आड़ न मानति चाड-भरे घरी ही रहे | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

  आड़ न मानति चाड-भरे घरी ही रहे अति लाग-लपेटी | ढीठि भई मिलि ईठि सुजान न देहि क्यौं मीठि जु दीठि सहेटी । मेरी स्वै मोहि कुचैन करै घनआनन्द रोगिनि लौं रहे लेटी...