कबीर की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए |
कबीर की भक्ति :– भक्तिकाल के प्रारंभिक दौर में कबीरदास जैसे उग्र व्यक्तित्व का आना उस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति जैसा है, जो सामंती-ब्राह्मणवादी मूल्यों और संस्थाओं के विरूद्ध मनुष्य की भावनात्मक स्वायतता के लिए अनिवार्य होती है |
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कबीर की भक्ति
निर्गुण ईश्वर
कबीर उच्च कोटि के भक्त थे। ‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ अर्थात ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति है। कबीरदास की परम अनुरक्ति में शायद ही किसी को संदेह हो। परंतु उनकी आसक्ति ईश्वर के किसी सगुण साकार रूप पर न थी। वे ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप के उपासक थे।
निर्गुण अर्थात् गुण रहित । यहाँ गुण भी प्रसंगतः विशिष्टार्थ ध्वनित करता है। गुण अर्थात शरीर का वाचक धर्म। तब कबीर का ईश्वर शरीर के वाचक धर्मों से परे है। कबीरदास कहते हैं कि उनका हरि सबसे परे है। वह अगुण और सगुण दोनों से परे है, अजर-अमर दोनों के अतीत है :
संतो, धोखा कासू कहिये।
गुन मैं निरगुन, निरगुन में गुन, बात छाड़ि क्यूँ कहिये।
अजर अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाई।
नीति स्वरूप बरण नहिं जाके घटि घटि रह्यौ समाई।
प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई वाके आदि अरु अंतन होई।
प्यंड ब्रहमंड छांडि जे कहियै कहै कबीर हरि सोई ।।
इतना ही नही, वह भाव और अभाव से भी परे है। अर्थात भाव और अभाव दोनों द्वारा उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता, वह दोनों से परे हैं :
कह्यां न उपजै उपजां नहीं जाणै भाव अभाव बिहूगं ।
उदै अहत जहाँ मति बुधि नाहीं सहजि राम ल्यौं लीनां ।।
राम का स्वरूप
कबीर ने राम की उपासना की है। प्रश्न है कि कबीर के राम हैं कौन? कबीर को राम नाम का मंत्र गुरु रामानंद से प्राप्त हुआ था। परंतु उनके राम रामानंदी सगुण राम नहीं हैं। वह निर्गुण है। कबीरदास के इस निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप के पीछे युग की ऐतिहासिक सीमाएँ ही जिम्मेवार थीं।
कबीर के समय में जातिवाद, धर्मवाद, संप्रदायवाद, मठवाद आदि समस्याएँ थीं। इन सब कुरीतियों का खामियाजा समाज के तथाकथित निम्न वर्ग को ही उठाना पड़ता था। इन तथाकथित निम्न वर्ण के लोगों को साधना, पूजा अर्चना का अधिकार नहीं होता था। और जब ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है तो सदैव देवालयों की आकांक्षा क्यों हो?
इस अंतर्विरोध के कारण ही कबीर आदि अनेक तथाकथित निम्न वर्ग के कवियों ने अपने लिए निर्गुण उपासना का मार्ग चुना और उन प्रचलित धार्मिक मतों का खंडन किया जिसने मनुष्य-मनुष्य में भेद बना रखा था। इससे निम्न वर्ण के लोगों को न केवल भक्ति का अधिकार प्राप्त हुआ, अपितु उनमें आत्म सम्मान का भाव भी जागा।
इसे कबीर के प्रति बहुत सहानुभूति नहीं रखने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी स्वीकारते हैं। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, “दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना। अर्थात कबीर के राम पुराण प्रतिपादित राम नहीं थे। कबीर के राम ने न दशरथ के घर जन्म लिया और न ही रावण को मारा। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि राम को दूर खोजने की जरूरत नहीं है। वह सारे शरीर में रम रहा है।
विभिन्न भक्ति पथों से संबंध
कुछ लोग आक्षेप लगाते हैं कि कबीरदास कभी अद्वैतवाद की ओर झुकते दीखते हैं। और कभी एकेश्वरवाद की ओर, कभी वे पौराणिक सगुण भाव से ईश्वर को पुकारते है और कभी निर्गुण भाव से। वास्तव में उनका कोई स्थिर तात्विक सिद्धांत नहीं था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका उचित प्रत्याख्यान किया और कहा कि यह केवल अश्रद्धा प्रसूत है।
ऐसी बातें वही लोग कहते हैं, जो शुरू में ही मान बैठते हैं कि कबीर एक अशिक्षित जुलाहे थे और उल्टी-सीधी अटपटी बानियों से साधारण जनता पर प्रभाव जमाना चाहते थे।
दूसरी बात यह है कि सत्संग के द्वारा उन्होंने सारा ज्ञान अर्जित किया है। जिस समय जिस मत के लोगों उनका सत्संग होता था, उसका कुछ प्रभाव उनकी वाणियों पर पड़ता भी था। परंतु शीघ्र ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और विराट अनुभव से वे उस पंथ की असंगतियों और मनुष्य विरोधी भावनाओं को पकड़ लेते थे।
इस तरह वे निरंतर संवाद करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। इस कारण विभिन्न पंथनुयायियों से उनका एक द्वंद्वात्मक संवाद का नाता जीवन भर बना रहा। इस द्वंद्वात्मक संवाद के बीच एक ही सत्य है कि उन्होंने ‘त्रिगुणातीत’, द्वैताद्वैत विलक्षण, भावाभाव विनिर्मुक्त, अलख, अगोचर’ ईश्वर को ‘निर्गुण राम’ कह कर संबोधित किया।
रहस्य भावना
कबीर की भक्ति के संदर्भ में रहस्य भावना को समझना आवश्यक है। रहस्य का सामान्यार्थ है दुर्बोध तत्त्व। उस दुर्बोध तत्त्व से मनन द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करने की प्रवृत्ति रहस्यवाद है। कालांतर में रहस्यवाद परम सत्ता के प्रति जिज्ञासा का पर्याय हो गई।
आचार्य शुक्ल के अनुसार, “चिंतनों के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, काव्य के क्षेत्र में रहस्यवाद” | शुक्ल जी के इस कथन पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। रहस्यवाद में चेतन के साथ विश्वचेतन की अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है। रहस्यवाद में ‘अहम्’ और ‘इदम् का क्रमशः लोप होता जाता है। एकत्व भाव ही इसकी प्रथम और अंतिम शर्त है। डा. रामकुमार वर्मा ने भी कहा है कि ‘अद्वैत ही मानो रहस्यवाद का प्राण है।’ कबीर के ब्रह्म अद्भुत हैं और उनकी गति अगम है :
निरगुन राम जपहूँ दे भाई अविगत की गति लखि न जाइ।
रहस्यवाद की चार विशेषताएँ मानी गई हैं- आध्यात्मिक प्रेमधारण का अबाध प्रवाह, जागरण का सातत्य, अनंत की ओर भावुकता के साथ हृदय की उन्मुखता, तथा अग्रसरण। कबीर की कविताओं में ये चारों विशेषताएँ मिलती हैं। कबीर की रहस्यात्मकता इसलिए भी गहरी है, क्योंकि कबीर को अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों से सरोकार है। वे असीम, अनंत, शून्य रूपी ईश्वर का सान्निध्य पाकर सारी व्यथा भूल जाते हैं : –
हरि संगति शीतल भया, मिटा मोह की ताप ।
निस बासरि सुख निध्य लया, जब अंतरि प्रकट्या आप ।।
कबीर रूप और सीमा की सहायता से उस शाश्वत, अरूप और असीम को देखते हैं, जो उनका चरम प्राप्य है। इसकी सहायता से ‘मैं’ और ‘पर’ का भेद समाप्त हो जाता है, द्वैत मिल जाता है। आत्मा परमात्मा के साथ नीरक्षीरवत संबंध स्थापित करती है :
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यही तत गियानी।
भक्तिकाल और कबीर
भारत में भक्ति की परंपरा बहुत प्रचीन, विशद और गहरी रही है। इस परंपरा में ही हिंदी का भक्ति आंदोलन है। हिंदी भक्ति आन्दोलन उत्तरी भारत में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक फैला है। इस काल में भक्ति समाज के विभिन्न सरणियों में जाति, धर्म, कुल की सीमाएँ लाँघकर फैल गई।
इस रूप में ही उसने एक जन आंदोलन का रूप लिया। इसीलिए रामविलास शर्मा जैसे विद्वान इसे ‘लोकजागरण’ की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार, “भारतेंदु युग उत्तर भारत में जनजागरण का पहला दौर नहीं है, वह जनजागरण की पुरानी परंपरा का खास दौर है।
जनजागरण की शुरूआत तब होती है जब वहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाँ विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है।” इस सिद्धांत के अनुसार ही आधुनिक काल के जनजागरण को वे ‘नवजागरण’ और मध्यकालीन जनजागरण को ‘लोकजागरण’ कहते है। आधुनिक काल का जनजागरण साम्राज्यवाद विरोधी था, जबकि मध्यकालीन लोकजागरण सामंतवाद विरोधी।
इस रूप में विचार करें तो मध्ययुग का भक्तिकाल भक्ति की क्लासिकी अवधारणाओं तक खुद को सीमित नहीं रख सकता था। इस संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी का मत यह है कि भक्तिकाल में ‘धर्म साधना का नहीं, भगवान का विषय बन गया।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति को धर्म का रसात्मक रूप कहा है। यहाँ यह विचार करना जरूरी है कि मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का ऐतिहासिक आधार क्या है?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति को इस्लामी आक्रामण से पराजित हिंदू जनता की मनः स्थिति से जोड़ा है। प्रश्न उठता है कि भक्ति आंदोलन की शुरूआत दक्षिण से क्यों हो रही थी? दक्षिण से इसके शुरू होने की बात को आचार्य रामचंद्र शुक्ल रेखांकित किया है, “भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई।”
द्विवेदी जी ने इसे भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास बताया। इन विद्वानों ने अपने तरीके से भक्ति आंदोलन को समझा। इनमें सत्य के अंश भी हैं। परंतु दक्षिण में भक्ति का जो उदय हो रहा था, वह जातिगत कठोरता के कारण। वास्तव में भक्ति आंदोलन सामंती व्यवहारों के विरुद्ध भारत का अपना जातीय संदर्भ है। इस तथ्य को समझने के लिए के. दामोदरन की इन पंक्तियों को देखना चाहिए, “ब्राह्मणवाद की मुख्य शिक्षा थीअवैयक्तिक, शाश्वत, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ब्रह्म में विश्वास करो।
किन्तु ब्राह्मणवाद केवल दर्शन मात्र नहीं था। दार्शनिक विचारों को प्रतिपादित करने के साथ ही उसने आदिम सर्वात्मवादी विश्वासों और कर्मकांडों को पुनर्जीवित किया, उन्हें सुदृढ़ बनाया और धार्मिक मतवादों में परिवर्तित कर दिया। ब्राह्मणवाद सामंती व्यवस्था की देन है। इसीलिए भक्ति आंदोलन आत्यंतिक रूप से सामंती व्यवस्था से टकराता है।
भक्तिकाल के प्रारंभिक दौर में कबीरदास जैसे उग्र व्यक्तित्व का आना उस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति जैसा है, जो सामंती-ब्राह्मणवादी मूल्यों और संस्थाओं के विरूद्ध मनुष्य की भावनात्मक स्वायतता के लिए अनिवार्य होती है
कहै कबीर विचारि करि, जिनि कोई खोजै दूरि ।
ध्यान धरौ मन सुफ करि, राम रह्या भरपूरि।।
कहै कबीर विचारि करि, झूठा लोही चांम।
जा या देह रहित है, सो है रमिता राम ।।
वस्तुतः जब कबीरदास निर्गुण भगवान का स्मरण करते हैं, तो वे भगवान के गुणमय शरीर को नहीं स्वीकारते। वास्तव में यह कबीर की मौलिक कल्पना नहीं है। इसके पूर्व भी निर्गुण रूप में ईश्वर की उपासना की जाती थी, उसका स्वरूप बताया गया है। परंतु वहाँ ईश्वर को बताने के लिए निषेधात्मक उपकरणों की सहायता ली जाती है। कबीर की मौलिकता यह है कि वे इस निर्गुण से केवल निषेधात्मक भाव ग्रहण नहीं करते, अपितु उसके स्वरूप को भी निषेधात्मकता की परिधि से बाहर खींच लाते हैं।
वस्तुतः वे ईश्वर को सत, रज और तम गुणों से भी अतीत मानते हैं। कबीर के निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार सगुण भक्त कवियों की भाँति नहीं किया जा सकता। वास्तव में कबीर ने घट-घट में ईश्वर की सत्ता स्वीकार करके परमात्मा और जीवात्मा में एकत्व स्थापित किया है। उनके अनुसार यह एकत्व माया के कारण खंडित होता है। कबीर कहते है :-
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तत कहो गियानी।
अर्थात् माया के समाप्त होते ही परमात्मा जीवात्मा की एकता स्थापित हो जाती है। कबीर ने निर्गुण ब्रह्म को संबंधों में बाँधकर एक प्रकार से उसे अनुभवातीत होने से बचाया है। कभी पत्नी, कभी मित्र, कभी दास आदि अनेक संबंध में बाँधकर कबीर ने ‘गूंगे के गुड़ को कुछ कथनीय भी बनाया है। इसी कारण कबीर के राम अव्यावहारिक और असामाजिक नहीं हो पाते।।
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