निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राण | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |
निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राण बोले “आया न समझ में यह दैवी विधान। रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर! करता मैं योजित...
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