परकाजहि देह को धारि | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | घनानंद |
परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ |
निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ ||
घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ |
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरस ||
परकाजहि देह को धारि
प्रसंग : प्रस्तुत छंद के रचयिता कवि घनानंद हैं। घनानंद स्वच्छंद काव्यधारा के आधार स्तंभ हैं। इन्होंने अपने काव्य में स्वच्छंद प्रेम के गीत गाये हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में इन्होंने जो कुछ देखा, जो कुछ भोगा उसी को अपने काव्य में वर्णित किया है।
इस छंद में कवि ने प्रकृति को चेतन सत्ता के रूप में स्वीकार करके उससे अपनी व्यथा की कहानी कही है। कवि मेघों से अनुरोध करता है कि वे कवि के आँसुओं को ले जाकर प्रिय सुजान के आँगन में बरसा दें ताकि प्रिय को यह विश्वास हो जाए कि कवि उसके विरह में आँसु बहा रहा है।
व्याख्या : कवि कहता है कि हे मेघों! तुम्हारा नाम परजन्य है अर्थात् तुम्हारा नाम ही दूसरों की सेवा के लिए हुआ है। तुम अपने इस शरीर को दूसरों की सेवा के लिए ही धारण किये हुए इधर-उधर घूमते हो और अपना नाम परजन्य सार्थक करते हो। तुम सागर के खारे जल को अपने साथ उड़ाकर उसे वर्षा के रूप में बरसाकर अमृत के रूप में बदल देते हो।
इस प्रकार तुम हर प्रकार से अपनी सज्जनता का प्रचार करते हो। कवि घनानंद कहते हैं कि हे आनन्द के घन तुम जगत को जीवन देने वाले हो अर्थात् यह संसार तुमसे ही जीवन पाता है। यदि जल न बरसे तो सब कुछ नष्ट हो जाए । इसलिए तुम मेरी पीड़ा को समझो और कभी मेरे आँसुओं को ले जाकर उस विश्वासघाती प्रियतम के आँगन में बरसा दो।
कवि का भाव यह है कि वर्षा का पानी मीठा होता है और ये आँसू खारे हैं। यदि मेघ इन आँसुओं को ज्यों का त्यों ले जाकर बरसा दें तो संभव है वह प्रियतम मेरे आँसुओं की वर्षा को पहचान कर द्रवित हो जाए।
विशेष :
1. घनानंद ने अंततः प्रकृति और बाह्य प्रकृति में सामंजस्य का प्रदर्शन किया है।
2. कवि ने प्रियतम को निसासी कहकर अपनी आत्मवेदना पर प्रकाश डाला है।
3. कबहूँ, भी अँसुवानहिं, आदि शब्दों में व्यंजना की अभिव्यक्ति है।
4. अनुप्रास, उपमा, श्लेष अलंकार का प्रयोग हुआ है।
5. वियोग – शृंगार की अभिव्यक्ति है।
6. ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
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