Surdas: सूरदास का जीवन परिचय हिंदी में - Rajasthan Result

Surdas: सूरदास का जीवन परिचय हिंदी में

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Surdas के जीवन के संबंध में प्राप्त सामग्री के दो रूप हैं 1. बाहरी साक्ष्य के रूप में। बाहरी साक्ष्य में सूरदास के समसामयिक लेखकों वार्ता साहित्य भक्तों का साहित्य तथा तत्कालीन इतिहास ग्रंथ आते हैं। अतः साक्ष्य में Surdas के आत्मकथन जब तक बिखरे मिलते हैं बाहरी साक्ष्य ‘चौरासी वैष्णवन’ की वार्ता हरिराम कृत ‘भाव प्रकाश’ नाभादास कृत वल्लभ दिग्विजय भक्तमाल, भक्त नामावली आईने अकबरी तथा मुंशीयात है।

हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथ एवं रिपोर्टों में भी सामग्री मिल जाती है भर सागर साहित्य लहरी एवं सुर सारावली को आधार बनाकर अतः साक्ष्य सामग्री देने की विद्वानों ने चेष्टा की है।

Surdas की जन्म भूमि के संबंध में 4 स्थान प्रसिद्ध है

1. साहित्य लहरी में सूर के पिता का निवास गोपाचल माना गया है।

2. डॉक्टर पितांबर दत्त वाड्थवाल भी इसी के पक्ष में हैं की सूरदास की जन्म भूमि मथुरा प्रांत में कोई ग्राम है।

3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदास का जन्म स्थान रुण कथा लिखा है इसका कारण यह है कि सूरदास गऊधार पर रहते थेे।

4. वार्ता साहित्य के अनुसार सूरदास का जन्म स्थान सीही ग्राम है।

यह सिही ग्राम दिल्ली से चार कोस दूर बताया गया है। किंतु अब इस ग्राम का कहीं पता नहीं है चौरासी वैष्णव की वार्ता के अनुसार इनका जन्म आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित गऊधार के पास खनकता ग्राम में हुआ था।

आधुनिक इतिहासकार लेखकों की भी यही मान्यता है की सूरदास का जन्म संवत 1540 के लगभग माना गया है तथा सूरदास की मृत्यु 1620 के लगभग मानते हैं।

Surdas जन्म से अंधे थे या बाद में अंधे हुए यह भी विवाद का विषय है पर सूरदास अंधे थे इस बात की पुष्टि सूरदास के अनेक पदों में भी मिलती है।

बचपन से ही सूरदास वैराग्य लेकर रहे और मथुरा के निकट गोधार पर निवास किया। यहीं पर उनका साक्षात्कार वल्लभाचार्य से हुआ आचार्य बल्लव काशी से मायावाद से खंडन करने के पश्चात ब्रज आए थे इस प्रकार 1526 में उन्होंने शोर को दीक्षा दी आषाढ़ शुक्ल ने सूरदास का वल्लभ से दीक्षित 1580 सन 1523 ईसवी के लगभग माना है इस कथन का कारण कदाचित श्रीनाथजी के मंदिर का सन 1519 ईस्वी में पूर्ण होना है।

आचार्य बल्लभ से दीक्षा लेकर वह गोवर्धन पर्वत पर जीवन व्यतीत करने लगे और श्रीनाथ जी की सेवा में ही जीवन बिताया प्रतिदिन वे मंदिर में कीर्तन सेवा में जाते थे महाप्रभु वल्लभाचार्य के जीवन काल में उनके चार शिष्य मंदिर में पद रचना कर कीर्तन करते थे।

Surdas

Surdas

यह चारों कुंभन दास सूरदास परमानंद दास और कृष्ण दास थे आचार्य बल्लभ के देहांत के बाद भार उनके पुत्र विट्ठलनाथजी पर आया उन्होंने कीर्तन कर्म को विस्तार देने हेतु अपने चार शिष्यों छित स्वामी, गोविंद स्वामी, नंददास और चतुर्भुज दास को भी जोड़ा।

श्रीनाथजी की आठ समय की झांकियों के लिए अष्टछापन की स्थापना हुई जिनमें चार बल्लभ के तथा चार विट्ठलदास के शिष्य मिलकर 8 भक्त हो गए यह सभी पुष्टिमार्ग में दीक्षित है इस प्रकार सूरदास आरंभ से लेकर अंत तक पुष्टि संप्रदाय की सेवा करते रहे सूरदास की जाति एवं तथा वंश पर भी विवाद है आचार्य मुंशी राम शर्मा ने लिखा है कि पंडित हरप्रसाद शास्त्री ने सूरदास के पिता का क्या नाम था रामचंद्र है। सूरदास की माता का नाम— जमुनादास जो वैष्णव भक्ति के अनुसार रामदास बन जाता है इस मत के अनुसार सूरदास के पिता का नाम राम दास ही रहा होगा। जो की सारस्वत ब्राह्मण थे कुछ विद्वानों ने सूरदास को चंदबरदाई की वंश परंपरा में रखा है।

डॉ ब्रजेश्वर वर्मा तो सूरदास को विवाहित मानते हैं यह भी किवदंती यो में कहा जाता है युवावस्था में वह किसी के प्रेम पास में भी बंदे थे और प्रेम में सफल नहीं हो पाए| सूरदास की पत्नी का नाम — आजीवन अविवाहित

Surdas की रचनाएं

सूरदास के जीवन वृत्त के समान ही सूरदास की रचनाएँ की प्रमाणिकता के संबंध में भी मतभेद है नागरी प्रचारिणी की खोज रिपोर्ट इतिहास ग्रंथ तथा विभिन्न पुस्तकालयों से प्राप्त कृतियों के आधार पर सूरदास के 25 मंथ बताए थे जाते हैं। सूरदास की भाषा शैली ब्रजभाषा है।

सुर सारावली, सूरसागर, साहित्य लहरी, गोवर्धन लीला, भंवर लीला, प्राण प्यारी, सुरसाही विनय के स्फुट पद, एकादशी महात्म्य, भागवत भाषा, दशम स्कंध भाषा, सूरसागर सार,सुर रामायण, मान लीला राधा, रसकेली, कौतूहल, दानलीला, रासलीला, ब्याह लो, दृष्टि कूट के पद, सूर शतक, सूर पंछीसी, सेवफल,हरिवंश टीका, नल दमयंती तथा राम जन्म।

इनमें से कुछ कृतियों में तो सूरसागर के ही पद दिए गए हैं तथा कुछ केवल लय एवं गति के कारण ही सर की कृतियों के रूप में मान्य हो गए  मूलतः विद्वानों ने Surdas की तीन रचनाओं को ही प्रामाणिक माना गया है

  1.  सुर सारावली
  2. सूरसागर
  3. साहित्य लहरी

सूरदास का वात्सल्य वर्णन

सूरदास का वात्सल्य वर्णन हिंदी साहित्य की अनुपम निधि हैं रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है बाल सौंदर्य एवं स्वभाव के चित्रण में जितनी सफलता सुर को मिली है उतनी अन्य किसी को नहीं वह अपनी बंद आंखों से वात्सल्या का कोना कोना झांक आए हैं।

सूर के वात्सल्य वर्णन में स्वाभाविकता, विविधता, रमणीयता, एवं मार्मिकता है जिसके कारण वे वर्णन अत्यंत हृदयग्राही एवं मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं। यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ हृदय का ऐसा स्वाभाविक, सरल और ह्रदय ग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। वात्सल्य के दोनों पक्षों संयोग एवं वियोग का चित्रण सूरकाव्य में उपलब्ध होता है। वात्सल्य के संयोग पक्ष में उन्होंने एक और तो बालक कृष्ण के रूप मधुरी का चित्रण किया है तो दूसरी ओर बालोचित चेष्टओं का मनोहारी वर्णन किया है।

सूरदास जी की कला पक्ष/ वियोग पक्ष

सूरदास ने प्रेम के महत्व को संयोग पक्ष से अधिक वियोग पक्ष को बताया है। क्योंकि सूरदास के अनुसार वियोग में किसी से या किसी का प्रेम बनाए रखना ही सच्चे मायने में प्रेम है। जब श्री कृष्णा गोकुल छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो गोकुल वासी श्री कृष्णा के मथुरा चले जाने से बहुत ही ज्यादा बेचैन है क्योंकि वे श्री कृष्ण से बहुत प्रेम करते हैं और उसे देखने और उससे मिलने के लिए बहुत ज्यादा बेचैन है उन्हीं बेचैनियों को सूरदास ने अपनी पद में बिखेरे हुए हैं।

1.मां यशोदा का विरह वर्णन :

एक मां अपने बेटे से कभी अलग नहीं होना चाहती है इस पर भी जब श्री कृष्णा गोकुल छोड़कर मथुरा जाने के लिए तैयार होते हैं तो उनके मन की विरह व्यथा व्याकुल हो उठती है और वह चाहती है कि कृष्णा यहीं रुक जाए।

यशोदा बार-बार यों भाखैं।

हे कोउ ब्रज में हितू हमारों चलत गुपालहिं राखैं।।

सूरदास का संयोग पक्ष

संयोग पक्ष में कृष्णा मथुरा यानी के विंदावन में ही निवास करते हैं सूरदास ने विंदावन में उनके बचपन की बाल लीलाओं का उनके क्रीड़ाओं का बहुत ही सुंदर एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है वहीं वियोग पक्ष में कृष्ण के मथुरा छोड़कर चले जाने से गोकुल वासी किस तरह से कृष्ण के लिए बेचैन है उसका वर्णन वियोग पक्ष में किए हैं तो आइए अब हम सूरदास के वात्सल्य  वर्णन के दोनों पक्ष को देखते हुए सूरदास के वात्सल्य वर्णन का अध्ययन करते हैं-

कृष्णा के प्रति यशोदा मैया का स्नेह वर्णन

यशोदा मैया कृष्णा से बहुत ज्यादा प्रेम करती थी उसे एक पल के लिए अपने आंखों से ओझल नहीं होने देती थी बचपन में जब कृष्णा रो पड़ता था तो पूरे घर को सर पर उठा लेती थी साथ ही श्रीकृष्ण को जब नींद नहीं आती थी तो वह कुछ भी उन्हें गाकर सुनाया करती थी उनका यह प्रेम इस पंक्ति में अंकित है

जशोदा हरि पालने झुलावै।

हरलावे दुरलावै जोई सोई कछु गावै।।

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