हरि अपनैं आँगन कछु गावत | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूरदास |
हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥ (२७)
हरि अपनैं आँगन कछु
प्रसंग :— प्रस्तुत पद कृष्ण भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित है। वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण अब थोड़ा बड़े हो गए हैं और अपने पैरों पर चलने लगे हैं। वे अपने आँगन में नाचने गाने लगे हैं। उनकी इस छवि को देखकर माता यशोदा बहुत ही आनन्दित हो रही हैं।
व्याख्या :— सूरदास जी कहते हैं कि हरि ( श्रीकृष्ण) अपने आँगन में ऐसे ही कुछ गा रहे हैं। अपने छोटे-छोटे पैरों से नाच रहे हैं और मन ही मन (गायन एवं नृत्य की मुद्राओं पर) प्रसन्न हो रहे हैं। कभी (नाचते-नाचते) बाँह उठाकर काली और सफेद गायों को नाम से पुकार – पुकारकर अपने पास बुलाते हैं, तो कभी नन्द बाबा को पुकारते हैं और कभी आँगन से घर-भीतर आ जाते हैं।
कभी थोड़ा-सा मक्खन अपने हाथ में लेते हैं तो कभी अपने मुँह में डाल लेते हैं। कभी मणिमय खम्भों में अपना प्रतिबिम्ब देखकर प्रतिबिम्बित बालक को दूसरा बालक समझकर स्वयं लौनी (ताजा मक्खन) खाते हैं तो कभी उस बालक को खिलाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की इस बाल-लीला को माता छिप-छिपकर देखती हैं और मन ही मन हर्षित होती हुई वात्सल्य आनन्द में निमग्न हो जाती हैं।
सूरदास जी कहते हैं बालक कृष्ण के ये बालचरित (लीलाएँ) रोज-रोज देखते हुए भी बहुत अच्छे लगते हैं।
विशेष
1. बालक कृष्ण की लीलाओं का सहज, स्वाभाविक
2. वात्सलय रस का चित्रण है।
3. अनुप्रास, पुनरुक्ति, स्वाभोक्ति अलंकार है ।
4. बिम्बात्मक पद है।
5. भाषा ब्रज है।
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