मीत सुजान अनीति करौ जिन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
मीत सुजान अनीति करौ जिन, हा हा न हूजियै मोहि अमोही। दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर, फिरि दृग रावरे रूप की दोही|| एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान...
मीत सुजान अनीति करौ जिन, हा हा न हूजियै मोहि अमोही। दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर, फिरि दृग रावरे रूप की दोही|| एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान...
Recent Comments