तरसि तरसि प्रान जान मनि दरस कौं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

तरसि तरसि प्रान जान मनि दरस कौं, उमहि उमहि आनि आँखिनी बसत है। विषय विरह के विसिष हियें घायल है, गहवर धूमि – धूमि सोचनि ससत है। निसिदिन लालसा लये हि ही रहत लोभी,...