घनानंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय दीजिए | घनानंद |
घनानंद के व्यक्तित्व :- महाकवि घनानन्द हिन्दी में रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रवर्तक कवि हैं। इसके नाम को लेकर हिन्दी के विद्वानों में बड़ा मतभेद है। आनन्द, घनानन्द और आनन्द घन ये तीन नाम एक ही कवि के नाम के रूप में प्रचलित रहे किन्तु अब विद्वानों ने इन तीनों नामों का पार्थक्य निरूपित कर दिया है। तीन आनन्द घन हैं |
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घनानंद के व्यक्तित्व
1. वृन्दावनवासी आनन्दघन, सुजान के प्रेमी तथा रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रवर्तक कवि |
2. जैनधर्मी आनन्दघन- इनका एक पद महात्मा गाँधी को अत्यन्त प्रिय था । वह पद इस प्रकार है
राम कहो रहमान कहो कोउ, कान्ह कहो, महादेव री।
पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री ।
इह विधि राधो! आप ‘आनन्दघन’ चेतनमय निष्कर्म री।
3. नन्दगाँव वासी आनन्दघन। 16वीं शती विक्रमी के उत्तरार्द्ध में वर्तमान थे। हमारे प्रतिपाद्य वृन्दावनवासी आनन्दघन या घनानन्द हैं। आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है- ‘ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के प्रधान स्तम्भों में हैं। इनका जन्म संवत् 1746 के लगभग हुआ था और ये संवत् 1796 में नादिरशाही में मारे गये। ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मीर मुंशी थे।’
आचार्य पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इनका निधन अनेक प्रमाणों एवं अन्तर्साक्ष्य और इतिहास का विश्लेषण करके संवत् 1817 में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण में होना सिद्ध किया है। मिश्रजी ने इनका जन्म संवत् 1730 के लगभग माना है। उनका तर्क है कि निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री वृन्दावन देव का समय संवत् 1759 से 1800 तक है।
उनमे दीक्षा लेना 1759 में मानें तो शुक्लजी द्वारा निरूपित उनके जन्म संवत् 1746 के अनुसार वे 13 वर्ष के सिद्ध होते हैं, जो इनके जीवन-वृत्त को देखते हुए असम्भव है। वृन्दावन इनकी वय 25-30 अवश्य माननी पड़गी। अतः इनका जन्म संवत् 1730 के आसपास संभाव्य है। उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि घनानन्द का जन्म संवत् 1730 और मृत्यु संवत् 1817 में जानना उचित है।
स्मरण रहे आचार्य पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने घनानन्द पर बहुत गम्भीर खोज की है। इस दिशा में उनका कार्य अद्वितीय है और प्राय: हिन्दी के विद्वानों ने उन्हीं की समीक्षा को आधार बनाकर अनुसन्धान किया है।
घनानन्द का जीवन-वृत्त
शुक्ल जी ने लिखा है कि ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के मीरमुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियों ने बादशाह से कहा कि मीरमुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गायेंगे, यदि इनकी प्रेमिका सुजान नामक वेश्या कहे तब गायेंगे। वेश्या बुलाई गई।
इन्होंने उनकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गया कि सब लोग तन्मय हो गये। बादशाह इनके गाने पर जितना खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने उन्हें शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इस पर इन्हें विराग उत्पन्न हो गया और ये वृन्दावन जाकर निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव हो गए और वहीं पूर्ण विरक्त भाव से रहने लगे। वृन्दावन – भूमि का प्रेम इनके इस कवित्त से झलकता है |
गुरनि बतायो राधा मोहन हू गायो,
सदा सुखद, सुहायो वृंदावन गाड़े गहि रे ।
अद्, भुत अभूत महिमंडन परे तें परे,
जीवन को लाहु-हा हा क्यों न ताहि लहि रे ।
आनन्द को घन छायो रहत निरन्त हो,
सरस सुदेय सो, पपीहपन बहि रे ।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भार ऐसी,
पावन पुलिन पै पतित परि रहि रे॥
कहा जाता है ये नादिरशाह के मथुरा पर होने वाले हमले में मारे गये किन्तु इतिहास में मथुरा पर नादिरशाह के हमले की चर्चा नहीं है। अहमदशाह अब्दाली या दुर्रानी के हमले की बात आई। सबसे पहले नागरीदास जी के जीवन चरित्र में बाबू राधाकृष्णदास जी ने यह संकेत किया कि हमला दुर्रानी का था। श्रीमती ज्ञानवती त्रिवेदी ने ‘घनानन्द’ पुस्तक में यह भली-भाँति सिद्ध किया कि यह हमला अब्दाली का ही हो सकता है। अब्दाली ने मथुरा पर एक बार सन् 1757 (संवत् 1813) और दूसरी बार सन् 1761 (संवत् 1817) में मथुरा पर आक्रमण किया था। घनानन्द जी दूसरी बार के आक्रमण में मारे गये।
नादिरशाह का आक्रमण संवत् 1796 में हुआ और वह भी दिल्ली तक सीमित रहा। घनानन्दजी ने ‘मुरलिका मोद’ नामक अपनी रचना के अन्त में संवत्सर 1798 की तिथि दी है-
गोपमास श्रीकृष्ण पक्ष सुचि ।
संवत्सर अठानवे अतिरुचि ।
हरिकलावेलि (निर्माण संवत् 1817) के रचयिता ने आनन्दघन की हत्या प्रत्यक्षदर्शी होना स्वीकार किया है। महात्मा आनन्दघन की ब्रजरज में मिलने की इच्छा थी और उनकी यह साध पूरी हुई। उनके शव पर आँसू बहाता हुआ कवि संवत् 1817 की आषाढ़ बदी रविवार को कहता है
विरह सौं तायौ तन निबाहयौ बन साँचौ पन,
धन्य आनन्दघन मुख गाई सोई करी है।
एहो ब्रजराज कुंवर धन्य धन्य तुमहुँ कौ,
कहा नीकी प्रभु मह जग में बिस्तरी है।
गाढ़ौ ब्रज उपासी जिन देह अन्त पूरी पारी,
रज की अभिलाष सो तहाँ ही देह धरी है।
वृन्दावन हित रूप तुमहू हरि उड़ाई धूरि,
ऐ पै साँची निष्ठा जन ही की लखि परी है।
इस प्रकार आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन कि आननदघन संवत् 1796 में नादिरशाह के सिपाहियों के हाथ मारे गये, प्रमाण विरुद्ध और अमान्य है।
घनानन्द का कृतित्व
‘घनानन्द ने अपनी कविताओं में बराबर ‘सुजान’ को संबोधन किया है, जो शृंगार में नायक के लिए, भक्ति भाव में कृष्ण के लिए प्रयुक्त मानना चाहिए कहते हैं कि इन्हें अपनी पूर्व प्रेयसी ‘सुजान’ का नाम इतना प्रिय था कि विरक्त होने पर भी इन्होंने उसे नहीं छोड़ा। लौकिक प्रेम की दीक्षा पाकर ही ये पीछे भागवत प्रेम में लीन हुए। (आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल) घनानन्द काव्य के संपादक एवं प्रशस्तिकार ब्रजनाथ ने इनके कृतित्व के सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है
नेही महा, ब्रजभाषा- प्रवीन और सुन्दरतानि के भेद को जाने।
जोग-वियोग की रीति में गोविद, भावना-भेद-स्वरूप को ठानै।
चाह के रंग भीज्यौ हि बिछुरै मिलै प्रीतम सांति न मानै ।
भाषा-प्रवीन, सुछन्द सदा रहै सो घनजी के कवित्त बखानै ।
तथा
प्रेम सदा अति ऊँची लहै, सु कहै इहि भाँति की बात छकी।
सुनि के सबके मन लालच दोरै पै बौरै लखै सब बुद्धि-चकी।
जग की कविताई के धोखें रहे, ह्याँ प्रवीनन की कति जात जकी।
समुझे कविता घनआनन्द की, हिय आँखिन नेह की पोर तकी |
इस प्रकार घनानन्द जी महान् प्रेम की पीड़ा देखे हुए थे। प्रेम-पीड़ा उनकी स्वानुभूति थी। वे संयोग तथा वियोग की रीति को समझने वाले थे और प्रियतम के वियोग तथा मिलन में शांति का अनुभव नहीं करते वे, विकलता की अनुभूति की उनमें प्रधानता है। वे सुन्दरता के भेद जानकर तथा रमणीयता की विविध स्थितियों के ज्ञानी थे। घनानंद के व्यक्तित्व
भावनाओं के भेद को जानने वाले रीति के बन्धन से मुक्त स्वच्छन्द कवि थे और उनका काव्य रीतिबद्ध काव्य से नितान्त भिन्न था। उन्हें भाषा के अंग-उपांगों का भी गंभीर परिचय था। वे अनेक भाषाओं के जानकार थे। और ब्रजभाषा के तो वे पंडित ही थे। घनानंद के व्यक्तित्व
घनानन्द की शृंगार भावना विशेष महत्वपूर्ण है। उन्होंने संयोग-वियोग दोनों का वर्णन किया है किन्तु वियोग वर्णन में ही उनकी वृत्ति विशेष रमी है। वे प्रधान रूप से विप्रलम्भ शृंगार के कवि हैं। श्री शम्भुनाथ बहुगुणा के शब्दों में, “उनकी अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ, मनोवृत्तियाँ उनमें अविच्छिन्न रूप से करुण, संगीत में घनीभूत होकर सहज स्वाभाविकता के साथ पूर्ण रूप से व्यक्त हुई हैं।’ }” घनानंद के व्यक्तित्व
घनानन्द की रचनाएँ
शम्भुप्रसाद बहुगुणा ने घनानन्द के 12 ग्रन्थों के नाम अपनी रचना ‘घनआनन्द‘ में निरूपित किए हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने संवत् 2006 तक की खोज में घनानन्द की सत्रह कृतियों के हस्तलेख प्राप्त किए थे। आचार्य पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लन्दन म्यूजियम से घनानन्द की रचनाओं की माइक्रो फिल्म मंगाकर बड़ी मेहनत के साथ उनकी ‘ग्रन्थावली’ का सम्पादन किया है। उन्होंने घनानन्द के छोटे-बड़े 41 ग्रन्थ बताये हैं, जिनके नाम ये हैं
1. सुजानहित 2. वियोग बेलि 5. यमुना- यश 7. प्रेम-पत्रिका 9. ब्रजविलास 11. अनुभव चंद्रिका 13. प्रेम पद्धति 15. गोकुल- गीत 17. गिरि- पूजन 19. दानघटा 21. कृष्ण-कोमुदी 2. कृपाकन्द निबंध 4. इश्कलता 6. प्रीतिपावस 8. प्रेम-सरोवर 10. सरस बसन्त 12. रंग बधाई 14. वृषभानुपुर – सुषुमा 16. नाम माधुरी 18. विचार-सार 20. भावना प्रकाश 22. धामचमत्कार
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