता है। उनकी भृकुटि के मध्य में तीसरा नेत्र है। वे सदा शांत और ध्यानमग्न रहते हैं।
कुछ विद्वान मानते हैं कि शिव पुराण अनुसार शिव के माता-पिता सदाशिव और दुर्गा है। ब्रह्म (परमेश्वर) से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। सदाशिव-दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र और महेश्वर की उत्पत्ति हुई। रुद्र का सदाशिव रूप होने के कारण वे शिव कहलाए।
शिवपुराण के अनुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में कालरूपी एक स्तंभ आकर खड़ा हो गया। तब दोनों ने पूछा- ‘प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।’
तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- ‘पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।’ सदाशिव कहते हैं- ‘ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।’
Mahadev के कारण ही है सभी धर्मों की उत्पत्ति :
Mahadev तो जगत के गुरु और परमेश्वर हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और धरती के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी।
सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य :
Mahadev ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।
Mahadev ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया। Mahadev के शिष्यों के कारण ही दुनिया में अलग अगल धर्मों की स्थापना हुई है। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि Mahadev ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने इस संबंध में कुछ तर्क भी प्रस्तुत किए-पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इनमें बुद्ध के तीन नाम अति प्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर। इसी तरह पश्चिम की संस्कृति और धर्म को भी भगवान Mahadev ने स्पष्ट रूप से प्रभावित किया। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। Mahadev के एक शिष्य ने पश्चिम में जाकर ही Mahadev के धर्म की नींव रखी थी जिसका कालांतर में नाम और स्वरूप बदलता गया।
ऋग्वेद में वृषभदेव का वर्णन मिलता है, जो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ कहलाते हैं। इन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है और Mahadev को भी आदिनाथ कहा गया है। माना जाता है कि Mahadev के बाद मूलत: उन्हीं से एक ऐसी परम्परा की शुरुआत हुई जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगम्बर और सूफी सम्प्रदाय में विभक्त हो गई। फिर भी यह शोध का विषय है। शैव, शाक्तों के धर्मग्रंथों में Mahadev परंपरा का उल्लेख मिलता है। भारत के चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी Mahadev की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव Mahadev ही हैं। शैव धर्म दुनिया की सभी आदिवासियों का धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीनकाल से Mahadev की पूजा होती रही है। इसके अनेक प्रमाण समय-समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। शिव के एक गण नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था। अंतत: Mahadev के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है और इस भिन्नता का कारण है परम्परा और भाषा का बदलते रहना।। ॐ।।
अद्भुत वेशभुषा में सभी धर्मों के प्रतीक चिन्ह :
आपने भगवान Mahadev का चित्र या मूर्ति देखी होगी। Mahadev की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक अर्ध चन्द्र चिह्न होता है, जो कई धर्मों का प्रतीक चिन्ह है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू, तो दूसरे में त्रिशूल है। उनके कंधे पर धनुष और बाण। एक समय पहले उनके हाथ में सुदर्शन चक्र भी होता था, क्योंकि उसका निर्माण ही उन्होंने किया था। शिव ने अपने मस्तक पर त्रिपुंड तिलक धारण कर रखा है।
वे कानों में कुंडल, जटा से निकलकी गंगा की धारा और संपूर्ण देह पर भस्म धारण किए हुए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। उनका विग्रह रूप शिवलिंग है। कभी आपने सोचा कि इन सब शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य क्या है? शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं।
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