मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज। कविता की संदर्भ सहित व्याख्या - Rajasthan Result

मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज। कविता की संदर्भ सहित व्याख्या

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मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। 

जो पशु हौं तो कहा बस मेरो, चरों नित नन्द की धेनु मैंझारन।। 

पाहन हों तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरन्दर धारन। जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन।।

मानुष हों तो वही

संदर्भ : प्रस्तुत छंद रसखान की अमर कृतिसुजान रसखान से लिया गया है। इसमें रसखान ने भगवान के समक्ष अपनी यह अभिलाषा व्यक्त की है कि अगले जन्म में उन्हें जिस भी रूप में जन्म लेना पड़े, वह जन्म ब्रज की ही धरती पर हो।

 

व्याख्या : रसखान कहते हैं कि हे प्रभु! मेरी एकमात्र अभिलाषा यह है कि यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य रूप में जन्म लूँ तो मुझे यह सौभाग्य प्रदान कीजिये कि मैं ब्रज के ही ग्वालों के बीच निवास करूँ। यदि मैं पशु रूप में जन्म लूँ तब तो मेरा कोई वश नहीं है लेकिन तब भी मेरी यही कामना है कि मैं नन्द बाबा की गायों के ही बीच चरूँ और विचरण करूं।

यदि मैं पत्थर बनूँ तो उस पर्वत (गोवर्धन पर्वत) का ही पत्थर बनूँ जिसको श्रीकृष्ण ने इन्द्र के कारण (ब्रज को इन्द्र के कोप से बचने के लिए) अपने हाथ पर छत्र (छाता) के रूप में धारण किया था, और यदि मैं पक्षी-योनि में जन्म लूँ तो मेरी कामना है कि मैं यमुना नदी के किनारे स्थित कदम्ब की डालों पर ही अन्य पक्षियों के साथ हिल-मिलकर रहने का सौभाग्य प्राप्त करूँ।

कुल मिलाकर रसखान कहना यह चाहते हैं कि वे अगले जन्म में जिस भी रूप में जन्म लें, वह जन्म ब्रज भूमि पर हो और उनका सम्बन्ध उन चीजों, जीवों और स्थानों से बना रहे जो किसी न किसी रूप में कृष्ण के सानिध्य (संपर्क) में थे।

विशेष :

1) इस छंद में रसखान ने अपनी अटूट और अगाध कृष्ण भक्ति का परिचय दिया है। उनकी एकमात्र अभिलाषा यह है कि वे जन्म-जन्मान्तरों तक कृष्ण की जन्मभूमि ब्रज में ही रहना चाहते हैं, वहाँ वे चाहे मनुष्य रूप में रहें, या पत्थर के रूप में या पशु और पक्षी के रूप में। यह रसखान की धर्म-निष्ठा का अन्यतम उदाहरण है।

2) सूर आदि कृष्ण भक्तों ने भी ब्रजधाम में रहने की इच्छा व्यक्त की है और उसे ही रहने योग्य भूमि कहा है लेकिन रसखान की भावना कुछ अधिक व्यापकता लिये हुए है।

3) इस छंद में रसखान की सहज एवं निश्छल कृष्ण भक्ति की अभिव्यक्ति हुई है। इसका भाव-प्रवाह देखने योग्य है।

4) गोकुल गाँव के ग्वारन’ और ‘कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन’ जैसे पदों में अनुप्रास अलंकार की सहज छटा विद्यमान है।

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