हरि अपनैं आँगन कछु गावत | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूरदास |
हरि अपनैं आँगन कछु गावत । तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥ बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति । कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥ माखन तनक आपनैं कर...
हरि अपनैं आँगन कछु गावत । तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥ बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति । कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥ माखन तनक आपनैं कर...
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