प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन कीजिए |
प्रेमचंद के व्यक्तित्व
प्रेमचंद के व्यक्तित्व
प्रेमचंद के व्यक्तित्व सहज, सरल परन्तु असाधारण था। उनके व्यक्तित्व की यह सहजता और असाधारणता उनके साहित्य में भी परिलक्षित होती है। उन्होंने एक जगह लिखा है : “मेरा जीवन समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी।’
इस रूपक से प्रेमचन्द अपने जीवन की ‘साधारणता’ को रेखांकित करना चाहते हैं, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता। प्रेमचन्द का पूरा बाहरी व्यक्तित्व औपनिवेशिक शासन के एक आम भारतीय आदमी का व्यक्तित्व है ; उस काल के अन्य साधारण जनों से जरा भी अलग नहीं। अमृत राय के शब्दों में, “प्रेमचन्द की सरलता सहज है।
उसमें कुछ तो इस देश की पुरानी मिट्टी का संस्कार है, कुछ उसका नैसर्गिक शील है, संकोच है, कुछ उसकी गहरी जीवन दृष्टि है और कुछ उसका सच्चा आत्मगौरव है, जो किसी तरह के आत्मप्रदर्शन या विज्ञापन को उसके नजदीक घटिया बना देता है।” नितान्त साधारण वेशभूषा, उटॅगी हुई धोती और साधारण कुर्ता, अचानक सामने पड़ जाने पर कोई विश्वास ही न करे कि ये हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द’ हैं।
साधारण जनसमूह के बीच आ पड़ने पर सबका हालचाल, नाम-गाँव पूछने वाला, कोई हँसी की बात उठने पर जोरदार ठहाका लगाने वाला, कभी- कभी बच्चों जैसी शरारत करने और मुस्कुराने वाला, नितान्त साधारण, बँधी-टॅकी दिनचर्या से जुड़ा, अपने को कलम का मजदूर मानने वाला यह आदमी हिन्दी का महान उपन्यासकार प्रेमचन्द था जिसका जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी से लगभग पाँच किलोमीटर दूर लमही नामक गाँव में, एक खाते-पीते, साधारण मध्यवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था।
पारिवारिक और सामाजिक परिवेश
जिन्हें आज हम प्रेमचन्द’ के नाम से जानते हैं, उनका बचपन का पुकारू नाम ‘नवाब’ और औपचारिक नाम ‘धनपत राय’ था। ‘धनपत राय’ ने बचपन में लगभग आठ साल तक फारसी पढ़ी, उसके बाद अँगरेजी शुरू की और बनारस (वाराणसी) के कालेजिएट स्कूल से एक साधारण छात्र के रूप में एन्ट्रेन्स (आज़ की दसवीं कक्षा) की परीक्षा पास की। ‘धनपत राय’ नाम तो शिक्षा सम्बन्धी प्रमाणपत्रों और नौकरी की फाइलों तक सीमित रहा, पर उर्दू में कहानी और उपन्यास लेखक के रूप में ‘नवाब राय’ नाम खूब प्रसिद्ध हुआ।
प्रेमचन्द के पिता मुंशी अजायब लाल डाकखाने में डाकमुंशी थे जिनकी नौकरी दस रुपये माहवार से शुरू हुई थी और अवकाश-प्राप्ति के समय चालीस रुपए तक पहुंची थी। उस जमाने में जबकि चावल एक रुपया मन (चालीस किलो के लगभग), मिठाई पाँच आने सेर (किलोग्राम से कुछ कम), धोती आठ आने (पचास पैसें) में मिलती थी, जीविका चलाने के लिए यह आय पर्याप्त, पर एक संयुक्त परिवार के लिए बहुत अधिक भी नहीं थी।
धनपत या नवाब का बचपन वैसे ही बीता जैसे मध्यवर्गीय ग्रामीण किंसान के बच्चों का बीतता है। तरह-तरह की शरारतें करना, किसी के खेत में घुस कर ऊख तोड़ लाना, ढेले मार कर आम के टिकोले गिराना, गुल्ली-डंडा खेलना, इमली के चियों (गुठली) और महुए के कोइनों (गुठली) के खेल खेलना, डाकिया कजाकी के कन्धों पर सवारी करना, मौलवी साहब के यहाँ फारसी पढ़ने जाना और तरह-तरह की शरारतें करना।
उनकी छोटी मोटी सेवाएँ करना, चुहलबाजियाँ और मटरगश्ती करना, कभीकभार घर से पैसों या किसी खाने पीने के सामान की चोरी कर लेना, इसके लिए पिटना और भूल जाना, इस तरह के कारनामों के बीच कभी कोई हास्य-रचना भी कर लेना, यह धनपत के बचपन का रोजनामचा है। धनपत (नवाब) की शिक्षा फारसी से शुरू हुई थी।
तेरह वर्ष की उम्र तक वह हिन्दी बिलकुल ही नहीं जानता था। 1890 ई. के पूर्व उसकी माँ का स्वर्गवास हो चुका था और सौतेली माँ का आगमन हो चुका था। 1893 ई. में वह गोरखपुर के मिशन स्कूल में तीसरे दर्जे का विद्यार्थी था।
जैसा एक उपेक्षित बालक के लिए स्वाभाविक था, वह एक स्थानीय बुकसेलर के यहाँ से मौलाना शाह, पं रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली आदि की उर्दू कथापुस्तकें, रेनॉल्ड के उपन्यासों के अनुवाद, नवल किशोर प्रेस से निकले पुराणों के उर्दू अनुवाद और तिलिस्मे होशरुबा के कई खंड दो-तीन सालों के भीतर पढ़ गया था।
इस तरह धनपत को अपने वास्तविक जीवन की कटुता से मुक्ति पाने की राह भी मिल गयी। कथा की काल्पनिक दुनिया ने उसकी वास्तविक जिन्दगी की कटुता को दूर करने का काम किया। प्रेमचन्द के कथा-लेखन की बुनियाद यही पढ़ाई थी।
गोरखपुर के मिशन स्कूल से आठवाँ दर्जा पास करने के बाद धनपत का दाखिला बनारस के क्वीन्स कॉलेज में नवें दर्जे में हुआ। प्रेमचंद’ ने अपने इस जीवन के बारे में लिखा है : “पाँव में जूते न थे। देह पर साबित कपड़े न थे। हेडमास्टर ने फीस माफ कर दी थी। इम्तहान सिर पर था और मैं बाँस के फाटक पर एक लड़के को पढ़ाने जाता था। पढ़ा कर छ: बजे छुट्टी पाता। वहाँ से मेरा घर देहात में पाँच मील पर था। तेज चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुँच सकता था।”
(कलम का सिपाही) यद्यपि आज की दृष्टि से यह स्थिति अत्यन्त दयनीय’ मानी जा सकती है, पर उस समय निम्न मध्यवर्गीय छात्रों की यह सामान्य’ स्थिति थी। इसी समय, लगभग 15 वर्ष की उम्र में, नवाब का ब्याह भी कर दिया गया। पर पत्नी को देखकर नवाब का दिल टूट गया, उसके सपनों का संसार चूर चूर हो गया। पत्नी कुरूप तो थी ही, स्वभाव की भी कुछ कटु रही होगी। सास और बहू के आए दिन होने वाले झगड़ों ने भी नवाब को क्षुब्ध कर दिया। लाचार, नवाब ने पत्नी से नाता तोड़ लिया। जब उसने 1898 ई. में नौकरी शुरू की तो पत्नी को साथ न ले गया।
1897 ई. में, जबकि नवाब (धनपत) की उम्र सत्रह वर्ष की थी, पिता का देहान्त हो गया। 1898 ई. में उसने मैट्रिक का इम्तहान दिया और द्वितीय श्रेणी में पास हुआ। गणित में कमजोर होने के कारण उसे किसी कॉलेज में ‘इन्टर’ क्लास में प्रवेश न मिल पाया। पुनः ट्यूशन, उधार आदि का सिलसिला चला। इस दौरान उसने फसाना ए आज़ाद, चन्द्रकान्ता सन्तति और बंकिम बाबू के उपन्यासों के उर्दू अनुवाद पढ़े। परिवार में उसकी विधवा सौतेली माँ, छोटा सौतेला भाई और पत्नी थी। आमदनी का कोई जरिया न था।
संयोगवश ही 1898 ई. में उसे चुनार के एक मिशन स्कूल में ‘मास्टर’ की नौकरी मिल गयी। वेतन प्रति माह अट्ठारह रुपए था। यह रकम समय के हिसाब से सन्तोषजनक ही थी, पर इसी में पूरे परिवार की परवरिश होनी थी, जो कठिन थी। परिवार का खर्च चलाने के लिए वह ट्यूशन करता था और कभी-कभी कर्ज भी लेना पड़ता था।
प्रेमचन्द्र के स्वाभिमानी व्यक्तित्व की पहली झलक मिलिटरी के गोरों की टीम से उनके स्कूल की टीम के बीच फुटबॉल मैच के प्रसंग से मिलती है, जिसमें उन्होंने अन्य छात्रों के साथ गोरों की पिटाई कर दी थी। अपने इस स्वाभिमान की कीमत उन्हें अपनी नौकरी से चुकानी पड़ी। साल भर के भीतर ही उन्हें इस नौकरी से हाथ धोना पड़ गया।
पर 1900 ई. में उनकी नियुक्ति बहराइच के जिला स्कूल में हो गयी और वहाँ से उनका तबादला प्रताप गढ़ हो गया। आर्थिक दृष्टि से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। खर्च की तंगी ज्यों की त्यों बरकरार रही। ट्यूशन से छुटकारा अब भी नहीं मिला। पर जिन्दगी इत्मीनान से गुजरने लगी। पढ़ने के साथ-साथ लिखने का भी सिलसिला जारी हो गया।
इस समय उत्तर भारत में आर्य समाज का आन्दोलन जोरों पर था। बाल विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह, विधवा विवाह, जाति प्रथा, शादी-ब्याह और श्राद्ध आदि के अवसरों पर होने वाले अपव्यय, तिलक-दहेज की कुप्रथा आदि पर आर्य समाज के विचार पुनर्जागरण की विचारधारा के अनुरूप थे, जिसका प्रभाव धनपत राय पर भी पड़ा। वे आर्य समाज के जलसों में तो जाते ही थे, कदाचित् उसके सदस्य भी बन गये थे।
साथ में टीचर्स ट्रेनिंग और बी. ए. करने की लालसा भी मन में सुगबुगाती रही। उन्होंने दो वर्ष की छुट्टी लेकर ट्रेनिंग लेने का निश्चय किया और 1902 ई. में इलाहाबाद ट्रेनिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया। 1904 ई. में उन्होंने ट्रेनिंग का इम्तहान पास कर लिया। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू और हिन्दी की स्पेशल वर्नाकुलर परीक्षा भी पास कर ली।
शिक्षक के रूप में धनपत राय का तबादला एक स्थान से दूसरे स्थान पर होता रहा। 1905 ई. में वे कानपुर पहुंचे। इसी समय कानपुर से ‘जमाना’ नामक उर्दू पत्रिका निकलनी शुरू हुई जिसके सम्पादक मुंशी दयानरायन निगम थे। कानपुर पहुँच कर लिखना नवाब राय की जिन्दगी का मकसद और नियम बन गया। वे नवाब राय के नाम से ‘जमाना में कहानियाँ और साहित्यिक टिप्पणियाँ आदि लिखने लगे।
आर्य समाज के प्रभाव ने उन्हें हिन्दू समाज की समस्याओं पर लिखने के लिए विषयों का पिटारा ही खोल दिया। प्रेमचन्द एक खुशमिजाज, दोस्तबाज, दोस्तों की महफिल में ठहाका लगाने वाले, अजनबियों के बीच संकोची, पर दोस्तों के बीच हँसने-हँसाने वाले, उर्दू-फारसी के लतीफे सुनाने वाले और लोगों पर फिकरे कसने वाले जिन्दादिल इनसान थे।
कानपुर की उनकी जिन्दगी ऐसी ही खुशगवार थी, जबकि गर्मी की छुट्टियों में लमही आने पर उन्हें एक नरक जिन्दगी का सामना करना पड़ता। अमृत राय के शब्दों में “कानपुर की जिन्दगी अगर स्वर्ग थी तो घर की वह जिन्दगी नरक । वहाँ बस स्कूल का काम था और उससे छुट्टी पायी तो दोस्तों की महफिल थी, हँसी मजाक था, साहित्य-चर्चा थी, न कोई फिक्र थी न परेशानी। और घर जो आये तो जैसे भिड़ के छत्ते में हाथ मार दिया, सारी परेशानियाँ जिनसे दूर रहने के कारण नजात मिली हुई थी अकबारगी उनके ऊपर टूट पड़ी।”
1905 में धनपत राय की उम्र पच्चीस वर्ष से ऊपर चल रही थी, पर वे विवाहित होकर भी दाम्पत्य जीवन से वंचित थे। अन्तत: उन्होंने दूसरा विवाह करने का निश्चय किया, पर किसी विधवा युवती से। 1906 ई. में महाशिवरात्रि के दिन उनका दूसरा विवाह मुंशी देवी प्रसाद की बालविधवा कन्या । शिवरानी देवी से सम्पन्न हो गया। अमृत राय के अनुसार “नवाब के साथ बारात में, एक उनके छोटे भाई महताब को छोड़ कर और कोई रिश्तेदार न था, बस दो चार दोस्त और हमजोली जिनमें मुंशी दयानरायन खास थे।”
इस प्रकार धनपत राय उर्फ नवाब राय की जिन्दगी का एक नया दौर शुरू हुआ । लिखने का सिलसिला और भी तेजी से चला। वे ‘जमाना’ में ‘रफ्तारे जमाना’ नामक स्तम्भ लिखते थे जिसमें देश में होने वाले परिवर्तनों की झलक प्रस्तुत की जाती थी। 1885 ई. में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। देश की बन्दी, किन्तु अपराजेय आत्मा अपने को वाणी देने के लिए छटपटा रही थी।
प्रेमचन्द की कलम उसकी वाहक बनी। मई, 1905 से जून, 1909 तक प्रेमचन्द कानपुर में रहे। यह समय भारतीय राजनीति में घोर सक्रियता का युग था। काँग्रेस ‘गरम’ दल और ‘नरम’ दल में विभक्त थी। ‘गरम’ दल के नेता बाल गंगाधर तिलक और ‘नरम’ दल के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। धनपत राय विचारों से तिलक के साथ थे। अपनी राजनीतिक टिप्पणियों में उन्होंने तिलक का ही समर्थन किया।
जून, 1909 में धनपत राय का तबादला कानपुर से हमीरपुर हो गया; स्कूलों के सब-डिपुटी इन्सपेक्टर के रूप में। इस नौकरी में घूमने की बहुत गुंजायश थी और उन्होंने इसका फायदा उठाया जो अनुभव उनके लेखन के लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध हुआ। इस बहाने उन्होंने देश की जिन्दगी को नजदीक से देखा।
हमीरपुर की पद-स्थापना में ही वह प्रसिद्ध घटना हुई, जिसने नवाब राय को प्रमचन्द’ में बदल दिया। सन् 1908 ई. में उनका सोज़े वतन प्रकाशित हो चुका था। किसी प्रकार सरकार को पता चल गया कि सोज़े वतन के लेखक ‘नवाब राय’ वास्तव में धनपत राय ही हैं। सोज़े वतन की कहानियों में सरकार को राजद्रोह’ की झलक मिली, जिसके लिए धनपत राय को तलब किया गया।
किसी तरह उनकी नौकरी तो बच गयी, पर उनके लिखने पर पाबन्दी लगा दी गयी। लेकिन उनका लिखना भला कैसे छूट सकता था ! अन्तत: उन्होंने खतरा मोल लेकर भी प्रेमचन्द’ नाम से लिखते रहने का फैसला किया।
हमीरपुर में ही प्रेमचन्द को पेचिश का रोग लगा, जिससे वे जीवन भर मुक्त नहीं हो पाये। उसका असर उनके व्यक्तित्व पर भी पड़े बिना न रहा। 1914 ई. में उनका तबादला हमीरपुर से बस्ती हो गया। बीमारी और बढ़ गयी। छह महीने तक इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ और बनारस में इलाज चला, पर बीमारी जड़ से न गयी। सरकारी नौकरी छोड़ कर प्राइवेट स्कूल में नौकरी करने और पत्र निकालने की बात भी मन में पैदा हुई, पर सम्भव न हुआ।
हाँ, वे निरीक्षण का काम छोड़ कर, कम वेतन पर, स्कूल में शिक्षक के रूप में जरूर आ गये। कमजोर सेहत, स्कूल की नौकरी और साहित्य रचना के बावजूद उन्होंने 1916 ई. में एफ. ए. की परीक्षा पास कर ली।
1916 में ही प्रेमचन्द का तबादला गोरखपुर हुआ। सेहत में भी सुधार हुआ। सुखद पारिवारिक वातावरण में लिखने का सिलसिला भी जारी रहा। यहीं उन्होंने उर्दू में बाजारे हुस्न की रचना की। यहीं वे महावीर प्रसाद पोद्दार के सम्पर्क में आये, जिनकी कलकत्ता में हिन्दी पुस्तक एजेन्सी नामक प्रकाशन-संस्था थी।
इससे उन्हें उर्दू से हिन्दी में आने में बहुत सहायता मिली। उनका पहला हिन्दी कहानी-संग्रह ‘सप्त सरोज’ और ‘बाजारे हुस्न’ का हिन्दी रूप सेवासदन इसी अवधि में हिन्दी पुस्तक एजेन्सी से प्रकाशित हुआ। 1919 ई. में प्रेमचन्द ने बी. ए. की परीक्षा पास की। इसी अवधि में उन्होंने ‘गोशाए आफियत’ की भी रचना की, जो बाद में प्रेमाश्रम के नाम से प्रकाशित हुआ।
फरवरी, 1921 ई. में गाँधी जी ने गोरखपुर में एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित किया। गाँधी जी के से बना रहे थे। अब एक बड़ा कारण मिल गया। उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। 16 फरवरी, 1921 को वे कार्यमुक्त हो गये। उस प्रकार इक्कीस वर्ष की गुलामी का अन्त हो गया। इसके साथ ही आवास और जीविकोपार्जन के नये सवाल भी पैदा हुए। कुछ दिन महावीर प्रसाद पोद्दार के गाँव मानीराम में रहे।
प्रेस खोलने का विचार मन में आया, पर पहले कपड़े का कारखाना खोला जिसमें आठ करघे चलते थे। चर्खे की भी एक दूकान खोली गयी। पर यह प्रेमचन्द का मार्ग नहीं था। कारखाना नहीं. चला । सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के चार ही महीने बाद उन्होंने कानपुर के मारवाड़ी विद्यालय में प्रधानाध्यापक का कार्यभार सँभाला पर यह नौकरी ज्यादा दिन नहीं चल पायी। 15 अगस्त, 1921 को उनके दूसरे पुत्र अमृत राय का जन्म हुआ। 22 फरवरी, 1922 को विद्यालय के मैनेजर से अनबन हो जाने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। प्रेमचंद के व्यक्तित्व
मारवाड़ी विद्यालय से इस्तीफा देने के बाद 22 मार्च को वे ‘मर्यादा’ (बनारस) में सम्पूर्णानन्द के बाद स्थानापन्न सम्पादक नियुक्त हुए, जहाँ वे 22 जून तक रहे। इसके बाद वे काशी विद्यापीठ में हेडमास्टर के पद पर नियुक्त हुए। जुलाई, 1922 में यह नौकरी भी समाप्त हो गयी।
लमही में घर बनाने का काम शुरू किया। अपना प्रेस खोलने का विचार वे काफी पहले से कर रहे थे। अन्तत: 1923 ई. में उन्होंने बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की, पर प्रेस ठीक से चला नहीं। उसमें निरन्तर नुकसान ही होता रहा। इस प्रकार किसी तरह जिन्दगी चलती रही। अगस्त, 1924 में वे गंगा पुस्तकमाला के साहित्यिक सलाहकार की हैसियत से लखनऊ पहुंचे। इस अवधि में वे ‘चौगाने हस्ती’ की रचना में लगे रहे, जो 1925 में गंगा पुस्तक माला, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद के व्यक्तित्व
29 अगस्त, 1925 को उन्होंने गंगा पुस्तक माला की नौकरी छोड़ दी और बनारस वापस आ गये। लगभग दो वर्ष बनारस रहने के बाद 15 फरवरी, 1927 को वे ‘ माधुरी’ के सहकारी सम्पादक के रूप में पुन: लखनऊ पहुँचे। 15 मई को बनारस से पत्नी और बच्चे भी लखनऊ आ गये। 10 जनवरी, 1931 को नवलकिशोर प्रेस के मालिक विष्णुनारायण भार्गव का स्वर्गवास हो गया और एक आन्तरिक साजिश के तहत प्रेमचन्द का तबादला सम्पादक पद से प्रेस के बुकडिपो में कर दिया गया। प्रेमचंद के व्यक्तित्व
अक्टूबर, 1931 में वे नवलकिशोर प्रेस की नौकरी से अलग हो गये। नवम्बर के आरम्भ में वे पहली बार दिल्ली घूमने गये। फरवरी, 1932 में वे लखनऊ से बनारस लौट आये। लगभग डेढ़ वर्ष तक वे बनारस में ही रह कर हंस, जागरण और सरस्वती प्रेस की व्यवस्था में लगे रहे और साथ ही साहित्य साधना भी करते रहे। प्रेमचंद के व्यक्तित्व
1 जून, 1934 को वे अजन्ता सिनेटोन कम्पनी के प्रोप्राइटर एम. भवनानी के निमन्त्रण पर बम्बई पहुंचे और 3 अप्रैल, 1935 तक वहाँ उनकी कम्पनी में रहे। इस अवधि में उन्होंने मद्रास, मैसूर, बँगलोर, पूना आदि की यात्रा की। सिनेटोन कम्पनी के बन्द हो जाने के कारण वे बम्बई से खंडवा, सागर, इलाहाबाद होते हुए बनारस लौटे।
बम्बई में ही उन्होंने गोदान लिखना शुरू कर दिया था जो बनारस आने पर पूरा हुआ। इस समय तक प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के शिखर व्यक्तित्वों में शामिल हो चुके थे। 10 अप्रैल, 1936 को प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता प्रेमचन्द ने की। गोदान प्रकाशित हुआ। पर स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। उनका स्वास्थ्य निरन्तर गिरता गया। 21 जून को ‘आज’ कार्यालय में गोर्की के निधन पर शोकसभा हुई, पर वे लिखा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाए। अन्तत: 8 अक्टूबर, 1936 को बनारस में उनका स्वर्गवास हो गया।
अपने गाँव लमही से प्रेमचन्द का सम्बन्ध बराबर बना रहा। उनका बचपन तो अपने गाँव में बीता ही, नौकरी के सिलसिले में बाहर जाने पर भी वे हमेशा, खास कर गर्मी की छुट्टी में, गाँव जरूर आते थे। गाँव में उन्होंने नया घर भी बनवाया था। मई, 1932 में लखनऊ की नौकरी समाप्त होने पर उन्होंने कुछ लम्बा समय गाँव में व्यतीत किया था।
अमृत राय के अनुसार इस बार उन्हें गाँव के लोगों से मिलने जुलने, उनके बीच रहने का अनुभव हुआ। उन्हीं के शब्दों में, “गाँव से बाहर खेतों को जाने का रास्ता मुंशी जी के घर के बगल से गया है और अक्सर सुबह-शाम वहीं पत्थर की बेन्च पर बैठे-बैठे मुंशी जी की मुलाकात सबसे हो जाती। जो उधर से गुजरता थोड़ी देर के लिए बैठ जाता, कुछ अपनी कहता, कुछ उनकी सुनता।
किसकी कहाँ जोत है, किसके यहाँ कब कौन बीमार है, किसके यहाँ भाइयों में अनबन चल रही है–सबकुछ उनको पता रहता, और जो पता न रहता उसकी पूछताछ करके अपनी जानकारी अपटुडेट कर लेते।’’ गाँव के प्रति इस गहरी संलग्नता ने ही प्रेमचन्द को गोदान का लेखक बनाया। लगभग इसी समय गोदान का लेखन भी आरम्भ हुआ था। यहीं से प्रेमचन्द बम्बई गये थे और बम्बई से लौट कर यहीं आये थे। यद्यपि उनकी मृत्यु बनारस में हुई थी, पर लमही और बनारस में दूरी ही कितनी थी।
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