गोदान उपन्यास का सारांश | प्रेमचंद |
गोदान उपन्यास का सारांश :– इस इकाई का आपने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है, आपने यह निश्चित रूप से महसूस किया होगा कि प्रेमचंद का ‘गोदान ‘ किसान जीवन के संघर्ष को अभिव्यक्त करने वाली सबसे महत्वपूर्ण रचना है। यह प्रेमचंद की आकस्मिक रचना नहीं है, वरन् उनके जीवन-भर के सर्जनात्मक प्रयासों का निष्कर्ष है।
गोदान उपन्यास का सारांश
होरी जैसे अल्पभूधारक किसान का जीवन-भर सामंती व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष भारतीय किसान की त्रासदी को हमारे समक्ष स्पष्ट कर देता है। ‘अपनी जान और कुल-मर्यादा से भी प्यारी जमीन’ को बचाने के प्रयासों में अपना सब कुछ खोकर वह मजदूर हो जाने पर विवश हो जाता है। ज़मींदार, साहूकार, अफसर, पटवारी और पुरोहित जैसी अनेक शोषक शक्तियाँ एक किसान को भूमि से वंचित कर मजदूरी की ओर धकेलने में सहायक हो जाती है।
शोषक यहाँ ज़मींदार ही है जो पहले सामंतवाद को पोषित कर रहा था अब पूंजीवादी व्यवस्था का नियामक होता चला जा रहा है। वास्तव में गोदान एक ऐसे काल खंड की कथा है जिसमें सामंती समाज के अंग किसान और ज़मींदार दोनों ही मिट रहे हैं और पूंजीवादी समाज के मजदूर तथा उद्योगपति उनकी जगह ले रहे हैं।
प्रेमचंद ने ‘जबरदस्ती ‘ (8 मई, 1933) नामक लेख में भारतीय किसान की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा है ‘भारतीय किसान की इस समय जैसी दयनीय दशा है, उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं कर सकता। उनकी दुर्दशा को वे स्वयं जानते हैं – या उनका भगवान जानता है।
ज़मींदार को समय पर मालगुजारी चाहिए, सरकार को समय पर लगान चाहिए, किसान को खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न चाहिए, पहनने के लिए एक चीथड़ा चाहिए, चाहिए सब कुछ, पर एक ओर तुषार तथा अतिवृष्टि फसल चौपट कर रही है, एक ओर आंधी उनके रहे-सहे खेत को भी भ्रष्ट कर रही है – दूसरी ओर रोग, प्लेग, हैजा, शीतला उनके नौजवानों को हरी-भरी तथा लहराती जवानी में उसी तरह उठाए लिए चली जा रही है।
जिस तरह लहलहाता खेत अभी छ: दिन पूर्व के पत्थर-पाले से जल गया। गल्ला पैदा हो रहा है, पर भाव इतना मंदा है कि कोई दो वक्त भोजन भी नहीं कर सकता।
स्त्री के तन पर जो दो-चार गहने थे, वे साहूकार के पेट से बचकर वे सरकार की मालगुजारी के पेट में चले गए। नन्हे बच्चे जो चीथड़े ओढ़कर जाड़ा काटते थे, वही अब उनका पिता पहनकर अपने तन की लाज ढक रहा है। “माता के पास केवल इतना ही वस्त्र है, जितने से वह चूंघट काढ़ सके – धोती चाहे घुटने तक ही क्यों न खिसक आए।”
प्रेमचंद अपने लेखों में बार-बार किसान द्वारा एक बार कर्ज लेने पर जिंदगी भर तक उस कर्जे के बोझ को ढोते रहने की विवशता को रेखांकित करते है। होरी द्वारा कर्ज से मुक्ति के लिए जी-जान से की जाने वाली कोशिशे उसकी विवशता को बयान करती है। चौतरफा शोषण को झेलने के लिए मजबूर होरी, कुछ न कर पाने की स्थिति में भाग्य पर दोष लगाकर और शिथिल हो जाता है।
मजबूरी में ही सही ज़मींदारों के पैर सहलाने में ही वह अपना भला समझता है। किसानों के भाग्यवादी, अंधविश्वासी होने के कारण भी उसका सामाजिक और आर्थिक शोषण होने की संभावनाएँ बढ़ती रहती है।
प्रेमचंद ने किसानों के शोषण की इस न खत्म होने वाली श्रृंखला में होरी पर बिरादरी द्वारा लगाए गए जुर्माने और डांड के प्रसंग को विस्तार से हमारे सामने प्रस्तुत किया है। जाति प्रधान सामाज-व्यवस्था की निष्ठुर अमानवीयता ने होरी पर लगाए जुर्माने और डांड को चुकाने के लिए होरी खुद ही अनाज के टोकरे भर-भर कर पंचायत में पहुँचा आता है। वह बिरादरी द्वारा बहिष्कृत किए जाने के डर से विवश होकर यह सब करता है।
उसका शोषण करने वालों के समक्ष समर्पण, अपने बचाव का ही प्रयास है। समर्पण और समझौता किसान जीवन की त्रासदी के दो महत्वपूर्ण सत्य है। प्रेमचंद होरी के माध्यम से भारतीय किसान के चौतरफा शोषण के कारण हुई उसकी दयनीय स्थिति को उजागर करते है।
महाजनी सभ्यता के पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में उभरते खतरे को प्रेमचंद जान चुके थे। किसान और उसके भूमि से जुड़े रिश्ते को धीरे-धीरे यह खत्म कर रही थी तो ज़मींदारों को कर्ज दे-देकर उनके अस्तित्व को मिटा रही थी। कृषक-सभ्यता के ये दोनों स्तंभ धराशायी हो रहे थे। होरी का किसान से मजदूर बनना इसी वास्तविकता को दर्शाता है।
होरी का यह निर्णय उसका अपना नहीं है यह उसकी विवशता है और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक दबावों का परिणाम है। हम देखते हैं कि प्रेमचंद में कृषक सभ्यता, संयुक्त परिवार व्यवस्था आदि के प्रति मोह है लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रेमचंद ज़मींदारी प्रथा या सामन्ती प्रथा में जी रहे किसानों के शोषण का विरोध नहीं करते।
ज़मींदारी प्रथा के शोषण के तरीकों का उन्होंने पर्दाफाश किया है, लेकिन औद्योगिकरण और नगरीकरण के कारण व्यक्तिगत संबंधों में पड़ने वाली दरार को वे अच्छी प्रकार समझ चुके थे। होरी और गोबर के बीच में समाप्त होते नेह और गोबर का केवल अपने बारे में सोचना इसी का संकेत है। गोबर अपनी कमाई का एक पैसा भी घर नहीं भेजता और उसे यह व्यवहार युक्तिसंगत भी लगता है, “वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरंत गाय खरीदने और अम्मा को गहने बनवाने की धुन सवार हो जाएगी।’ (गोदान, पृ.168)
होरी और धनिया की बेहतर जीवन की जो आशाएं गोबर के साथ जुड़ी थी, वह सब गोबर के स्वार्थपूर्ण व्यवहार से चूर-चूर हो जाती है। प्रेमचंद इन बदलते संबंधों के प्रति चिंतित थे और महाजनी सभ्यता को इसके लिए जिम्मेदार मानते थे। जिसेकि अपनी मौरुसी की पाँच बीघा जमीन को जी-जान से बचाने की कोशिश करते होरी-धनिया के माध्यम से हमारे सामने स्पष्ट कर देते हैं।
ज़मींदारी प्रथा भी चरमराती अवस्था में जैसेतैसे कर्ज के सहारे जीवित थी। महाजनों, बैंकरों की चिरौरी करके अपनी झुठी शान बचाने के लिए और सरकारी अधिकारियों की आवभगत के लिए रुपया उधार लेकर किसी तरह अंतिम सांसे ले रही थी।
आपने इस इकाई के अध्ययन के दौरान यह महसूस किया होगा कि होरी की ‘गाय की लालसा और उसे पाने और खोने की घटनाओं का महत्व केवल होरी के जीवन की त्रासदी की ही अभिव्यक्ति नहीं है। बल्कि उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति की वास्तविकता को उजागर करने की यथार्थवादी दृष्टि भी है।
गोदान काल के प्रेमचंद को यह विश्वास होने लगा था कि बीसवीं सदी समाजवाद की सदी होगी, जिसमें अमीर-गरीब के बीच की गहरी खाई को कम किया जाएगा। प्रेमचंद समझने लगे थे कि तमाम विरोधों के बावजूद समाजवाद को रोकना आसान नहीं होगा और यह आकर ही रहेगा। ‘निकट भविष्य में आजकल का पूंजीवाद जमीन पर पड़ा होगा और उसकी लाश पर समाजवाद की धारा बह रही होगी।
‘ प्रेमचंद बहुत हद तक नेहरू जी के भारत में समाजवादी व्यवस्था ही असमानता और शोषण को खत्म कर सकती है, इस विचार से सहमती दर्शाते है। गोदान में राय साहब द्वारा इस विचार की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है -‘जब तक किसानों को ये रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा नहीं सुधर सकती। स्वेच्छा अगर स्वार्थ छोड़ दे तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावनावश करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए।” (गोदान, पृ.47)
ऊपरी सुधारों से किसानों का भला नहीं हो सकता क्योंकि सरकारी तंत्र के साथ ज़मींदारों के संबंध बहुत गहरे थे, इसलिए तंत्र के साथ पूरी व्यवस्था को बदलने की जरूरत थी। कानून बना देने भर से गरीब किसानों, दलितों, मजदूरों को न्याय मिलने की आशा नहीं बंधती थी, न्याय, कचहरी और अदालत तो पैसे वालों के ही हाथों में खेल रही थी।
अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतीय सामंत, ज़मींदार, छोटे-छोटे रियासतों के नवाब राज्य का नियंत्रण और नितियों का निर्धारण कर रहे थे। किसानों का सीधा संघर्ष अंग्रेज सरकार, सामन्त, ज़मींदार, अफसर और महाजनों से था। ये सभी गोलबंद होकर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए एक-दूसरे का साथ देते हुए किसानों का शोषण कर रहे थे। हम देख रहे हैं कि ‘गोदान ‘ में किसान और ज़मींदारों के बीच संघर्ष का कोई संकेत नहीं मिलता।
किसान जीवन पर ज़मींदारों और महाजनों का अधिकार है, उसके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अधिकारों का निर्धारण भी इन्हीं के द्वारा किया जाता है। ज़मींदार और उसके कारिंदे किसान जीवन के नियामक बने हुए हैं। फिर किसान इस शोषण के विरोध में विद्रोह कैसे करेगा? करने की सोच भी नहीं सकता है।
मानवीय अस्तित्व की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए किसान सर्वथा इन्हीं शोषकों की मर्जी पर निर्भर है। ‘गाय ‘ की अभिलाषा रखने वाला होरी अपनी इच्छा पूरी नहीं कर जातियों में शामिल है। जाति आधार पर इनका सामाजिक पर्जा तय है बल्कि लिन त्या के व्यवसाय तथा उत्पादन के साधनों के साथ इनका संबंध भी तय है। उत्पादन प्रणाली में इनके हिस्से में केवल श्रम ही आया है।
इनके परिश्रम से. उत्पन्न उत्पाद पर जातिव्यवस्था में श्रेष्ठ मानी गई जातियों का ही अधिकार है। इन तथाकथित उच्च जातियों का काम केवल भोग करना है, श्रम न करके भी जीवन के सभी सुख इनके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े है। यह उस जातिव्यवस्था का कमाल है, जो जन्म के आधार पर निश्चित होती है।
केवल कुछ व्यक्तियों के लिए संपूर्ण बहुजन और सर्वहारा को या तो मजदूर बन कर जीना पड़ रहा है या सेवा करने वाला गुलाम। उत्पादन के सभी संसाधनों और श्रम पर भी इन्हीं उच्च कही गई जातियों का एकाधिकार है, इस एकाधिकार को बनाए रखने के लिए समय-समय पर ये दमनकारी तरीके अपनाते रहते हैं, जिससे किसान और मजदूरों पर इनका दबाव बना रहे।
किसान और मजदूरों के श्रम का मूल्य उनकी शर्तों पर नहीं बल्कि ज़मींदारों, साहुकारों, अधिकारियों की शर्तों के अनुसार तय होता है, जो कभी भी उसके आर्थिक स्तर से ऊपर उठने में मदद नहीं करती। बल्कि होरी तो किसान से मजदूर बनने के लिए मजबूर हो गया है। थोड़ी सी जमीन जो उसे व उसके परिवार के लिए जान से भी प्यारी थी।
उस जमीन को बचाने में वह असमर्थ हो जाता है। दरवाजे पर गाय का बंधा होना एक किसान के लिए जीवन भर की पूँजी है, एक सपना है लेकिन होरी का गाय खरीद ने का सपना अंत तक पूरा नहीं हुआ, गाय की आकांक्षा मन में लिए ही होरी मर जाता है। गोदान उपन्यास का सारांश गोदान उपन्यास का सारांश गोदान उपन्यास का सारांश
‘गोदान’ में होरी की गाय खरीदने की आकांक्षा का पूर्ण न होना, केवल वैयक्तिक आकांक्षा के संदर्भ में अभिव्यक्त नहीं हुआ है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय किसानों की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकता को उजागर करना चाहते थे। इस वास्तविकता में छिपे उस सत्य से तत्कालीन समाज और संवेदनशील पाठक वर्ग को परिचित करवाना चाहते थे।
सामन्तवाद के अंत और पूंजीवाद के उद्भव की उन स्थितियों से अवगत कराना चाह रहे थे, वे किसान और ज़मींदार, कृषक सभ्यता के दोनों स्तंभों के धराशायी होने से चिंतित थे। बदलते आर्थिक संदर्भो में गरीब किसान या मजदूर की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव आने का संकेत नहीं मिलता है।
आर्थिक अधिकार चाहे ज़मींदारों के हाथ में रहे, चाहे पूँजीपतियों के हाथ में हो, किसान और मजदूर की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। जब तक किसान अपनी सामाजिक स्थिति मजबूत करके आर्थिक उत्पादन में अपनी भागीदारी निश्चित करने के लिए संघर्ष नहीं करता, तब तक होरी जैसी दयनीय स्थिति से बचने का उसके पास दूसरा कोई कारगर उपाय नहीं है।
यह भी पढ़े :–
गोदान उपन्यास का सारांश | प्रेमचंद | – अगर आपको यह पोस्ट पसंद आई हो तो आप कृपया करके इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। और हमारे “FaceBook Page” को फॉलो करें। अगर आपका कोई सवाल या सुझाव है तो आप नीचे दिए गए Comment Box में जरुर लिखे ।। धन्यवाद ।।
गोदान उपन्यास का सारांश गोदान उपन्यास का सारांश
अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇
Recent Comments