रसखान की काव्य-भाषा
रसखान की काव्य-भाषा – भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। कविता भाषा में ही संभव होती है। कोई भी कवि उपयुक्त काव्य-भाषा द्वारा ही अपने भावों को पाठक या श्रोता तक सम्प्रेषित करने में सफल होता है। है
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रसखान की काव्य-भाषा
रसखान की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें समर्थ भाषा के सभी तत्व विद्यमान हैं। वह विशिष्ट शब्दों, प्रयोगों, मुहावरों और लोकोक्तियों से भरपूर है। उसमें पर्याप्त लालित्य, माधुर्य, व्यंजकता, चित्रात्मकता एवं प्रभावोत्पादकता है। रसखान अपनी भाषा-शक्ति की संवृद्धि के लिए यथावसर अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों शब्द-शक्तियों का प्रयोग करते हैं। रसखान की काव्य-भाषा
वे प्रचलित शब्दों के तद्भव-तत्सम रूपों के साथ ठेठ ग्रामीण एवं अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी बड़ी स्वाभाविकता के साथ करते हैं। वे खास, मौज, तमासो (तमाशा), रुआब, गरुर, वाह, मियाँ, खूब, महबूब, गदर, बाजी जैसे विदेशी भाषा (अरबी-फारसी) के शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं।
इसी तरह वे वचनामृत, मात्सर्य, कलम, विद्या, आगम, जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग भी बड़ी स्वाभाविकता के साथ करते हैं। ‘कान्ह भए बस बांसुरी के’ ‘गाल बजावत’, ‘बाजी सनेह की डाँडी’, ‘पसारत हाथ’, ‘कानन दै अंगरी रहिबो’ जैसे महावरों के सहज प्रयोग से उनकी भाषा-शक्ति दुगुणित हो गयी है।
वे सूक्तियों का प्रयोग लोकोक्तियों की तरह करने में कुशल हैं जैसे ‘एकहिं मोती के मोल लला सिगरे ब्रज हाटहिं हाट बिकैहैं’, ‘ना करिबे पै वारे हैं प्रान, कहा करिहैं अब हाँ कहिबे पर।’ कुल मिलाकर रसखान एक समर्थ काव्यात्मक भाषा के धनी हैं जो अपेक्षित प्रभाव-सृष्टि करने में पूरी तरह सफल हैं। यह उनका भाषा-माधुर्य, प्रसादगुण-सम्पन्नता और प्रवाहमयता ही है कि उनके सवैये एक-दो पाठ के बाद लोगों की जुबान पर चढ़ जाते हैं। रसखान की काव्य-भाषा
अप्रस्तुत विधान
भाव की सशक्त एवं ललित अभिव्यक्ति के लिए समुचित अप्रस्तुत-विधान की जरूरत पड़ती है। अलंकार कविता के प्राण नहीं हैं लेकिन उसके सौन्दर्य-विधायक तत्व जरूर हैं, वैसे अलंकार के सहज-स्वाभाविक प्रयोग से कविता में नये सौन्दर्य के साथ-साथ प्राणवत्ता भी आ जाती है, इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता।
रसखान अलंकारों के पीछे दौड़ने वाले खोखले कवि नहीं हैं, लेकिन अपने आराध्य के रूप-सौन्दर्य के वर्णन और उनके लीला-विलास के चित्रण में उन्होंने अलंकारों से काफी काम लिया है। उनके प्रिय अलंकार हैं-यमक, अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, प्रतीप, रूपकातिशयोक्ति। उनके अलंकार प्रयोग के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं.
– अनुप्रास : छकि छैल छबीली छटा छहराइ कै कौतुक कोटि दिखाइ रही। रूपक : मो मन-मानिक लै गयो, चितै चोर नंद-नन्द। प्रतीप : रसखानि लखें तन पीत पटा सत दामिनि की दुति लाजति है। उत्प्रेक्षा : जीवन-जोति स यौं दमकै उसकाइ दई मानों बाती दिया की।। उपमा : यह आवनि प्यारी जु की रसखानि बसन्त-सी आज विराजत है।!
रसखान ने यद्यपि पारम्परिक उपमानों का ही प्रयोग किया है लेकिन उन्होंने उनके प्रयोग में नूतनता लाने की कोशिश की है, इसीलिए पारंपरिक उपमानों से भी वे नये बिम्बों की सर्जना में सफल हो गये हैं। उनकी कल्पनाएँ अछूती और सरस हैं। उनका सादृश्य-विधान अनूठा और नया है, इसीलिए उनकी भाव-व्यंजना भी सरस और हृदयग्राही हो गयी है।
छंद लालित्य
छंदों में ढलकर अनुभूति एक आकार लेती है। हर कवि अपनी भावना के अनुरूप छंदों को चुनता है। रसखान की भावना आवेगमयी है। वे श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य के प्रति वैसे ही खिंचे चले आते हैं जैसे हिमालय से उतरी हुई नदी समुद्र की ओर भागती जाती है।
भावना के इस उच्छल वेग को संभाल सकने की जितनी क्षमता सवैया और कवित्त में हो सकती है, उतनी अन्य किसी छंद में नहीं, इसीलिए रसखान ने मुख्य रूप से इन्हीं दोनों छंदों में अपने भाव-समुद्र को उड़ेला है, कहना चाहिए कि छंदों की इस सीमित गागर में भावों के अनन्त समुद्र को भरा है। ‘सुजान रसखान’ में कवित्व-सवैयों का ही प्रयोग हुआ है। बीच-बीच में दोहे और सोरठे भी मिलते हैं।
रसखान के सवैये और कवित्त गेय तथा संगीतात्मक हैं। उनमें भाव-प्रवणता भी है और शब्द-प्रयोग का लालित्य भी। सवैयों में एक-एक शब्द चुनकर रखा गया है। उनके सवैयों में दरिया का-सा बहाव है।
कवित्त सवैयों के अतिरिक्त रसखान ने दोहा-सोरठा का प्रयोग किया है। उनकी ‘प्रेमवाटिका’ दोहों में ही लिखी गयी है। ‘प्रेमवाटिका’ सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। रसखान ने प्रेम-तत्व के निरूपण के लिए दोहा छंद को ही अधिक उपयुक्त समझा है क्योंकि इसमें सिद्धान्त और नीति को प्रस्तुत करने में ज्यादा सुविधा होती है।
प्रभावोत्पादकता
रसखान की कविता की मुख्य विशेषता है प्रभावोत्पादकता। भाषा, शब्द, अलंकार, छंद आदि का विधान कवि भावों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये ही करता है। रसखान को इस कला में पूरी सफलता मिली है। वे न केवल भावानुरूप शब्द-चयन और उसके सशक्त प्रयोग में सफल रहे हैं बल्कि तदनुरूप छंदों की योजना में भी उन्हें सफलता मिली है।
इस सबका परिणाम यह हुआ है कि रसखान की कविता में पाठक या श्रोता को अपने भाव-संसार में बहा ले जाने की क्षमता पैदा हो गयी है। रसखान की कविता कृष्ण की मुरली जितनी ही प्रभावशाली है। वह पाठक की चेतना को आक्रान्त करके उसे एक नये भाव-लोक में विहार करने के लिए छोड़ देती है।
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