सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं बताइए |
सूरदास की काव्य भाषा
सूरदास की काव्य भाषा
सूरकाव्य की सर्जनात्मक बनावट और कलात्मकता के निर्माण में भाषासौष्ठव का अपूर्व योगदान है। समग्र काव्यार्थ की निर्मिति में काव्यभाषा एक संश्लिष्ट उपादान की तरह होती है। सूरसागर की काव्यभाषा के सौंदार्य, नाद तत्व और व्यंजकता को देखकर आचार्य रामचंद्र को आश्चर्य हुआ था। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो दीर्घ काल से चली आ रही किसी मौखिक काव्य-परंपरा में सूरदास दीक्षित हुए हों। उनकी उक्ति अविस्मरणीय है
“ध्यान देने की बात है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्यिक कृति इन्हीं की मिलती है जो अपनी पूर्णता के कारण आश्चर्य में डाल देती है। पहली साहित्यिक रचना और इतनी प्रचुर, प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण कि अगले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ उनकी जूठी जान पड़ती हैं।”
ब्रजक्षेत्र की जनपदीय बोली किस तरह एक विकसित काव्यभाषा का रूप ग्रहण करती है, यह एक अलग समस्या है, जिसपर भाषाशास्त्र के विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है। यहाँ सूरदास के प्रसंग में पहली बात ध्यान देने की यह है कि सूर की काव्यभाषा ब्रजक्षेत्र की रोजमर्रा की बोलीबानी से अलग नहीं है।
पहले से चली आती हुई मौखिक गीत-परंपरा और ब्रज क्षेत्र की दिनचर्या की ठोस संवादमयता- इन दोनों को एक अंधे कीर्तनकार ने किस तरह अंतः किया, किस तरह उसे अर्थव्यंजना की दृष्टि से परिष्कृत किया और हजारों पदों की रचना कर पंद्रहवी-सोलहवीं सदी में संस्कृति के उच्चतर आसन पर ब्रजभाषा को प्रतिष्ठित कर दिया। इन सभी पहलुओं का विद्वानों ने बार-बार उल्लेख किया है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सूरदास की काव्य भाषा का अपूर्व सामर्थ्य बतलाते हुए मूलतः दो कसौटियों को निणार्यक मानते हैं- (क) शब्दों की मितव्ययिता तथा (ख) चित्रमयता। इन दोनों ही कसौटियों पर सूरदास की काव्य भाषा की परख करते हुए वे कहते हैं- सूरदास में ये दोनों गुण हैं। दूसरे गुण में तो सूरदास की समता संसार के कुछ ही कवि कर सकते हैं।
सूर के पदों का काव्योत्कर्ष मूलतः वक्रोक्ति, श्लेष, व्यंग्यार्थ और माधुर्य गुण से संपन्न शब्दमैत्री पर निर्भर करता है। कला की दृष्टि से इतनी समृद्ध काव्यभाषा बोलचाल और दैनंदिन बातचीत की नाटकीयता के बिना संभव ही नहीं हो पाती। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, विभावना, अर्थांतरन्यास आदि अलंकार सूर की काव्यभाषा में सहज ही उमड़े चले आते हैं।
चूंकि ऐंद्रिक चित्रों की रचना में वे अपूर्व कलाकौशल का परिचय देते हैं, अंतः सूरसागर की पदावली चित्रमयता से जगमग करती रहती है। साधर्म्यमूलक अलंकार सूर की सम्मूर्तन कला के उपादान बनकर आते हैं। मानव आचरण, विश्वसृष्टि और ब्रज की ग्रामीण प्रकृति से सूरदास अपने उपमान चुनते हैं
जैसे राखहु तैसें रहौ।जानत हो दुख सुख सब जन के मुख करि कहा कहौं । कबहुँक भोजन लहौं कृपानिधि कबहुँक भूख सहौं। कबहुँक चढौं तुरंग महागज कबहुँक भार बहौं।कमल नयन घन स्याम मनोहर अनुचर भयौ रहौं ।सूरदास प्रभु भक्त कृपानिधि तुम्हारे चरन गहौं ।।
ये उपमान कृतिकार के अभिप्रेत कथ्य और उसकी काव्यवस्तु को श्रोता या पाठक के सम्मुख ऐंद्रिक रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। सूरदास इस कला के उस्ताद माने जाते हैं।
तोक्यो विश्वविद्यालय, जापान के एक विद्वान प्रोफेसर तकुशोकू ने सूरसागर की काव्यभाषा के अनुशीलन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला है- सूरसागर के अंदर साहित्यिक भाषा संस्कृत और लोकभाषा ब्रज के बीच विशेष विरोध का न होना या, दूसरे शब्दों में, दोनों का समन्वय होना नीचे दी हुई प्रक्रियाओं से संभव हुआ होगा।
(1) संस्कृत शब्दों को ग्रहण करने में सूरदास ने ऐसे शब्दों को प्राथमिकता दी जिनकी ध्वनि-व्यवस्था ब्रजभाषा की दृष्टि से सरल हो। अतः जहाँ तक इस वर्ग के शब्दों का संबंध है। गृहीत संस्कृत तत्सम शब्द और ब्रजभाषा में कम अंतर आया है। प्राथमिकता
(2) जब सूरदास जटिल ध्वनि व्यवस्था वाले संस्कृत शब्द ग्रहण करने को बाध्य हुए तो उन्होंने उन शब्दों को ब्रजभाषा के गठन के अनुरूप बदल दिया
अबिगत गति कछु कहत न आवै ।ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावें ।परम स्वाद, सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।मन बानी कौं, अगम अगोचर सो जानै जो पावै।।रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब कित धावै ।सब बिधि अगम बिचारहिं तारौं सूर सगुन पद गावै ।।
व्यंजन गुच्छ युक्त तत्सम शब्द ‘दुग्ध’, ‘हृदय’, ‘कृष्ण’ आदि के बजाय दूध, हिय, कान्ह, कन्हैया, वगैरह के प्रयोग ही सूरदास को भाते हैं । नँद, आँखि, नहिं, भई, कुँवर, क्यों, मोकों जैसे प्रयोगों से है कि सूर की षा में ध्वनिव्यवस्था की दृष्टि से आनुनासिकता की ही भरमार है
मैया मैं नहि माखन खायौ।ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरै मुख लपटायौ ।।देखि तुही सींके पर भाजन ऊँचे धरि लटकायौ ।तुही निरखि नान्हे कर अपनैं मैं कैसें करि पायौ ।।मुख दधि पॉछि बुद्धि इक कीन्ही दोना पीठि दुरायौ।डारि साँटि मुसुकाइ जसोदा स्यामहिं कंठ लगायौ।बाल बिनोद मोद मन मोह्यौ भक्ति प्रताप दिखायौ।सूरदास जसुमति की यह सूख सिब बिरंचि नहिं पायौ।।
ब्रजभाषा के सभी व्यंजन सूर के काव्य में प्रयुक्त हुए हैं- उदाहरण के लिए ‘य’ के स्थान पर ‘ज’, ‘व’ के स्थान पर ‘ब’, ‘श’ के स्थान पर ‘स’ सोभित कर, नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए ।। चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त, मधुप, गन मादक मधुहिं, पिए।। कठुला कठ बज्र, केहरी नख राजत रूचिर हिए। धन्य सूर एको पल इहिं, सुख का सत कल्प लिए।।
सूरकाव्य में अरबी-फारसी की शब्दावली भरी पड़ी है। ब्रजभाषा ने इस शब्दावली को पचा लिया है; जैसे- अबीर, अमीर, खसम, जबाब, मुसाहिब, अकल, खबर, खरच, खवास, गुलाम, जमानत, जहाज, तलफ, दगा, संदूक, महल, फौज, जौहर, गुमान, दस्तक, सरदार, दीवान, मेहमान आदि। क्रियाव्यापार की अभिव्यक्ति में सूर ने ब्रजक्षेत्र की रोजाना बोलचाल में रचे बसे ध्वन्यात्मक शब्दों का सार्थक उपयोग किया है– अरबराइ, कलमलात, किलकना, गहगहात, घहरानि, चटचटात, झुनझुन, धकधक, झपतार, झमकत, झमकिन आदि सैकड़ों शब्द सहज ही मिल जाते हैं
खीझत जात माखन खात ।अरुन लोचन भौंह, टेढ़ी बार बार सँभात ।।कबहुँ रूनझुन, चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात ।कबहुँ झुकि कै अलक खैचत नैन जल भरि जात ।।कबहुँ तोतर बोल बोलत कबहुँ बोलत तात ।सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात ।।
‘सूरदास’ नाम से डॉ. हरबंस लाल शर्मा ने जिस पुस्तक का संपादन किया है, उसमें डॉ. कैलास चंद्र भाटिया का निबंध संकलित है। इस निबंध में सूर की भाषा पर विस्तार से विचार किया गया है। डॉ. भाटिया से भिन्न स्तर पर डॉ. मैनेजेर पांडेय का विश्लेषण खास तौर पर उल्लेखनीय और पठनीय है। सूरदास पर लिखित अपनी पुस्तक में उन्होंने सूर की अभिव्यक्ति के स्वरूप की छानबीन करते हुए भाषा के बारे में विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।
कलात्मक स्तर पर सौंदर्यानुभूति की दृष्टि में सूर की काव्य भाषा की विशेषता पर उनकी टिप्पणी है- “सूरदास रूपकप्रधान चिंतन के सहारे ही अलंकारों का प्रयोग करते हैं। और बिंब, प्रतीक, अन्योक्ति आदि की रचना भी करते हैं। इस पद्धति से काव्यभाषा में वाग्विदग्धता, उपचारवक्रता और सौंदर्य का विकास हुआ है।”
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