घनानंद का शृंगार-वर्णन | घनानंद |
घनानंद का शृंगार-वर्णन :- स्त्री पुरुष के परस्पर आकर्षण से उत्पन्न सुखात्मक भाव का नाम शृंगार है। इसका स्थायी भाव रति अथवा प्रेम है। नायिका इसका आलंबन विभाव और प्रकृति का अनुकूल सौन्दर्य उद्दीपन विभाव होते हैं। आलंबन की चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।
घनानंद का शृंगार-वर्णन
ये ही यदि शारीरिक न होकर मानसिक हों तो सात्विक भाव कहलाते हैं। स्तंभ (चकित होना) स्वेद, रोमांच, स्वर भंग, कंपन, रंग का फीका पड़ना, और प्रलय अर्थात् इन्द्रियों का चेष्टाहीन होना। ये आठ सात्त्विक भाव शृंगार में कम बढ़ सभी अनुभूत होते इनके अतिरिक्त निर्वेद आवेग, दीनता, जड़ता आदि तेतीस संचारी भाव भी शृंगार में अनुभूत होते हैं। जिस व्यक्ति के हृदय में शृंगार रस का परिपाक होता है वह आश्रय कहलाता है। इस प्रकार दो विभाव, अनुभाव, सात्त्विक भाव, संचारी भाव और आश्रय ये छै शृंगार के अंग हैं। इसके ये भेद हैं – संयोग और वियोग। घनानंद का शृंगार-वर्णन
संसार भर के साहित्य में शृंगार प्रमुख भाव के रूप में चित्रित हुआ है। रीतिकाल में तो यह कवियों का एक मात्र वर्णनीय विषय था। घनानंद भी इसके अपवाद नहीं हैं। लेकिन इनकी इस विषय की अनुभूति अपने समय के अन्य कवियों की अपेक्षा भिन्न। घनानंद का शृंगार-वर्णन
समीक्षक ब्रजनाथ ने प्रेम के संबंध में घनानंद के व्यक्तित्व के गुण गिनाये हैं। इनमें महान् स्नेही, सुन्दरता के भेद जाने वाला, संयोग और वियोग की रीति का विशेष जानकार, चाह अर्थात् अभिलाषा के रंग में स्वयं डूबा हुआ और प्रिय के संयोग वियोग दोनों में अशान्त। ये सभी गुण इनके शृंगार वर्णन में परिलक्षित होते हैं। घनानंद का शृंगार-वर्णन
संयोग-आलंबन विभाव-घनानंद का शृंगार वर्णन व्यक्तिगत रूप का हुआ है। इसकी नायिका अर्थात् आलंबन मित्र सुजान, कवि की प्रेयसी है। उसके वर्णनों से ऐसा लगता है कि वह कवि की प्रत्यक्ष दृष्टा हैं, उसके साथ कवि ने सुख दुख के अनेक पल बिताये हैं। उसके नाक, कान, उदर, कटि, पीठ, पैर आदि का चित्रात्मक वर्णन कवि ने किया है। कटि के वर्णन में कवि कहता है कि यह काम कलाधर ने प्रियतम को प्यार की शिक्षा देने के लिए पट्टी पढ़ा दी है। यह शोभासुमेरु की घाटी है। यह सूक्ष्म इतनी है जितनी काव्य की ध्वनि। घनानंद का शृंगार-वर्णन
सुजान के एक क्षण का रूपांकन करता हुआ कवि कहता है – ‘सुजान सोकर कुछ-कुछ उठी है। वह रस के आलस में भोई हुई है। पीक पगी पलकें अभी खुली नहीं हैं। केश सुन्दर मुख पर बिखरे हैं। । वह अँगड़ाती जंभाई लेती, लजाती हुई अच्छी लग रही है। अंग-अंग में अनंग की दीप्ति झलक रही है। अधरों में अर्ध-स्फुटित शब्द हैं। लड़कपन छलका पड़ रहा है। अपनी लजीली चितवन से हृदय को रस में डुबा देती है।’
यह चित्रण दृष्टा का स्वानुभूत लगता है, परम्परा के आधार पर निर्दिष्ट नहीं। घनानंद का शृंगार-वर्णन
कवि ने आलंबन का रूप चित्रण प्रायः सामूहिक छवि के साथ और उसके मोहक प्रभाव के साथ भी किया है।
लाजनि लपेटी चितवनि भेद भाय भरी,
लसति ललित लोल-चख तिरछानि में।
छवि को सदन गोरो बदन, रुचिर भाल,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसकानि में।
दसन-दमक फैलि हिये मोती लाल होति,
पिय सौं लड़कि प्रेम-पगी बतरानि में।
आनंद की निधि जगमगति छबीली बाल,
अंगनि अनंग-रंग दुरि मुरि जानि में।।
इस पद्य में चंचल नेत्रों से तिरछे देखना, कोमलता के साथ मिठास भर कर मुस्कराना, लड़क कर प्रिय से प्रेमपूर्वक बातें करना और झुक कर मुड़ना- ये सब आलंबन की चेष्टाएँ हैं। अतः अनुभाव हैं। यह कवि की विशेषता है कि वह चाहे विभाग का वर्णन करे चाहे अनुभाव का, लेकिन भाव का संयोग सदा बना रहता है। घनानंद का शृंगार-वर्णन
संयोग शृंगार का परम्परानुसारी वर्णन भी कुछ पद्यों में कवि ने किया है पर उसकी मात्रा बहुत कम है। उनमें यह विशेषता उल्लेखनीय है कि वर्णन अश्लील नहीं है। उसका कारण कवि का भाव प्रधान बने रहना है।
संयोग वर्णन की घनानंद की उल्लेखनीय विशेषता वहाँ है जहाँ मिलन के अवसर पर भी वियोग की पीड़ा बनी रहती है।
हे प्रिय तुम्हें देख लेने पर भी न देखने की सी प्रतीति बनी रहती है। समझ नहीं आता कि यह देखना है या देखने का केवल छल है। आपके निकट होने की दीप्ति वियोग में होकर आती है। यह आपका दर्शन आरसी के दर्शन के समान है। इस प्रकार ‘मिले हू तिहारे अनमिले की कुसल हैं’ सु० हि० 61
यह कैसो संजोग न बुझि परै जु वियोग न क्यौं हू विछोहत हौं’ सु हि० 104
वियोग शृंगार का दूसरा पक्ष वियोग है। घनानंद जी का कृतित्व सबसे अधिक इसी की अभिव्यक्ति में प्रकट हुआ है। उनके काव्य की यह सर्व प्रधान प्रवृत्ति है। कवि की मानसिकता ही सर्वत्र दुःख और विषाद के अनुभव की है। सुख हो चाहे दुख, हर्ष हो चाहे विषाद, घनानंद सर्वत्र दुख ही देखते हैं। अपने वाङ्मय के लगभग 75 प्रतिशत भाग में कवि ने वियोगानुभूति ही व्यक्त की है। कवि की धारणा है कि जब तक मर्म आहत नहीं होता तब तक व्यक्ति वस्तु या व्यक्ति के मर्म सत्य को नहीं पहचान सकता। वाणी की कोरी उलट फेर सुरों को धुंधोना मात्र है।
इसके फलस्वरूप वियोग वर्णन में दुःख, पीड़ा और अवसाद की प्रचुरता बनी रहती है। इसका एक यह भी कारण है कि घनानंद का प्रेम एक पक्षीय विषय है। अर्थात् प्रेमी ही प्रेम करता है। उसका आजीवन पालन करने का व्रत भी लेता है। पर प्रिय वैसा नहीं है। इसलिए वियोग ही बना रहता है। ‘तुम तो निहकाम, सकाम हमें घन आनंद काम सों काम परयों।’ वियोगियों की पीड़ा को प्रिय सुजान क्या जाने। मेघ पपीहों के मन की क्या पहचान करें।
दूसरा महत्त्वपूर्ण रूप वियोग की व्यथा-पीड़ा के वर्णन का है। घनानंद ने प्रचुरता से वियोग व्यथा का उद्घाटन किया है। ऐसे स्थलों पर कवि की वाणी अलंकारादि की बाह्य सज्जा से अनपेक्ष होकर सीधे भाव उड़ेलती है। अनुभूतियाँ शब्दों में लिपटी चली आती है।
हिय में जु आरति सु जारति उजारति है,
मारत मरोरे जियं डारति कहा करौं।
रसना पुकारि कै विचारी पचि हारि रहै,
कहै कैसे अकह, उदेग रूधि कैं मरौ।
हाय कौंन वेदनि विरंचि मेरे बांट कीनी,
विघटि परों न क्यों हू, ऐसी विधि हौं गरौं।
आनंद के घन हौ सजीवन सुजान देखौ,
सीरी परि सोचनि, अचंभे सों जरों मरों।
व्यथा में आशा, निराशा, उन्माद, चेतना, उत्साह, अवसाद आदि अनेक छोटे-छोटे भाव उठते रहते हैं। उनके सहारे वियोग की अन्तर्व्यथा का व्यापक चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत हो जाता है। प्राण और नेत्र इसमें विशेष रूप से पीड़ित रहते हैं। ‘प्राण कभी आँखों में आ लगते हैं कि प्रिय को देखने का अवसर मिलेगा। कभी वे कानों में आकर बस जाते हैं कि प्रिय के वचन सुनने को मिलेंगे। इस प्रकार वे जगह-जगह उलझ कर मुरझाते रहते हैं। आशा करते रहते हैं कि कभी तो हम प्रियवर न्यौछावर होंगे।’ .
आँखिन आनि रहे लागि आस कि वेस विलास निहारियै हूँगे।
कानन बीच बसैं भरि प्यास अभी निधि बैननि पारिये हूँगे।
यौं घन आनंद ठौरहिं ठौर सम्हारत है सु सम्हारियै हूँगे।
प्रान हारे मुरझैं उरझें कि कहूँ कबहू हम वारियै हूँगे।।
प्रेमी प्रिय के वियोग में किस प्रकार का जीवन बिताता है इस भाव को लेकर कवि ने अनेक पद्य लिखे हैं। इनमें अन्तर्व्यथा, करुणा, दीनता आदि भावों की अनेक सूक्ष्म पर गंभीर अन्तर्दशाएँ कवि की संवेदना का विषय बनी हैं।
‘हृदय में उद्वेग का दाह है और आँखों में आँसुओं का प्रवाह।’ इस प्रकार एक ओर भीगना है। तो दूसरी ओर जलना। न सोना बनता है न जागना इसी प्रकार न हँसना होता है न रोना। अपने में ही खोकर प्रिय को पा लेने की लालसा का लाभ मिलता है। इस प्रकार बिना जीवन के जीना और बिना मौत के मरना हो रहा है। विधाता ने ‘नेही की रहनि’ न जाने किस प्रकार की रची है।
अंतर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसु,
देखी अटपटी चाह भीजनि दहनि है।
सोइबो न जागिबो न हँसिबो न रोइबोहू,
खोय खोय आपुही मैं चेटक लहनि है।
“जीवन मरन, जीव मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौंन विधि रची नेही की रहनि है।”
इस प्रकार वियोग वर्णन में घनानंद ने हृदय को स्पर्श करने वाली अनेक मार्मिक संवेदनाएँ अभिव्यक्त की हैं। उन्होंने इस क्षेत्र में अनुभूति और अभिव्यक्ति का नया ही क्षेत्र खोज निकाला और इस आधार पर हिन्दी साहित्य में अपनी नयी पहचान बना ली।
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