कृपा-सिन्धु तुम्हरी कृपा | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह ||
कृपा-सिन्धु तुम्हरी कृपा, जो कछु मो पर होइ |
रचौं चण्डिका की कथा, वाणी सुभ सब होइ || 2 ||
कृपा-सिन्धु तुम्हरी कृपा
प्रसंग : प्रस्तुत पद्य दशम गुरु गोविन्द सिंह की रचना ‘चण्डी- चरित्र’ में से उद्धृत किया गया है। अपना चरित-काव्य आरम्भ करने से पहले उसकी निर्विघ्न पूर्णता के लिए परम तत्व की स्तुति करते हुए, कवि इस पद्य में कह रहा है —
व्याख्या : हे दया के सागर भगवान! यदि आप की परम कृपा का थोड़ा-सा अंश भी मुझे प्राप्त हो जाए, तो मैं आदि शक्ति मां चण्डिका की कथा की रचना आरम्भ करूं। यदि आपकी अनुपम कृपा मुझे प्राप्त हो जाएगी, तो उसके प्रभाव से में जो कुछ भी लिखूं या रचूंगा, वह सारी रचित वाणी अपने स्वरूप में शुभ होकर संसार का भी शुभ करने वाली प्रमाणित होगी। अतः आप कृपाकर मुझे रचना – शक्ति प्रदान कीजिए ।
भाव यह है कि भगवान की इच्छा से ही सब कार्य पूर्ण हुआ करते हैं। अतः उसकी कृपाकांक्षा और कृपा प्राप्ति परम आवश्यक है।
विशेष
1. कवि ने काव्य-रचना करने से पहले भगवत – स्तुति की परम्परा का उचित निर्वाह किया है।
2. परम तत्व के प्रति कवि की आस्था विशेष उल्लेख्य है।
3. कवि चण्डी देवी का परम भक्त प्रतीत होता है।
4. निवेदन एवं समर्पण का भाव स्पष्ट है।
5. पद्य में वर्णन, रूपक अलंकार और दोहा छंद है।
6. भाषा सहज, सरल और शैली स्तुतिपरक है।
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