Satyanarayan Vrat Katha: सत्यनारायण व्रत कथा, क्यों है आपके लिए उपयोग
Satyanarayan Vrat Katha: यह कथा हिंदू धर्म के अनयायियों में लगभग पूरे भारत में प्रचलित है। सत्यनारायण भगवान विष्णु को ही कहा जाता है। मान्यता है कि सत्यनारायण का व्रत करने और कथा सुनने से मनुष्य सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है। अगर आप भी आज सावन के आखिरी सोमवार को Satyanarayan Vrat Katha करना चाहते हैं तो हम आपको यहां कथा वर्णित कर रहे हैं।
Satyanarayan Vrat Katha
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, एक समय नैमिषारण्य तीर्थ पर शौनकादिकअट्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेता महर्षि श्री सूत जी से पूछा, “हे महर्षि! बिना वेद और बिना विद्या के इस कलियुग में प्राणियों का उद्धार कैसे होगा? क्या ऐसा कोई तरीका जिससे उन्हें मनोवांछित फल मिल पाए। इस पर महर्षि सूत ने ने कहा, “हे ऋषियो! भगवान विष्णु से ऐसा ही प्रश्न एक बार नारद जी ने पूछा था। तब विष्णु जी ने जो जवाब नारद जी को दिया था वही विधि मैं दोहरा रहा हूं।”
भगवान विष्णु ने नारद को बताया था कि सत्यनारायण ही वो मार्ग है जो इस संसार में लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं अंत में परमधाम तक जाता है। सत्यनारायण का अर्थ सत्य का आचरण, सत्य के प्रति अपनी निष्ठा, सत्य के प्रति आग्रह है। सत्य ईश्वर का ही नाम है। विष्णु जी ने नारद को एक कथा सुनाई जिससे इसका महत्व समझ आता है।
कथा के अनुसार, एक शतानंद नाम का दीन ब्राह्मण थेा। वो अपने परिवार का पेट भरने के लिए भिक्षा मांगता था। वो सत्य के प्रति बेहद निष्ठावान था। ब्राह्मण ने सत्याचरण व्रत का किया और भगवान सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा की। इसके बाद ब्राह्मण को सुख की प्राप्ति हुई और वो अंतकाल सत्यपुर में प्रवेश कर गया। ठीक इसी तरह एक काष्ठ विक्रेता भील व राजा उल्कामुख भी निष्ठावान सत्यव्रती थे। ये भी सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा करते थे। इसी तरह इन्हें भी दुखों से मुक्ति मिल गई।
विष्णु जी ने नारद जी का आगे बताया कि ये सभी सत्यनिष्ठ सत्याचरण करने वाले लोग थे जिन्होंने सत्यनारायण का व्रत किया था। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो स्वार्थबद्ध होकर भी सत्यव्रती थे। विष्णु जी ने बताया कि साधु वणिक एवं तुंगध्वज नाम के राजा थे जो स्वार्थसिद्धि के लिए सत्यव्रत का संकल्प लेते थे। लेकिन स्वार्थ पूरा हो जाने के बाद व्रत का पालन करना भूल जाते थे। साधु वणिक की बात करें तो इसे ईश्वर में कोई निष्ठा नहीं थी। लेकिन उसे संतान चाहिए थी। इसलिए उसने सत्यनारायण भगवान के व्रत का संकल्प लिया था। व्रत के फल के रूप में उसके यहां कलावती नामक कन्या का जन्म हुआ। बेटी का जन्म होते ही वो व्रत का संकल्प भूल गया। उसने पूजा नहीं की और इसे कन्या की शादी तक के लिए टाल दिया।
जब कन्या का विवाह संपन्न हुआ तब भी पूजा नहीं की। साधु वणिक अपने दामाद के साथ यात्रा पर निकल गए। दैवयोग से रत्नसारपुर में सुसर और दामाद दोनों पर ही चोरी का आरोप लगाया गया। चोरी के आरोप में नगर के राजा चंद्रकेतु ने उन्हें कारागार में डाल दिया। वहां से बाहर आने के लिए साधु वणिक ने झूठ बोला। उसने कहा कि उसकी नौका में रत्नादि नहीं बल्कि लता पत्र हैं। साधु के इस झूठ के चलते उसकी सभी संपत्ति खत्म हो गई। साधु वणिक के के घर में भी चोरी हो गई। उसके घरवाले दाने-दाने के लिए परेशान हो गए।
इधर कलावती अपनी माता के साथ भगवान सत्यनारायण की पूजा कर रही थी। इसी बीच उसे अपने पिता और उसे अपने पिता और पति के सकुशल वापस लौटने का समाचार मिला। उनसे मिलने की खुशी में वो हड़बड़ी में भगवान का प्रसाद लिए बिना ही पिता व पति से मिलने पहुंच गई। इसके चलते उसके पिता और पति की नाव वाणिक और दामाद के साथ समुद्र में डूबने लगी। इस समय कलावती को अहसास हुआ की उसने कितनी बड़ी भूल कर दी है। वह दौड़कर घर आई और उसने प्रसाद लिया। फिर सबकुछ ठीक हो गया।
इसी तरह राजा तुंगध्वज ने भी सत्यनारायण की पूजा की अवेहलना की जो गोपबंधुओं द्वारा की जा रही थी। राजा पूजास्थल गया भी और प्रसाद भी नहीं लिया। इसके चलते उसे कई कष्ट सहने पड़े। अंतत: उन्होंने भी बाध्य होकर भगवान सत्यनारायण की पूजा की और व्रत किया।
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