कबीर का व्यक्तित्व और रचना संसार,कबीर का काव्य
कबीर का व्यक्तित्व :- कबीर हिंदी भक्तिकाव्य के प्रारंभिक कवियों में है। उन्होंने ईश्वर के निर्गुण रूप को स्वीकार करते हुए अपनी भक्ति का विकास किया। कबीर जिस समय में हुए उस दौर में समाज की तथाकथित निम्न जातियों को साधना का अधिकार नहीं था।
कबीर ने ऐसी किसी बंदिश को मानने से इंकार कर दिया और साथ कर्मकांड को महत्व देने वाली उपासना पद्धति से अपनी असहमति जताई। उन्होंने योग तथा प्रेम को महत्व दिया। ऐसा माना जाता है कि उन्हें किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पाई थी। इस कमी की पूर्ति उन्होंने सत्संग एवं यात्राओं के माध्यम से की।
इसने उनकी अभिव्यक्ति को प्रभावित किया और उनकी भाषा में विभिन्न क्षेत्रीय प्रभाव आए। कबीर की साधना बहुत कुछ अंतर्मुखी है इस कारण उनमें रहस्यात्माकता की भी प्रवृत्ति है। आगे इन सबके बारे में आपको विस्तृत जानकारी दी जा रही है।
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कबीर का व्यक्तित्व और रचना संसार
मध्ययुगीन हिंदी भक्ति साहित्य में कबीर सबसे पहले आते हैं। रचनाकाल की दृष्टि से भी और पूरे समाज को प्रभावित करने की दृष्टि से भी। कबीर के व्यक्तित्व को समझने के लिए उस युग के उथल-पुथल को समझना आवश्यक है। कबीर राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक सांस्कृतिक संक्रमण की व्यापक और गंभीर सरणियों का परिणाम थे।
एक ओर राजनीतिक दृष्टि से इस्लाम का शासन पूरी तरह स्थापित हो चुका था, तो दूसरी ओर समाज ऊँच नीच के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस्लाम धर्म के रूप में समता के सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत कर रहा था, तो इस्लाम के आने से स्थापत्य, निर्माण, व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई।
इस बढ़ोत्तरी ने निम्न समझी जाने वाली जातियों को (मुख्य रूप से कामगार जातियाँ थीं) में थोड़ी आर्थिक संपन्नता उत्पन्न की। इन दोनों संदर्भो ने सैद्धांतिक एकता और अपेक्षाकृत बहुत कम ही सही, आर्थिक उन्नति ने समाज की विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच भक्ति को एक अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया।
यह भी स्वीकृत मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद ही मनुष्य अधिकारों की बात करता है। आज की आधुनिक शब्दावली में बात कही जाए, तो भक्ति मध्ययुग का लोकतांत्रिक अधिकार ठहरती है, क्योंकि मध्ययुग में मनुष्य का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति थी। मोक्ष ईश्वर के चरम तादात्म्य से प्राप्त होता था।
ईश्वर का चरम तादात्म्य भक्ति द्वारा संभव था। चूंकि समाज में जब से वर्णाश्रम व्यवस्था स्थापित हुई थी, तब से भक्ति पर सवर्णों का अधिकार था। मध्यकाल में नई सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में जब कबीरदास आदि भक्त कवि भक्ति को अधिकार के रूप में देखते हैं, तो यह शताब्दियों की वर्णाश्रम व्यवस्था को गंभीर चुनौती थी।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीरदास’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, “कबीरदास की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई है। उन दिनों उत्तर के हठयोगियों और दक्षिण के भक्तों में मौलिक अंतर था। एक टूट जाता था पर झुकता न था, दूसरा झुक जाता था। इन्हीं धार्मिक राजनीतिक सामाजिक वातावरण में कबीरदास का उद्भव होता है।
इस संक्रमणशील समय और उसकी विभिन्न वृत्तियों से ही कबीरदास का व्यक्तित्व निर्मित हुआ है। इसीलिए कबीर के व्यक्तित्व में मैदानी भाग में बहने वाली नदी की कलकलता नहीं है, अपितु पहाड़ों में बहने वाली नदी का निनाद है।
कबीरदास के व्यक्तित्व में अगर योगियों की अखंडता है तो वैष्णव भक्तों की तल्लीनता भी। अगर उनमें जाति और धर्म की विसंगतियों पर गंभीर व्यंग्य है, तो ईश्वर को पा लेने की चरम उत्कंठा भी है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी इसी पुस्तक में बताया है,
“कबीरदास ने यह अक्खडता योगियों से विरासत में पाई थी। संसार में भटकते हुए जीवों को देखकर करुणा के अश्रु से वह कातर नहीं हो आते थे, बल्कि और भी कठोर होकर उसे फटकारते थे। वे योगियों से अक्खंडता पाते हैं तो उन्हें चुनौती भी देते हैं। मेरुदंड पर दुलैचा डालकर समाधि लगाने वाले को वो कच्चा योगी कहते हैं :
मेरुदंड पर डारि दुलैचा जोगी तारी लावें।
सो सुमेर की खाक उडैगी कच्चा योग कमावै।।
योगियों पर कबीर के इस तरह के प्रहार अनेक स्थलों पर हैं। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं कि भला हृदय में भगवत् भक्ति न हो तो शरीर की साधना कहाँ तक साथ देगी :
जरि गौ कथा धज गौ टूटी। भजि गौ डंडे खपर गौ फूटी।
कहहिं कबीर उ कली हैं सोती जो रहे करवा सौ निकरे होती।।
परंतु इस अखड़ता को उनका फकीराना व्यवहार स्थानापन्न भी करता है। वे किसी भी व्यवहार के साथ ताउम्र नहीं रहे। चाहे वह जितना भी खराब या अच्छा क्यों न हो। इस का मूल कारण यह रहा होगा कि वे सत्संग आदि के माध्यम से अपना निरन्तर परिष्कार करते चलते हैं। अपने इसी स्वभाव के कारण वे कह पाते है :-
हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ ।
अब घर जारों तासु का, जो चलै हमारे साथ ।
कबीर के व्यकित्व को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन शब्दों में रेखांकित किया है, “ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्तमौला; स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़; भक्त के सामने निरीह, वेशधारी के आगे प्रचण्ड; दिल के साफ, दिमाग क दुरुस्त भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय।”
कबीर का जीवन-वृत्त
कबीरदास के जीवन-चरित्र के संबंध में अत्यंत सीमित जानकारी प्राप्त होती है। कबीरदास के जीवन के संदर्भ में जिन लोगों ने भी लिखा है, वह सब श्रुतियों पर आधारित है। यहाँ तक कि उनके जन्म और मृत्यु संबंधी हमारी जानकारी भी आधिकारिक या प्रमाण पुष्ट नहीं है। विभिन्न विद्वानों ने इनका जन्म वर्ष अलग-अलग बताया है। पर इतना निश्चित है कि ये पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में विद्यमान थे। कबीरपंथियों में इनके जन्म को लेकर यह पद प्रचलित है :
चौदह सो पचपन साल गए, चंद्वर एक ठाठ ठए ।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए ।।
घन गरजे दामिनि दमके बूंदें बरषं झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिलें तहँ कबीर भानु प्रगट हुए।
यह पद कबीरदास के शिष्य धर्मदास का बताया जाता है। कहा जाता है कि कबीरदास का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी से हुआ। इनकी माता ने इन्हें तालाब के किनारे छोड़ दिया था और एक मुस्लिम दंपत्ति नीरू और नीमा ने इनका लालन-पालन किया। यह परिवार जुलाहा जाति से संबंधित था। कबीर के जुलाहा होने की पुष्टि उनके निम्न पद से भी होती है :
जाति जुलाहा मति को धीर।
हरसि हरसि गुन रमै कबीर।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार यह जुलाहा परिवार हाल ही में मुसलमान हुआ था। साथ ही वे यह भी बताते हैं, “कबीरदास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है, पर मुस्लमान एक बार भी नहीं। वे बराबार अपने को “ना-हिंदू ना-मुस्लमान कहते रहे।” कबीरदास ने कोई परंपरागत शिक्षा ग्रहण की होगी, इसकी गुंजाइश कम ही दिखाई पड़ती है। जनश्रुति में वे निरक्षर ही माने जाते है। कबीर ने स्वयं भी कहा है :
मसि कागद छूयो नहिं, कलम गहि नहिं हाथ ।
चारिउ जुग की महातम, मुखहिं जनाई बात ।।
इसके बावजूद रामानंद को उनका गुरु स्वीकार किया जाता है। उपर्युक्त पद के अभिधा में लेने पर भी इतना तो स्पष्ट है कि कबीर की व्यावहारिक शिक्षा सघन थी। उन्होंने सत्संग किया। सभी के पास कुछ सीखने की ललक से गए क्या योगी, क्या नाथ, क्या वैष्णव! कहा जाता है कि उन्होंने लंबी-लंबी यात्राएँ कीं। इन यात्राओं के दौरान उनके ज्ञान और अनुभव में वृद्धि होता रही।
कबीर के साथ प्रायः लोई का नाम लिया जाता है। कुछ लोग लोई को कबीर की पत्नी तथा कुछ अन्य लोग उसे इनकी शिष्या बताते हैं। यह भी बताया जाता है कि लोई से कबीर के कमाल और कमाली नाम के पुत्र-पुत्री हुए। कबीर ने लोई को संबोधित करके कई पद कहे हैं। एक पद में वे कबीर और लोई के एक घर होने की बात कहते हैं :
रे या मैं क्या मेरा तेरा, लाजन मरहिं कहत घर मेरा ।
कहत कबीर सुनहु हे लोई, हम तुम वितति रहेगा सोई।
कबीरदास राजनीतिक काल के हिसाब से सिकंदर लोदी के युग में हुए। बताया जाता है कि अपने विचार और व्यवहार के कारण वे राजसत्ता के कोप के भाजन भी हुए। इनकी मृत्यु के संबंध में भी कोई निश्चित राय नहीं है। कुछ विद्वान श्याम सुंदर दास और रामचंद्र शुक्ल आदि-इनकी मृत्यु 1518 ई. में मानते हैं परंतु पीतांबर दत्त बड़थ्वाल 1448 ई. में ही इनकी मृत्यु बताते हैं।
कबीर की रचनाएँ (कबीर का काव्य)
यह मान्य है कि कबीरदास को अक्षर ज्ञान नहीं था। कबीरदास की रचनाओं को उनके शिष्यों ने संग्रहीत किया। परंतु कबीरदास के नाम पर प्रचलित ग्रंथों की प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध रही है। विश्वनाथ सिंह जूदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि कबीर के जीवनकाल में ही उनके बहुत जाली ग्रंथ बन गए थे। कबीरदास के कुछ पद ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में भी मिलते हैं।
कबीर साहित्य की वैज्ञानिक खोज का कार्य सन् 1903 में एच.एच. विल्सन ने शुरू की। उन्हें कबीर के नाम पर कुल आठ ग्रंथ मिले। इसके बाद बिशप जी. एच. वेस्टकॉट ने कबीर लिखित 84 पुस्तकों की सूची प्रकाशित की।
रामदास गौड़ लिखित ‘हिंदूत्व’ नामक ग्रंथ में 71 पुस्तकें, तो मिश्र बन्धुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ में 75 पुस्तकें बताई है। इसी प्रकार हरिऔध जी ने ‘कबीर वचनावली’ में 21, रामकुमार वर्मा ने ‘हिंदी का आलोचनात्मक इतिहास’ में 61 ग्रंथों और नागरी प्रचारिणी सभा की खोज-रिपोर्टों में 140 ग्रंथों की सूची मिलती है। इन ग्रंथों में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सूचनाएँ हैं, इसकी प्रामाणिकता पर गहराई से विचार नहीं किया गया है।
. आधुनिक समय में श्यामसुंदर दास ने ‘कबीर ग्रंथावली’, डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘संत कबीर’, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने ‘कबीर वचनवाली’, डा. पारसनाथ तिवारी ने ‘कबीर-ग्रंथावली’ आदि नामों से कबीर की रचनाओं का संपादन किया है। हिंदी के अतिरिक्त बंगला में रवींद्रनाथ टैगोर ने भी कबीर के पदों का चयन प्रस्तुत किया है।
क्षितिमोहन सेन ने भी ‘कबीर के पद’ संपादित किए हैं। कबीरदास की रचनाएँ ‘बीजक’ नाम से संग्रहीत हुई। ‘बीजक’ का अर्थ है- गुरुधन बताने वाली सूची। कबीर ने कहा है :
बीजक वित्त बतावई, जो बित गुप्त होय ।
सबद बतावै जीव को, बूझै बिरला कोय ।
बीजक संबंधी उपर्युक्त पद का अर्थ है- जो वित्त या गुरु धन होता है, उसका ज्ञान केवल बीजक से लगता है, उसी प्रकार जीव के गुप्त धन को अर्थात उसके वास्तविक स्वरूप को शब्द रूपी बीजक बताते हैं। कबीर का साहित्य साखी, सबद और रमैनी के रूप में उपलब्ध है।
कबीर ने बीजक में सृष्टि, माया, जीव, मोक्ष, माया से संबंधित, भव पंथ के कष्टों, सत्यानुभव, सत्संग महिमा, संसार की असारता, सदगुरु महिमा, भक्ति आदि का विषद विवेचन किया है। दर्शन के साथ काव्य का सुंदर सामंजस्य कबीर की रचनाओं की अन्यतम विशेषता है।
बीजक के तीन भाग हैं : साखी, सबद, रमैनी। इनके अर्थ को जान लेना आवश्यक है। प्रायः माना जाता है कि रमैनी में जगत् व्यवहार, साखी में जीव और सबद में ब्रह्म संबंधी विचार हैं। रमैनी चौपाई छंद में लिखी गई है। इनमें कुछ रमैनियाँ ऐसी भी हैं जिनके अंत में एक-एक साखी है।
इस संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है, “साखी उद्धृत करने का अर्थ यह होता है कि कोई दूसरा आदमी मानो इन रमैनियों को लिख रहा है और इस रमैनी-रूपी व्याख्या में कबीर की साखी या गवाही पेश कर रहा है।” रमैनी शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में हुआ है :
१) जिसमें संसार के जीवों के रमण का विवेचन है।
ii) वेद शास्त्रों के विचारों में रमण करने वाली।
iii) एक छंद विशेष जिसके प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं।
कबीर ने सबद का प्रयोग दो भावों को ध्यान में रखकर किया है
i) परमतत्त्व के अर्थ में
ii) पद के अर्थ में
साखी शब्द संस्कृत के ‘साक्षी’ शब्द का तद्भव है। साखी अर्थात् साक्ष्य । अर्थात साखी वह काव्य रूप है जिसमें प्रत्यक्ष जागतिक अनुभवों का वर्णन है। द्विवेदी जी ने साखियों को कबीर के सिद्धान्तों की जानकारी का सर्वोत्तम साधन माना है।
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