कामायनी के दार्शनिक पक्ष | जयशंकर प्रसाद |
कामायनी के दार्शनिक पक्ष :- कामायनी की रचना जयशंकर प्रसाद ने ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यान पर की है। इतिहास के साथ-साथ प्रसाद जी ने रूपक को भी अपनाया है जिसका उल्लेख उन्होंने कामायनी के आमुख में किया है। उन्होंने यथासंभव बाह्य घटनाओं के मूल में सन्निविष्ट उन सिद्धांतों की भी चर्चा की है जिनके आधार पर मनु अर्थात मन श्रद्धा अर्थात हृदय एवं इड़ा अर्थात बुद्धि के समन्वय को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
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कामायनी के दार्शनिक पक्ष
इसके अतिरिक्त कामायनी में मनोविज्ञान का सुंदर परिपाक हुआ है प्रसाद जी ने कामायनी में दर्शन का समावेश किया है। उन्होंने कामायनी में जीवन तथा जगत की गतिविधियों का यथार्थ रूप में दार्शनिक सिद्धांतों के आधार पर चित्रण किया है।
प्रसाद जी ने कामायनी में मानव जीवन के अनेक जटिलताओं एवं विषमताओं को उद्घाटित करने का प्रयास किया है साथ ही उन्होंने इन जटिलताओं के निवारण का भी उपाय भी बतलाया है। उन्होंने जीवन के विरोधियों का उल्लेख करते हुए सूक्ष्म वैज्ञानिक दृष्टि से काम लिया है। इसके लिए उन्होंने प्राचीन भारतीय दर्शन का उपयोग किया है कामायनी में सन्निहित जीवन दर्शन आनंदवाद है जिसे समरसता की संज्ञा में अभिहित किया जाता है। प्रसाद जी ने समरसता का उल्लेख कामायनी में अनेक स्थानों पर किया है। जीवन का एक प्रमुख वैषम्य सुख दुख से संबंधित है उन्होंने सुख एवं दुख की दुविधा का निराकरण इन शब्दों में किया है – कामायनी के दार्शनिक पक्ष
‘ जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत् की ज्वालाओ का मुल;
ईश का वह रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूल।’
कामायनी के प्रारंभ में मनु एकांकी एवं चिंतन अवस्था में है वह अतीत के विषय में सोचते सोचते निराश हो गए हैं। उनकी यह चिंता बुद्धि अथवा मती का ही परिणाम है यहां इस स्थिति में मनु आत्मोन्मुखी नहीं अपितु विषयोन्मुखी है। वे आत्मा की पूर्णता बहिर जगत मैं खोजते हैं उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि बाहर भीतर आनंदवन शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। समग्र विषयों में समस्त स्थितियों में जहां तक मन की गति हो सकती है। कामायनी के दार्शनिक पक्ष
वहां आत्मानंद प्रतिष्ठित है जलप्लावन के उपरांत निर्जन प्रदेश में स्वयं को एकांकी पाकर मनु अत्यंत चिंतित होते हैं। मनु के जीवन में श्रद्धा आती है और वह समरसता के सिद्धांत से उनके दुख तथा चिंता को कम करने का प्रयास करती है। कामायनी में समरसता अथवा आनंद का भाषण सर्वप्रथम श्रद्धा के इन शब्दों में मिल जाता है जहां वह मनु को चिंता से मुक्त करना चाहती है – कामायनी के दार्शनिक पक्ष
दुःख की पिछली रजनी बीच,
विकसता सुख का नवल प्रभात।
एक परदा यह झीना नील,
छिपाए हैं जिसमें सुख गात।
नित्य समरसता का अधिकार,
उमड़ता कारण जलधि समान।
व्यथा से नीली लहरो बीच,
उमड़ते सुख मणिमय घुतिमान।
इस प्रकार ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने स्पष्ट शब्दों में बताया है कि सुख अथवा आनन्द की सत्ता ही वास्तविक है। अतएव ‘कामायनी का प्रतिपाद्य आनन्दवाद है अर्थात् ‘कामायनी’ की दार्शनिकता आनन्दवाद में सन्निहित है।
कामायनी का आनन्दवाद
आनन्दवाद निर्गुण-निराकर पद्धति को लेकर चला है। यह आनन्द बाह्य न होकर आत्मान्नद है जो शाश्वत अनुभूतियों का परिणाम है। शैया का आनन्दवाद उपनिषदों के आधार पर रचा गया है। आनन्दवाद के विषय में डॉ० नगेन्द्र ने लिखा है :-
“कामायनी में जिस रूप की प्रतिष्ठा है, वह स्पष्टतः आत्मस्थ है वह अन्तर्मुख आनन्द या आत्मानन्द है-बाह्य, गोचर, विश्व रूप में प्रसारित आनन्द नहीं है। विश्व में माधुर्य का जो संचार दृष्टिगत होता है, वह उसकी ही प्रतिच्छाया मात्र है। (आनन्द सर्ग) | इच्छा, क्रिया, और ज्ञान के सामंजस्य से सम्पन्न मनःस्थिति इसकी भूमिका है, दूसरे शब्दों में यह आनन्द सामरस्य का पर्याय है।””
कामायनी के आनन्दवाद के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि “कामायनी में जी ने अपने प्रिय आनन्दवाद की प्रतिष्ठा दर्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बना कर की है। यह आनन्दवाद वल्लभाचार्य के ‘काम’ या आनन्द के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों की अन्तर्भूमि पद्धति पर है ।
वस्तुतः “कामायनी’ में यह आनन्द सामरस्य के पर्याय के रूप में चित्रित किया गया है
‘स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो
इच्छा, क्रिया, ज्ञान मिल लय थे,
दिव्य अनाहत पर निनाद में
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।”
समरसता के कारण ही समस्त विश्व अखण्ड आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है
‘समरस थे जड़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती,
आनन्द अखण्ड घना था।’
इसकी सिद्धि ‘कामायनी’ में मनु को श्रद्धा द्वारा होती है। समरसता की प्रतीक श्रद्धा का पूर्ण प्रत्याभिज्ञान जब मनु को हो जाता है तभी उनमें समरसता की भावना जागृत होती है और उन्हें शिव का आनन्दपूर्ण ताण्डव नृत्य सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है। स्पष्टतः यह आनन्द औपनिषिदिक परम्परा से प्रभावित शैवद्वैत-प्रतिपादित अभेदमय आत्मस्वाद है ।
जिसमें आत्म तथा परमात्म के ही नहीं, अपितु आत्म एवं जगत् में भी पूर्ण ऐक्य की भावना सन्निहित है। इस अखण्ड आत्मानुभूति में द्वयता के हेतु कोई स्थान नहीं है -संसार की बाह्य द्वयता, दुःख तथा सुख की इस सामरस्य में अन्तर्लीन हो जाती है। ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने इस सामरस्य की अवस्था को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है –
‘सब भेद-भाव भुलाकर
दुख सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे ! ‘यह मैं हूँ’
यह विश्व नीड बन जाता।’
यही शैवाद्वैत में प्रतिपादित अहम् तथा इदम् की अभेद स्थिति है, परम शिव की चतुर्थ शक्ति ‘ईश्वर-तत्व’ में ‘इदमहम्’ के द्वारा इसी की अनुभूति होती है।
प्रसाद जी के सामरस्य में शिव एवं शक्ति का ही परस्पर सामरस्य नहीं है, प्रत्युत शक्ति की विरोधी वृत्तियों की भी समरसता है। अतएव ‘कामायनी’ के आनन्दवाद में आध्यात्मिकता व्यावहारिकता में परिवर्तित हो जाती है । यही उनके सिद्धान्त की अपूर्वता है। प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के अनुसार शिव ही आनन्दरूप है। यही कारण है कि प्रसाद जी ‘कामायनी’ में महाचिति का वर्णन करते हुए लिखते :-
‘चिति का स्वरूप यह नित्य जगत्,
वह रूप बदलता है शत-शत ।
कर विरह मिलनमय नृत्य निरत
उल्लासपूर्ण आनन्द सतत ।’
‘कामायनी’ में मनु की दुःखमूलक उक्तियों का सामंजस्य इस आनन्दवाद के साथ कैसे स्थापित किया जा सकता है-
‘विस्मृति आ, अवसाद घेर ले
नीरवते ! बस चुप कर दे।
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।’
वास्तव में यह ‘कामायनी’ का पूर्वपक्ष है, सिद्धान्त पक्ष नही है। मनु के उपरोक्त कथन मन आवृत अवस्था के परिचायक हैं, शुद्धावस्था के नहीं। इस प्रकार अन्वय अतिरेक से ये आनन्दवाद की प्रतिष्ठा में ही सहायक हैं, क्योंकि दुःख की यह स्वीकृति सामरस्य के अभाव तथा विषमता से प्रेरित है।
सामरस्य की अवस्था में दुःख की स्थिति आत्मा के लीलाभिनय-रूप जीवन में विदूषक में अधिक नहीं रहती, जो कुछ क्षणों के हेतु परिहासपूर्ण अभिनय कर अन्त में लुप्त हो जाता स्थिति को ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने निम्नलिखित शब्दों में रूपायित किया है |
‘सुख-सहचर दुःख विदूषक
परिहासपूर्ण कर अभिनय
सबकी विस्मृति के पट में
छिप बैठा था अब निर्भय ।’
इस प्रकार स्पष्ट है कि यह आनन्द अद्वैतजन्य है, परन्तु यह अद्वैत वेदान्त प्रतिपादित अद्वैत नहीं है, शैवाद्वैत ही है जो शिव को, मोक्ष को और संसार को भी पूर्णानन्दमय स्वीकार करता है, जिसके अनुसार कहीं अशिव अथवा निरानन्द के दर्शन नहीं होते।
प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ के अन्तिम सर्ग को तो ‘आनन्द’ की संज्ञा से अभिहित किया है, जहाँ अहं का इदं में पूर्णतया पर्यवसान है, पुरुष और प्रकृति का पूर्ण सामरस्य है। भेद का पूर्ण अभाव है। जड़ तथा चेतन समग्र समरस है। ‘कामायनी’ के समस्त पात्र उस आनन्द में लीन हैं’
शापित न यहाँ है कोई
तापित पापी न यहाँ है
जीवन वसुधा समतल है
समरस है जो कि जहाँ है।”
इस प्रकार ‘कामायनी’ का दर्शन श्रद्धामूलक आनन्दवाद में सन्निहित है। डॉ० नगेन्द्र ने इस आनन्द के विषय में लिखा है, “अतः यह सर्वथा निर्विवाद है कि ‘कामायनी’ का आधारभूत दर्शन शैवाद्वैत-कश्मीरी शैवदर्शन- प्रत्यभिज्ञान ही है। ‘कामायनी’ में प्रतिपादित आत्मा, जीव, के स्वरूप से, उसमें प्रयुक्त प्रचुर पारिभाषिक शब्दावली से और बाह्य साक्ष्य के आधार पर इस स्थापना की सहज ही पुष्टि हो जाती है । ”
‘कामायनी’ की दार्शनिकता के विषय में डॉ0 विजयेन्द्र स्नातक ने लिखा है कि मनु अर्थात् मनन शक्ति के साथ श्रद्धा अर्थात् हृदय की भावात्मक सत्ता या विश्व-समन्वित रागात्मिका वृत्ति तथा इड़ा अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धि के संघर्ष और समन्वय का विवेचन ही ‘कामायनी’ का दार्शनिक आधार है। वस्तुतः प्रसाद जी ने वर्तमान युग की विभीषिकाओं के पीछे बौद्धिकता, आसुरी वृत्तियों और भौतिकता को ही मूल कारण माना ।
‘कामायनी’ में प्रतिपादित आत्मा, जगत आदि का स्वरूप इस प्रकार निरूपित किया गया है
1. कामायनी में आत्मा का स्वरूप-
‘कामायनी’ में आत्मा से अभिप्राय शिव से है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में शिव लीलामय कर्मों–सृष्टि स्थिति संहार, अनुग्रह और निराधान-को करके सृष्टि का विकास करते हैं, इसी प्रकार प्रसाद जी ने भी ‘कामायनी’ मे आत्मा के हेतु चिति, महाचिति, चेतनता आदि का उल्लेख किया है –
‘कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजा हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम इसी में सब होते अनुरक्त ।’
इसके अतिरिक्त ‘कामायनी’ में अनेक स्थलों पर महाचिति अर्थात् शिव को अनेक प्रकार के कार्य करते दिखाया गया है
‘चितिमय चिता धधकती अविरल
महाकाल का विषम नृत्य था,
विश्व रन्ध्र ज्वाला से भर कर
करता अपना विषम कृत्य था।’
प्रसाद जी ने शिव की परिकल्पना शैव दर्शन के आधार पर करके उन्हें आनन्द-सागर और शक्ति को उनकी तरंग की संज्ञा से अभिहित किया है। यह शिव वेदान्त के ब्रह्म से भिन्न स्वप्रकाशानन्द और ‘कामायनी’ में, मनु अन्त में उसी आश्रयरूप को प्राप्त करते हैं, जिसका वर्णन प्रसाद जी ने आनन्द सर्ग में किया है :-
‘चिर मिलित प्रकृति से पुलकित
वह चेतन पुरुष पुरातन
निज शक्ति-तरंगायित था
आनन्द अम्बु-निधि शोभन ।’
2. जीव का स्वरूप –
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में जीव को पुरुष की संज्ञा से अभिहित किया गया है। ‘कामायनी’ में जीव अथवा पुरुष के प्रतीक मनु हैं। इस प्रकार प्रसाद जी ने मनु को पुरुष के रूप में ही चित्रित किया है, इस संदर्भ में ‘कामायनी’ का प्रारम्भिक छन्द उल्लेखनीय है, जहाँ जलप्लावन के पश्चात् मनु को शिला पर बैठे हुए दिखाया है :-
‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह ।’
इसके अतिरिक्त ‘कामायनी’ में मनु के प्रारम्भिक जीवन में निराशा, जड़ता अहम् भाव, भेद बुद्धि, अकर्मण्यता एवं भोग-भावना इत्यादि प्रवृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। वस्तुतः ये समस्त प्रवृत्तियाँ दार्शनिक दृष्टि से शैव दर्शन में उल्लेख किए गए षट् कंचुकों को ही प्रस्तुत करती हैं :-
‘शैल निर्झर न बना हतभाग्य,
गल नहीं सका जो कि हिमखण्ड,
दौड़कर मिला न जलनिधि अंक,
आ वैसा ही हूँ पाषण्ड ।’
वास्तव में ये कंचुक पुरुष मनु को जब तक घेरे रहते हैं, तब तक वे प्रकृति से साक्षात्कार नहीं कर पाते। वे पाशों में आबद्ध रहते हैं। मनु ‘निर्वेद’ सर्ग से इन पाशों को काटने का प्रयास करते
‘अंध तमस है, किन्तु प्रकृति का
आकर्षण है खींच रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी मैं
झुंझलाता हूँ खीझ रहा।’
जीव अर्थात् मनु की विविध अवस्थाओं का चित्रण प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर ही किया गया है। कामायनी के ‘चिन्ता’ सर्ग से ‘कर्म’ सर्ग तक मनु की जाग्रत अवस्था स्वीकार की जा सकती है। इस अवस्था के अन्तर्गत कवि स्थावर जंगमात्मक विश्व की स्थिति मानता है। अथवा इसे बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न साधारण बोध भी कहा जा सकता है। कामायनी’ में मनु जब इन्द्रिय सुख के विषय में चर्चा करते हैं, तब वह जीवन की इसी अवस्था का चित्रण करते हैं :-
‘इन्द्रिय की अभिलाषा जितनी
सतत सफलता पावे,
जहाँ हृदय की तृप्ति विलासिनी
मधुर मधुर कुछ गावे ।’
जींव की विकल्पावस्था के आधार पर स्वप्न की स्थिति मानी जा सकती है। यहाँ पर मनु का श्रद्धा को ईर्ष्यावश छोड़ जाने का प्रसंग भी है। सुषुप्त अवस्था में जीव माया, मोह, आदि के है । मनु अर्थात् जीव की ‘कामायनी’ में स्थिति ‘स्वप्न’, ‘संघर्ष’ एवं ‘निर्वेद’ सर्गों में दृष्टिगोचर होती है :-
‘शापित-सा में जीवन का यह
ले कंकाल भटकता हूँ,
उसी खोखलेपन में जैसे
कुछ खोजता अटकता हूँ।’
इसके अतिरिक्त जीव की तुरीयाबस्था ‘कामायनी’ के उस स्थल से प्रारम्भ होती है, जहाँ वे शान्ति की प्राप्ति करने के हेतु श्रद्धा से अनुनय-विनय करते हैं :-
‘आँख बन्द कर लिया क्षोभ से
दूर-दूर ले चल मुझको,
इस भयावने अंधकार में
कहीं न फिर तुझको ।’
‘कामायनी’ के ‘रहस्य’ सर्ग में जीव (मनु) तुरीयातीत अवस्था में पहुँच जाता है। सैद्धांतिक दृष्टि से इस अवस्था में जीव को पूर्णत्व और परमानन्द की प्राप्ति होती है। वस्तुतः तुरीयातीत की यह अवस्था पूर्ण शिवत्व की प्राप्ति की अवस्था है
‘प्रतिफलित हुई अब आँखें
उस प्रेम ज्योति विमला से,
सब पहचाने से लगते
अपनी ही एक कला से । ‘
इस प्रकार कोशों की दृष्टि से भी अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि मनु अर्थात् मन मनोमय, प्राण अथवा जीव और अन्नमय कोशों अर्थात् तीन मलों से आवृत्त है। जब मन इन तीन मला अलग होता है, तब वह नटेश के दर्शन कर विज्ञानमय कोश में पहुंचता है और त्रिपुर के सामरस्य से आनन्दमय कोश में पहुँच कर अखण्ड आनन्द को प्राप्त करता है ।
3. जगत का स्वरूप –
यह जगत महाचिति की लीलामयी अभिव्यक्ति है, इसलिए यह मंगलमय, श्रेयस्कर एवं आनन्दमय है। प्रसाद जी ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन के मत के अनुसार ‘कामायनी’ में जगत अथवा संसार को सुन्दर और मंगलमय माना है :-
‘काम मंगल से मण्डित श्रेय
सर्ग इच्छा का है परिणाम
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असफल भवधाम ।’
इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने जड़ तथा चेतन संसार को मूलतः समरस रूप में ही चित्रित किया है। इस जगत में दुःख-सुख, विषमताएं, ज्वालाएं समस्त ईश्वर का रहस्यमय वरदान हैं :-
‘अपने दुःख-सुख से पुलकित,
यह मूर्त विश्व सचराचर,
‘चिति’ का विराट वपु मंगल
यह सत्य, सतत, चिर-सुन्दर ।’
प्रसाद जी ने जगत् का यह वर्णन सैद्धान्तिक दृष्टि से किया है, परन्तु उन्होंने ‘कामायनी’ के आरम्भिक अंश में जगत् को मिथ्या एवं दुःखमय भी स्वीकार किया है :-
‘महानृत्य का विषम सम, अरी
अखिल स्पन्दनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है
सृष्टि सदा होकर अभिशाप ।’
‘कामायनी’ में प्रसाद जी की जगत् सम्बन्धी यह विचारधारा उस समय की है, जब मनु (मन) पाश अवस्था में आबद्ध था। इस विचारधारा को सैद्धांतिक नहीं स्वीकार किया जा सकता।
डॉ० नगेन्द्र जगत् के विषय में लिखते हैं कि “शैव दर्शन के अनुसार यह विश्व शिव या चिति से अभिन्न है – वही अपनी इच्छा से अभिन्न रूप में इसका उन्मेष करती है।”
4. प्रकृति का स्वरूप
प्रकृति परिवर्तनशील है और नित्य नवीन रूप में परिवर्तित होती रहती है। इसी नवीनता में इसकी आनन्दवादी वृत्ति भरी हुई है। प्रवृत्ति परमात्मा के साथ समरसता की स्थिति में रहती है –
‘चिर मिलित प्रकृति से पुलकित,
वह चेतन पुरुष पुरातन,
निज शक्ति तरंगायित था,
आनन्द – अम्बु-निधि शोभन ।’
इसके अतिरिक्त ‘कामायनी’ में श्रद्धा ने प्रकृति की निरन्तर परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है :-
पुरातनता का यह निर्मोह
सहन करती न प्रकृति पल एक,
नित्य नूतनता का आनन्द
किये हैं परिवर्तन में टेक ।’
5. नियति का स्वरूप –
निर्यात को प्रत्यभिज्ञा दर्शन में शिव की शक्ति के रूप में माना गया है। इस नियति को विश्व की नियामिका के रूप में चित्रित किया जाता है। देब-सृष्टि के विध्यम के समय नियति के पथ का संकेत करते हुए ‘कामायनी’ में मनु कहते हैं :-
‘लगते प्रबल थपेड़े, धुंधले,
तट का था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा
देख नियति पथ बनी वहीं ।’
‘कामायनी’ के ‘आशा’ सर्ग में प्रसाद जी ने नियति को शासिका के रूप में चित्रित किया है। इसके अतिरिक्त ‘रहस्य’ सर्ग में उन्होंने नियति को कर्मचक्र चलाने वाली भी स्वीकार किया है :-
‘नियति चलाती कर्मच -चक्र यह
तृष्णा जनित ममत्व वासना,
पाणि-पादमय पंचभूत की
यहाँ हो रही है उपासना ।’
वस्तुतः ‘कामायनी’ में नियति शिव की शक्ति है, जो अनेक कार्य करती है। नियति के शासन से जीव उसी समय मुक्त होता है जब वह शिवत्व को प्राप्त कर लेता है |
कामायनी में अन्य दार्शनिक विचारधाराएँ
‘कामायनी’ के प्रारम्भ में देवताओं के जीवन दर्शन की तुलना में मानव जीवन दर्शन का निरूपण किया गया है। प्रसाद जी की दृष्टि में देवताओं की अमरता सापेक्ष तथा स्वल्प-स्थायी अमरता थी। देव-सृष्टि का भी विध्वंस प्रसाद जी ने प्रदर्शित किया है। इस विध्वंस का कारण है देव संस्कृति का निर्माण एकांगी आधार पर होना। केवल सुख की इच्छा को लेकर इसका विकास हुआ था। प्रकृति पर प्रभुत्व स्थापित कर वह अपने उद्देश्य की पूर्ति करना चाहती थी।
प्रसाद जी पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अतिरिक्त बौद्ध दर्शन के दुःखबाद, क्षणबाद तथा शून्यवाद और डार्विन के विकासवाद का भी प्रभाव पड़ा है। बौद्ध दर्शन के अनुसार यह संसार और इसके विविध कार्य-कलाप तत्वतः दुःखवादी हैं। ‘कामायनी’ में मनु के द्वारा आरम्भिक अंशों में इसी दुःखबाद की अभिव्यक्ति हुई है। इस बौद्ध दर्शन के मूल में मध्ययुगीन नियतिवाद निहित है :-
‘वे सब डूबे; डूबा उनका
विभव, बन गया पारावार,
उमड़ रहा है देव सुखों पर
दुःख जलधि का नाद अपार ।’
‘कामायनी’ में क्षणवाद की अभिव्यक्ति प्रसाद जी ने मनु के माध्यम से की है। देव-सृष्टि के विध्वंस पर विचार करते हुए और श्रद्धा से वार्तालाप करते हुए इस क्षणिकता का उल्लेख मिलता है-
‘तुच्छ नहीं है अपना सुख भी,
श्रद्धे, वह भी कुछ है;
दो दिन के इस जीवन का तो
वही चरम सब कुछ है ।’
इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता’ सर्ग में शून्यवाद चित्रण किया है :-
‘मौन ! नाश : विध्वंस : अन्धेरा!
शून्य बना जो प्रगट अभाव
वही सत्य है, अरी अमरते !
मुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव ।’
इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त ‘कामायनी’ में वर्तमान वैज्ञानिक चिन्तन धाराओं के अनेक सिद्धान्त भी स्थान-स्थान पर परिलक्षित होते हैं । ‘कामायनी’ में परिवर्तनवाद, परमाणुवाद, शक्ति- स्पर्धावाद दृष्टिगोचर होते हैं। ‘कामायनी’ पर डार्विन के विकासवाद का भी गहन प्रभाव है।
प्रसाद ने ‘कामायनी’ में डार्विन के विकासवाद का परिवर्तन, जीवन की सामर्थ्य एवं स्पर्धा भाव के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने परिवर्तन के विषय में ‘कामायनी’ के अनेक सर्गों में लिखा है। यहाँ ‘संघर्ष’ सर्ग से एक उदाहरण द्रष्टव्य है :-
‘तरल अग्नि की दौड़ लगी है सबके भीतर,
गलकर बहते हिम-नग सरिता लीला रच कर ।
यह स्फुलिंग का नृत्य एक पल आया बीता,
टिकने को कब मिला किसी को यहाँ सुभीता ?”
‘कामायनी’ में स्पर्धाभाव ‘काम’ सर्ग में दृष्टिगोचर होता है :-
‘यह यह नीड़ मनोहर कृतियों का,
यह विश्व कर्म रंगस्थल है;
है परम्परा लग रही यहाँ
ठहरा जिसमें जितना बल है ।”
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने ‘कामायनी’ की दार्शनिकता के विषय में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये है – “प्रसाद का आनन्दवाद सर्वबाद के सिद्धांत पर स्थित है, जो बौद्धिक अद्वैत सिद्धान्त से, जिसमें माया की सत्ता भी स्वीकार की गयी है, भिन्न है। सर्ववाद प्रवृत्ति और निवृत्ति पर आश्रित है। भारतीय दर्शन की वह धारा जो वेदों में समस्त दृश्य जगत् को ब्रह्म से अभिन्न मानकर चली है, क्रमशः शैवागम ग्रन्थों में प्रतिष्ठित हुई। प्रसाद जी ने शैबागम से ही इस सर्ववादमूलक आनन्दवाद को ग्रहण किया है।”
इस संदर्भ में डॉ० नगेन्द्र ने लिखा है कि “कामायनी में फलयोग की सिद्धि श्रद्धा द्वारा होती है- अर्थात् आत्म-विश्वास पर आधृत अभेदमयी आस्तिक भावना ही आनन्द की साधिका है, भेदमयी बुद्धि, इड़ा, बाधक है। अतः बुद्धिवाद और उसके अनेक विकास रूप ‘कामायनी’ के पूर्व-पक्ष के ही अन्तर्गत मानने चाहिए, जो निषेध के द्वारा व्यतिरेक पद्धति से सिद्धान्त, पक्ष अर्थात् शैवाद्वैत पर आधृत आनन्दवाद की प्रतिष्ठा करते हैं।
इस प्रकार डॉ० नगेन्द्र भी ‘कामायनी’ की दार्शनिकता आनन्दमय ही स्वीकार करते हैं। अन्नतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ‘कामायनी’ की दार्शनिकता मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक धरातल पर अवस्थित है। इसका अनुकरण कर आज का मानव वर्तमान युग की समग्र विषमताओं से मुक्त हो सकता है ।
यह आनन्दवाद निराशा तथा अवसाद एवं चिन्ता की भर्त्सना कर ओजस्विता, आशा तथा उल्लास का वरण करता है। उसके लिए नियति मात्र भाग्य नहीं अपितु विश्व की मांगलिक नियामिका भक्ति है। ‘कामायनी’ का आनन्दबाद भोगवाद एवं वैराग्य से भिन्न होकर काम-प्रेरित कर्म का संदेश देता है। यह आनन्दबाद ‘श्रीमद्भागवद्गीता’ से साम्य रखता है।
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