रस – आरस भोय उठी कछु सोय लगी लसैं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
रस – आरस भोय उठी कछु सोय लगी लसैं पीक पगी पलकें |
घनआनन्द ओप बढ़ी मुख औरैसु फैलि फली सुथरी अलकै ।
अंगराति जम्हाति लजाति लखे अंग-अंग अनंग दियै झलकें |
अधरानि पै आधियै बात धरैं लड़कानि की आनि परै छलकें ॥
रस – आरस भोय उठी कछु
प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द द्वारा रचित ‘सुजानहित’ नामक रचना से लिया गया है। रात भर आनन्द और मस्ती से सोकर सुबह उसी नायिका के अंग-सौष्ठव में एक विशेष प्रकार का लचीलापन, विशेष निखार और उभार आ गया है। उसी अलसाए सौंदर्य का भावपूर्ण चित्रण इस पद्य में करते हुए कह रहा है
व्याख्या : आनन्दलीनता- अर्थात् सम्भोग की लीनता से उत्पन्न आनन्दजन्य आलस्य के कारण जब नायिका सुबह सवेरे नींद से जागी, तब उसकी आँखें पीक से पगी अर्थात् लालिमा से दीप्त लग रही थीं। अर्थात् प्रेम-आनन्दजन्य जमियाकर सुख अभी तक भी उसकी आँखों में झलक रहा था। कविवर घनानन्द कहते हैं कि उसका आनन्द भी सुन्दर मुख के आस-पास फैली बालों की लटें यानि जुल्फें उसके मुख के तेज को और भी बढ़ा या प्रदीप्त करके उसे बड़ी फवा या जंचा रही थीं।
जब कभी अंगड़ाई लेती और कभी जम्हाइयाँ लेने लगती, फिर कभी कुछ शर्माने सी लगती, तो उसका हर अंग काम-भाव से जैसे जगमगा-सा जाता। अर्थात् अभी भी नायिका के अंग में काम भाव और तदजन्य आनन्दोत्साह का भाव स्पष्ट झलक रहा था। उसके होंठों पर आने वाली बातें अधूरी ही रह जातीं और मस्ती की ललक उसकी हर बात, हर हाव-भाव से स्पष्ट झलकती हुई-सी दिखाई देती।
विशेष
1. अलसाएँ यौवन और सुन्दरता का यह गत्यात्मक चित्रण बड़ा ही सुन्दर आकर्षक और प्रभावी बन पड़ा है। उसमें स्वाभाविकता भी दर्शनीय है।
2. ‘पीक-पगी पलकें’ प्रयोग में गाम्यत्व दोष विद्यमान है। ‘पीक’ का सम्बंध अधरों में होता है, पलकों में नहीं।
3. “पद्य में विरोधाभास, विशेष, उपमा, वीप्सा अन्त्यानुप्रास एवं अनुप्रास आदि विभिन्न अलंकार चमत्कार और शोभा दोनों को बढ़ाने वाले हैं।
4. भाषा माधुर्य गुण से संयत, चित्रात्मक, गत्यात्मक एवं संगीतात्मक है।
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