ललितललाम के काव्य-शिल्प का मूल्यांकन कीजिए |
ललितललाम के काव्य-शिल्प :— कवि की अथवा किसी भी साहित्यकार की अर्थाभिव्यक्ति का साधन संकल्पनाओं और भावचित्रों के अभिव्यंजन का कार्य भाषा के द्वारा सम्पन्न होता है। भावों और विचारों की वाहक भाषा ही है। अभिव्यंजना की समस्त प्रक्रियाएँ भाषा की राह से चलकर पूर्ण होती हैं। रीतिकाल के अन्तर्गत उत्तर भारत ही नहीं प्रायः सम्पूर्ण भारत की काव्य-भाषा के रूप में ब्रजभाषा का बोलबाला था ।
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ललितललाम के काव्य-शिल्प
मतिराम ने भी इसी लोक-विश्रुत भाषा में अपने ग्रंथों की रचना की । ललितललाम भी ब्रजभाषा में लिखा गया अलंकार ग्रन्थ है। उनकी भाषा अधिकांशतः अपने अकृत्रिम पर साथ ही अलंकारमण्डित रूप को लेकर चलती है। भावों की मर्मस्पर्शी और मनोमुग्धकारी सुष्ठुता तथा प्रसादगुण से सम्पन्न और बोध समर्थ भाषा का प्रयोग अलंकरण शैली में भी दृष्टव्य है
बातनि जाय लगाय लई रस ही रस में मन हाय के लीनौं ।
लाल तिहारे बुलावन को मतिराम मैं बोल कह्यो परबीनौं ।।
बेग चलौ न विलंब करौ लख्यौ बाल नबेली को नेह नबीनौं।
लाज भरी अँखिया बिहँसी बलि बोल कहें बिन उत्तर दीनौं|| (197)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में ‘मतिराम की भाषा’ में आनुप्रासिक शब्द-चमत्कार और अर्थालंकारगत नीरस अर्थ चमत्कृति के लिए अशक्त शब्दों की भरती प्रायः कहीं नहीं मिलती। उनके शब्द और भाव-अधिकत:, भावव्यंजन के उपकरण उत्पादक के रूप में प्रयुक्त हैं।
रीतिग्रन्थ वाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छन्द, चलती और स्वाभाविक भाषाकम कवियों में मिलती है। कहीं-कहीं आवश्यक अनुप्रास के चक्कर में वह पड़ गई है। ललितललाम के काव्य-शिल्प पर सामान्यतः उनकी भाषा रस से सिक्त भावों से मनोहर और प्रसादगुण से निर्मल दिखाई देती है।’
आडम्बरहीन भाषा और भाव के प्रवाह से युक्त उनकी भाषा बनावटीपन से प्रायः दूर रहती हुई, काव्य सौष्ठव की उत्कृष्ट कला का स्वरूप दर्शाती है। कतिपय स्थलों पर शब्दों का असमीचीन या बेढंगा प्रयोग भी हुआ है। फिर भी सामान्यतः उनकी भाषा बहुत ही साफ सुथरी, समर्थ, भावपूर्ण, सरस, प्रवाहमय और अर्थबोधन में प्रसाद सम्पन्न है।
दरिआव, गनीम, फारसी काव्य परम्परा के प्रभाव से उनकी रचना में इलाज, बिरची, खलक, जहान, गुमान, मजलिस, मखतूल आदि अनेक अरबी तथा फारसी शब्द मिलते हैं। जहान और गुमान शब्द का प्रयोग निम्न पंक्तियों में देखिए –
‘गोपीनाथ नंद चितचाही बक सीसनि सों
जाचक धनेस कीनैं सकल जहान में ( 32 )
और
जलधर छोड़ि गुमान कों हों ही जीवन दानि ।
तोसो ही पानिप भरयो भावसिंह को पानि ।। (62)
प्रचलित और सटीक होने के कारण ये प्रयोग सामान्यतः भावबोध में सहायक हैं। ललितललाम के काव्य-शिल्प
अलंकार – सौन्दर्य
अनुभति को रूप प्रदान करने के लिए चित्र की जितनी आवश्यकता है, चित्र को रूप रंग देने के लिए उतनी अलंकारों की अपेक्षा रहती है। इनके द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म भावों तथा पदार्थों तक की अनुभूति और तीव्र तथा स्पष्ट हो जाती है। मतिराम कृत ‘ललितललाम’ एक अलंकार ग्रंथ है उसमें विभिन्न अलंकारों का प्रयोग सहज सम्भाव्य रहा है।
जिनमें से उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दीपक, दृष्टान्त, व्यतिरेक, अपह्नुति, अतिशयोक्ति, पर्याय, आक्षेप आदि अलंकारों का काव्यगत प्रयोग विशेषतया प्रभावी है। निम्नलिखित उदाहरण में शुद्धापह्नुति के भावगत प्रयोग सौष्ठव की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है :—
पारावार पीतम को प्यारी है मिली है गंग
बरनत कोऊ कवि कोबिद निहारिकै ।
सो तो मतो मतिराम के न मनमानै निज
मति सों कहत यह बचन बिचारिकै |
जरत बरत बड़वानल सों बारिनिधि
बीचनि के सोर सों जनावत पुकारिजै ।
ज्यावत बिरंचि ताहि प्यावत पियूष निज
कलानिधिमण्डल कमण्डल तैं ढारिकै ।। ||88||
लोग कहते हैं वह देखो, भगवती जाह्नवी प्रियतमा के रूप में अपने प्रियतम सागर से मिल रही है। मतिराम कवि को यह कथन ठीक नहीं लगता। उनका मत तो यह है कि बेचारा समुद्र बड़वानल की ज्वाल-मालाओं से झुलसा जा रहा है और भगवान ब्रह्मा से इस भयंकर विपत्ति से त्राण पाने के लिए पुकार-पुकारकर प्रार्थना कर रहा है।
सागर – तरंगों की करुण-चीत्कार इस आर्तपुकार का ध्वनि है। ब्रह्मा को भी दया आगई। यह बड़ा सा चन्द्रमा उनका कमण्डलु है। इसमें लबालब पीयूष भरा हुआ है । झुलसे समुद्र को शान्त करने के लिए उन्होंने अपने इस कमण्डलु से सुधा प्रवाहित कर दी है। यह गंगा नहीं है, वही ब्रह्मा के चन्द्रकमण्डलु से गिरी सुधा – धारा है जिसे समुद्र पान कर रहा है। कैसी अनोखी अपह्नुति है।
निम्नलिखित छन्द में रूपक की छटा दृष्टव्य है
मौज दरियाव राव सत्रुसालतनै जाको
जगत में सुजस सहज सतिभान है।
बिबुधसमाज सदा सेवत रहत जाहि
जाचकनि देत जो मनोरथ को दान है।
जाके गुन – सुमन- सुबास ते मुदित मन
ते साँच मतिराम कबि करत बखान है ।
जाकी छाँह बसत बिराजै ब्रजराज यह
भावसिंह सोई कलपद्रुम दिवान है । | ||69||
यहां भावसिंह को कल्पवृक्ष दिखाया है। यह मौज-मन- मरजी का समुद्र है। महाराज छत्रसाल का सुपुत्र जिसका इस संसार में यश सहज सत्य रूप में विद्यमान है। पंडितों का समाजसदन जिसकी सेवा में रत है। याचक की जो मनोकामना पूरी करता है। जिसके गुण रूपी पुष्पों की सुगन्ध से मन आनन्दित होता है। मतिराम इसका सत्य – सत्य वर्णन कर रहे हैं जिसकी छाँह में राधा कृष्ण बैठे रहते हैं।
भावसिंह के हृदय में कृष्ण विद्यमान हैं। भावसिंह दीवान कल्पवृक्ष रूप है। भावसिंह पर कल्पवृक्ष का आरोप है दोनों के गुणों का साम्य है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है। ललितललाम के काव्य-शिल्प ललितललाम के काव्य-शिल्प ललितललाम के काव्य-शिल्प ललितललाम के काव्य-शिल्प
सन्देह अलंकार की भी सहज अभिव्यक्ति निम्न दोहे में लक्षित है –
परचि परै नहि अरुन रंग अमल अधरदल माँझ ।
कैधौं फूलौं दुपहरि कैधौं फूली साँझ || ||85||
नायिका के लाल रंग के स्वच्छ अधरों के बीच में लाल रंग दिखाई नहीं पड़ता, या तो दुपहरिया का पुष्प फूला है या साँझ फूल गई है। इसमें सन्देह स्पष्ट है।
आक्षेप अलंकार की अभिव्यंजना भी कम मनोहारी नहीं । यथा
दै मृदु पाँयन जावक को रंग नाह को चित्त रंग रंगे जा ।
अंजन दै करौ नैननि में सुषमा बढ़ि स्याम सरोज प्रभातैं।
सोने के भूषन अंग रचनो मतिराम सबै बस कीबे की घातैं।
यौं ही चलै न सिगार सुभावहि मैं सखि भूलि कहीं सब बातैं। ||188||
हे सखि, तू अपने कोमल पैरों में महावर का रंग लगा ले जिसके रंग में तेरे पति का मन रंग आएगा। नेत्रों में अंजन लगाकर तुम उसमें सौन्दर्य की वृद्धि करो जो नीलकमलों की कांति से भी बढ़कर हो। सोने के आभूषणों को शरीर पर धारण करो – ये सब बातें प्रियतम को वश करने की युक्तियाँ हैं। हे सखि, ऐसे ही चल, शृंगार तुझे शोभा नहीं देता। मैंने अब तक जो बातें कहीं वे सब गलती से कहीं हैं।
इस प्रकार ‘ललितललाम’ में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जिनमें अलंकारगत सूक्ष्मता और भाव प्राजलता का मणिकंचन संयोग हुआ है। ललितललाम के काव्य-शिल्प
अर्थ – ध्वनन या नाद सौन्दर्य
भाषा प्रसाधन की एक विशेषता अर्थ- ध्वनन भी है। इसके द्वारा ऐसे स्वर व्यंजन – समूह वाले शब्दों का चयन किया जाता है जिनसे उनकी मिश्रित ध्वनि के अनुरूप बनकर उसके बिम्ब को और भी स्पष्ट देती है। मतिराम ने इस प्रकार ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग करके अपनी अभिव्यक्ति को संगीत की दृष्टि से ही नहीं, अर्थ-ग्रहण की दृष्टि से भी समर्थ और सशक्त बना दिया है। यथा:—
मदजल झरत झुकत जरकस झूल
झालरिनि झलकत झुंड मुकतानि के ||140||
अंगनि उतंग जैतवार जोर जिन्हें
चिक्करत चिक्करि हलत कलकत हैं। ||122||
प्रस्तुत उद्धरणों में मदजल का झड़ना मोतियों की झालर का झलकना में जो व्यंजना है उसका श्रेय इन पदों में समाविष्ट ध्वनियों को ही है ।
काव्य-गुण
अर्थ-ध्वनन के समान ही गुणों का सम्बन्ध भी ध्वनियों और अर्थ के साथ रहता है। साहित्यदर्पणकार ने तीन गुण माने हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद । मतिराम की अधिकांश कविता में प्रसाद गुण व्याप्त है। किन्तु इनके काव्य में शृंगार और वीर रस की प्रचुरता के कारण और ओज गुण भी प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। माधुर्यगुण का लालित्य ‘ललितललाम’ की इन पंक्तियों में अनुभव किया जा सकता है –
बाल रही इकटक निरखि ललित लाल मुख इन्दु ।
रीझा भर अखियाँ थंकी झलकें श्रमजल बिन्दु ||110||
इसी प्रकार भावों के अनुरूप निम्नलिखित पंक्तियों में ओजगुण की अभिव्यंजना स्वाभाविक रूप से हुई है –
एक धर्म गृह खंभ अंभरिपु रूप अवनि पर।
एक बुद्धि गम्भीर धीर बीराधिबीरब ।
एक ओज अवतार सकल सरनागतरच्छक।
एक जासु करनाल लिखिल खलकुल कहैं तच्छक।
मतिराम एक दातानिमनि जगजस अमल प्रगट्टियउ।
चाहुवान-बंस-अवतंस इमि एक राव सुरजन भयउ।। ||23||
शब्द-शक्ति- सौष्ठव
अभिव्यक्ति के सहज माध्यम रूप में भाषा की सफलता तभी सम्भव है जब उसका प्रत्येक पद अनुभूति के विभिन्न आयामों का सही अनुभव कराए। कोई भी पद एक ही अनुभूति के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। इसी कारण कवि को प्रायः इसके अर्थ का संकोच या विस्तार करना पड़ता है और इस अर्थ परिवर्तन का नियमन करती है – शब्द शक्ति ।
मतिराम ने शब्द – शक्ति के सम्बन्ध में यद्यपि कोई सैद्धान्तिक मत तो नहीं दिया लेकिन आवश्यकतानुसार शब्दशक्ति के तीनों भेदों का प्रयोग किया है अभिधा की सहज अभिव्यक्ति प्रस्तुत उदाहरण में दृष्टव्य है
सोय रही रति अंत रसीली अनंत बढ़ाय अनंग-तरंगनि।
केसरि खौरि रची तिय के तन प्रीतम और सुबास के संगनि।
जागि परी मतिराम सरूप गुमान जनावत भौंह के भंगनि।
लाल सों बोलति नाहिन बाल सु पोंछति आँखि अंगोछति अंगनि ।। ||105||
इस उदाहरण में रसीली, पौंछति, आँखि, अंगोछति अंगानि आदि शब्दों का वाच्यार्थ अपने सौन्दर्य सहित इतना मुखरित हो रहा है कि इसमें किसी प्रकार की सूक्ष्मता को खोजना या उसके स्थान पर अन्य समानार्थक शब्दों को रखना उसकी तन्मयता और सरसता को नष्ट कर डालेगा।
कुशल कवि अपनी रागात्मक अनुभतियों के आवेग को जब काव्य मंदाकिनी के रूप में प्रवाहित करने को उद्यत होता है तो कई बार सामान्य वाच्यार्थ विधायक शब्दावली उसकी लक्ष्य सिद्धि में सहायक नहीं हो पाती।
तब वह अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को विलक्षणता प्रदान करने के लिए लक्षणा और व्यंजना शब्द – शक्ति का अवलम्बन लेता है मतिराम के ललितललाम में भी दोनों का प्रयोग हुआ है। लक्षणा शब्द-शक्ति का उदाहरण निम्नोक्त पंक्तियों में देखते ही बनता है –
कोप करि संगर में खग्ग कौं पकरिकै
बहायो बैरि नारिन को नैन नीर सोत है ||
कहे मतिराम कीन्हौ रीझकै निहाल मही
पालनि के रूप सब गुननि को गीत है।
जागे जग साहिब, सपूत सत्रुसालजू को
दसहूँ दिसानि जस अमल उदोत है।
खलनि के खंडिवै कौं मंगन के मण्डिबे कौं
महाबीर भावसिंह भावसिंह होत है || ||390||
इस छन्द की अन्तिम पंक्ति में भावसिंह शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। प्रथम ‘भावसिंह’ शब्द तो कवि के आश्रयदाता का वाचक है। दूसरा शब्द ‘भावसिंह’ का लक्ष्यार्थ है- दान, पराक्रम, औदार्य आदि गुणों से युक्त। स्पष्ट है कि मतिराम ने शब्दों की तीनों शक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया।
उक्ति-वैचित्र्य
उक्ति-वैचित्र्य उत्तम काव्य का सहज अंग है। इससे भाषा में वह धार आ जाती है जो व्यंग्य को तीखा और तीव्र बनाने में सहायता प्रदान करती है। मतिराम के काव्य में आलंकारिक विचित्रता होते हुए भी उक्तियों के विधान में सर्वथा मौलिकता का परिचय मिलता है जैसे
पूरन चंद उदोत कियो घन फूलि रही बनजाति सुहाई।
भौंरन की अवली कलकैरव – कुंजन – पुंजन में मृदु गाई |
बांसुरि ताननि काम के बाननि लै मतिराम सबै अकुलाई ।
गोपिन गोप कछू न गने अपने अपने घर ते उठि जाई || ||285||
यहाँ कवि ने मोहन-मोहिनी के अन्तरंग प्रणय की झांकी प्रस्तुत करने के लिए ‘भ्रमर-भ्रमरी’, ‘सोने में सुहागा’, एवं श्याम के साथ ‘लाल’ शब्द का अद्भुत संयोग दिखाकर अपने उक्तिवैचित्र्य का परिचय दिया है। यहाँ इन शब्दों का प्रयोग प्रचलित अर्थों से भिन्न अर्थ में हुआ है।
‘नायिका यदि मोहिनी है तो नायक मनमोहन, क्योंकि दोनों ने एक-दूसरे के मन को मोहित कर लिया है। यदि वह भ्रमरी है तो नायक भ्रमर और यदि वह स्वर्ण है तो नायक उसके साथ पिघलने वाला सुहागा ।’ नायक को स्याम इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह शृंगार रस में निमग्न रहता है और लाल इसलिए क्योंकि वह नायिका के अनुराग में रंग गया है।
मुहावरे और लोकोक्ति
मुहावरे और कहावतें प्रत्येक जीवित भाषा की एक अपनी विशिष्टता है। मतिराम के ललितललाम में इनका प्रयोग सहज देखा जा सकता है यथा
(क) ऊधो नहीं हम जानत ही मन—मोहन कूबरी हाथ बिकै हैं ||
(ख) सोयो चाहत नींद भरि सेज अँगार बिछाय ||
(ग) मैं तृन सो गन्यो तीनहु लोकनि तू तून ओट पहार छपावै ||
यहाँ ‘हाथ बिकै हैं’, ‘अँगार बिछाय’, तथा ‘तृन ओट पहार छपावै’ प्रसंगानुकूल सटीक प्रयोग हैं। इसी प्रकार कहावतों का प्रयोग भी देखने योग्य है
‘मंत्रिन के बस’ जो नृपति सो न लहत सुखसाज।’
मन्त्रियों के वश में रहने वाला राजा सुख प्राप्त नहीं कर सकता’- कहावत में नीति साकार हो उठीली है।
कला की दृष्टि से काव्य के अन्तर्गत छन्द –
विधान का अपना विशिष्ट महत्त्व है। प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त ने छन्द और कविता के सम्बन्ध को इन शब्दों में अभिव्यक्ति किया है- ‘कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छन्द हृत्कंपन, कविता का स्वभाव ही छन्द में लयमान होता है।’ छन्द योजना की दृष्टि से मतिराम का विस्तार परिमित है।
उन्होंने प्रमुख रूप से तीन छन्दों का प्रयोग किया- सवैया, कवित्त और दोहा। शृंगारिक परिवेश में सवैया उनका सर्वाधिक प्रिय छन्द है। उसमें भाषा का सहज भावों की ललित झंकार, कल्पनाशील चित्रों की मोहक छटा और ध्वनि – सौंदर्य का मनोहारी रूप देखने को मिलता है यथा
लोचन भौंर गुपाल के आपने आनन बारिज बीच बसावै।
तोतें लहै मतिराम महा छबि प्रानपियारे तें त छबि पावै।
तू तो सजनी सबके मन भावै जु सोन से अंगनि लाल मिलावै ।
यहाँ सवैया छन्द की प्रकृति के अनुकूल क्रमशः सात भगण और अन्त में दो गुरु हैं।
कवित्त भी उनके काव्य –
भावों की समर्थ अभिव्यक्त में प्रयुक्त है। ओजपूर्ण छन्दों में मतिराम ने इस छन्द का सफल प्रयोग किया है। उदाहरण
औरनि के तेज सीरे करिबे के हेत आँच
करै तेज तेरो दिसि बिदसि अपार में |
परमुख अधिक अंधेरी करिबे कौं फैली
जस कीं उजेरी तेरी जग के पसार में।
राव भावसिंह सत्रुसाल से सपूत यह
अद्भुत बात मतिराम के विचार में |
आयकै मरत अरि चाहत अमर भयो
महाबीर तेरी खगधार गंगधार में ||
दोहा छन्द का प्रयोग-
लक्षण-विधान के अतिरिक्त कतिपय नीतिपरक अथवा अन्य प्रसंगों में हुआ है यथा
मानत लाज-लगाम नहिं नैक न गहत मरोर।
होत तोहि लखि बाल के दृग तुरंग मुंहजोर ।।
इस प्रकार मतिराम की काव्य – प्रतिभा का विकास मुख्यतः सवैया, कवित्त और दोहा- इन तीन छन्दों के माध्यम से हुआ है।
यह भी पढ़े :—
- मतिराम के अलंकार निरूपण के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए ।
- हल्कू का चरित्र चित्रण | पूस की रात | प्रेमचंद |
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