दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | साकेत | नवम् सर्ग |
दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला,
सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला;
त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही,
राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही।
दो वंशों में प्रकट
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियां खड़ी बोली के प्रसिद्ध राम भक्त मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित ‘साकेत‘ महाकाव्य के ‘नवम सर्ग’ से ली गई हैं। कवि ने महाराज जनक के चित्रकूट पधारने का संकेत करके उन्हीं की प्रशंसा करते हुए कहा है कि……….
व्याख्या : उन महाराज जनक की जय हो जिनकी पुत्रियों ने अपने पावन आचरण और क्रिया-कलापों से पितृ-कुल और पति- कुल दोनों की मर्यादा और शोभा में वृद्धि की है। महाराज जनक के नाम को सैकड़ों पुत्रों से भी अधिक प्रसिद्धि प्रदान की है। महाराज जनक त्यागियों में शिरोमणि हैं और उसके प्रभावस्वरूप उसके सेवकों तक में त्याग की भावना मिलती है। दो वंशों में प्रकट दो वंशों में प्रकट
वे गृहस्थ होते हुए भी गृहस्थ जीवन के माया-मोह से मुक्त हैं तथा राजा होते हुए राज – वैभव के प्रति योगियों के समान अनासक्त है। ऐसे पुण्यशील महाराज जनक की जय हो जो शरीरी होते हुए भी स्व-शरीर के प्रति अनुराग नहीं रखते।
विशेष : 1 नवम सर्ग में महाराज जनक की प्रशंसा इस दृष्टि से उचित कही जा सकती है कि इसमें उनकी पुत्री उर्मिला की वियोग-व्यथा का अंकन किया गया है।
2. इस पंक्तियों में मंदाकाता छन्द का प्रयोग किया गया है।
3. ‘पुण्य देही विदेही’ में ‘देही’ शब्द की निरर्थक आकृति होने से यमक अलंकार हैं।
4. ‘पूतशीला’ में ‘पूत’ शब्द के दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है।
5. ‘सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियां पुत्रशील’ में उपमेय (पुत्रियां) का उपमान (पुत्र) से अधिक उत्कर्ष का वर्णन होने से व्यतिरेक अलंकार हैं।
6. ‘अनासक्त – गेही’, और ‘राज-योगी’ में विरोधाभास अलंकार है।
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