अंधेर नगरी नाटक के पात्रों की प्रतीकात्मकता का वर्णन? I भारतेंदु । - Rajasthan Result

अंधेर नगरी नाटक के पात्रों की प्रतीकात्मकता का वर्णन? I भारतेंदु ।

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अंधेर नगरी नाटक के पात्रों प्रहसन हिंदी जगत की प्रतीकात्मक कृति है। अंधेर नगरी यद्यपि कल्पित नगर है पर वह यथार्थ में भारत का प्रतीक है जहां अंग्रेजी राज्य के कुशासन के कारण झूठ बोलने वाला तो ऊंचे सिंहासन पर बैठता है परंतु सत्य बोलने वाला दंडित होता है। यहां वेश्या और कुलवधूए एक समान मानी जा रही है|

अंधेर नगरी नाटक के पात्रों

यहां छली लोगों के सामने भले लोगों की एक नहीं चलती नाटककार ने उसको फांसी पर चढ़ा कर अपने आक्रोश को प्रतीक के माध्यम से व्यक्त किया है अंधेर नगरी वस्तुतः प्रतीक है। उस विवेक सुनने एक जनता की शासन व्यवस्था एक मूल्यहीनता का जिसकी पंख में तत्कालीन भारत झगड़ा हुआ था जहां पाप पुण्य, सद – दुराचार और अपराधी निरपराधी को कोई भेद नहीं था।

इस कृति में तत्कालीन जनजीवन की समस्याओं और त्रासदी का रोचक चित्रण किया गया है। कथानक एक राज्य विशेष से लेकर प्रतीकात्मक रंग में रंगा गया है जहां इस प्रहसन के प्रथम अंक में शांत रस का प्रादुर्भाव हुआ है।

वही शांत रस के अन्य अंको में हास्य रस का उद्भव और सतत विकास आकर्षक रूप में सामने आता है। दर्शक इस हास्य व्यंग पूर्ण कृति को पढ़कर कभी मुस्कुराते हैं तो कभी उन्मुक्त हंसी हंसने के लिए विवश हो जाते हैं पूरे प्रहसन में व्यंग की तीखी और मधुर चुभन हृदय को लुभाती रहती है। अंधेर नगरी नाटक के पात्रों अंधेर नगरी नाटक के पात्रों अंधेर नगरी नाटक के पात्रों

अंधेर नगरी में बाह्य प्रांत बाजार जंगल और राज्यसभा से लेकर शमशान के प्रतीकात्मक आभा आधार पर कथानक को आकर्षक बनाने का सफल परीक्षण किया गया है विभिन्न प्रतीकों के आधार पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पूर्ण सफलता से अपना उद्देश्य प्रतिपादित किया है इनके प्रतीकों की विविधता और महत्व को निम्न प्रकार समझा जा सकता है :-

पात्र – प्रतीक

भारतेंदु जी ने अंधेर नगरी प्रहसन को अंग्रेजी रियासत की बर्बरता क्रूरता और कठोरता के प्रति भारतीय जनजीवन को सचेत करते हुए प्रतीकात्मक रूप दिया है। जो भारतेंदु जी की योजना सफल सिद्ध हुई प्रतीकात्मकता की दृष्टि से यह नाटक एवं सर्वश्रेष्ठ मनोहारी और सफल कृति है वास्तव में अंधेर नगरी प्रहसन का उद्देश्य प्रतीकों को आधार मानकर पूर्णता स्पष्ट से प्रतिपादित किया गया है। अंधेर नगरी प्रहसन के समस्त पात्र प्रतीकात्मक रूप में हादसे रस के लिए सुंदर आधार करने के लिए प्रस्तुत हुए हैं पात्र प्रतीक के रूप में राजा महंत और गोवर्धन दास मुख्य हैं जो हमारा मनोरंजन तो करते ही हैं हमें शिक्षा भी देते हैं।

1. राजा ( चौपट ) –

भारतेन्दु द्वारा रचित ‘अन्धेर नगरी’ का मुख्य नायक राजा है जो ‘चौपट’ का प्रतीक है। काव्यशास्त्र के अनुसार प्रहसन का नायक अधम प्रकृति का होना चाहिए। और इस प्रहसन का राजा अधम तो है ही साथ में बुद्धिहीन, चिन्तन हीन, अव्यवहारिक और अकुशल प्रशासक है जिसकी बेतुकी बातें सुन पाठक मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते। लेखक ने राजा के माध्यम से व्यंग्य के कटु बाण छोड़े हैं।

यह प्रशासक ( अंग्रेज़ी प्रशासन) के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया । पूरा समाज ऐसे ही अंग्रेज़ी शासनरूपी राजा के दुष्प्रभाव में दुःखी था। प्रत्येक वस्तु टके सेर बिक रही थी। तत्कालीन रजवाड़ों के शासकों और कुछ हद तक अंग्रेज़ी शासन भी व्याप्त व्यवस्था पर प्रहार करने के लिए प्रतीक के रूप में राजा का चरित्र गढ़ा गया है।

लेखक का उद्देश्य उनके माध्यम से किसी ठोस पात्र की सृष्टि करना नहीं है। राजा का आचरण, अन्य फरियाद सुनने का ढंग, दण्ड- विधान, बार-बार निर्णय बदलना और शक करना इत्यादि प्रहसन के लिए नितान्त आवश्यक है।

2. महन्त ( गुरु ) –

महन्त के रूप को लेखक ने एक विवेक शील, समझदार सन्त का चित्र उकेरा है । वह भीख मांगना अपना धर्म समझता है परन्तु भिक्षा भी इतनी कि ठाकुर जी का भोग लग जाए । इस प्रहसन के पात्र गुरु महन्त अपनी आकर्षक और आदर्श भूमिका में सामने आते हैं। इनका आगमन शान्त और प्रेरक वातावरण से जुड़ा है। महन्त को श्रेष्ठ गुरु पथ प्रदर्शक, संकट निवारक और दिशाबोध कराने वाले श्रेष्ठ पुरुष के प्रतीक रूप में उजागर किया गया है।

इनके उपदेशों को मानने वाला दुःख और मुसीबत से बचकर सुखद स्थिति प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला संकट में घिर जाता है। गुरु महन्त में विश्लेषण की अपूर्व क्षमता है इसीलिए ‘अन्धेर नगरी’ का संकेतात्मक विवेचन किया है। गोबर्धनदास को लोभ देखकर वह कहता है

लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान ।

लोभ कभी नहीं कीजिए या मे नरक समान।

कुछ अन्य पंक्तियां भी महन्त में लोभ के बारे में निम्न प्रकार कही हैं

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास ।

ऐसे देस कुदेस में, कबहु न कीजै बास ॥

कोकिल वायस एक सम, पण्डित मूरख एक।

इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेक ॥

बसिए ऐसे देस नहिं कनक वृष्टि जो होय ।

रहिए तो दुःख पाइए, प्रान दीजिए रोय || 

 

महन्त की कृपा से ही शिष्य गोबर्धनदास फांसी के फन्दे से बच पाता है। भारतेन्दु जी अपनी इस रचना से यह स्पष्ट कर देना चाहते है कि चाहे भारत में कतना ही अत्याचार, अधम, निदर्यता और शोषक वर्ग क्यों न हो परन्तु महन्त जैसे विवेकी सद्पुरुष अभी है जो समाज को नई दिशा प्रदान करते हैं। भारत भूमि पर गुरु महन्त जैसे अनेक ज्ञानी हैं, जो समाज को दिशा और गति प्रदान करते हैं।

3. गोबर्धनदास-

गोबर्धनदास उन लोभ तथा मोहमाया में फंसे साधुओं का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल अपना पेट भरने के लिए भगवा वस्त्र और कमण्डल धारण करते है लेखक ने गोबर्धन के माध्यम से पाखण्डी साधुओं पर एक करारा व्यंग्य किया है। वह आधुनिकता के आकर्षक में रहने की जिज्ञासा के कारण अपने गुरु के आदेश को भी ठकुरा देता है।

अंग्रेजी शासन की अव्यवस्था में वह चारों और देखकर चकित और भ्रमित ही होता है। ऐसे वातावरण में हर व्यक्ति अपनी वस्तु को सर्वश्रेष्ठ कहता है और दूसरे को भ्रमित करता है। व्यंग्य आधार पर घासीराम का चना विक्रय दर्शनीय है।

चना हाकिम सब जो खाते।

सब पर दूना टिकस लगाते ।।

चने जोर गरम-टके सेर।

गोबर्धनदास जन सामान्य का प्रतिनिधित्व करता है । वह नगर की चकाचौंध देखकर एवं भौतिक आकर्षण में बंधकर गुरु से वहां से चलने की बात न मानकर कहता है

“गुरु जी, ऐसा तो संसार भर में काई देश ही नहीं है। दो पैसा पास रहने की से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगरी को छोड़कर नहीं जाऊँगा । और जगह दिन भर भांगों तो भी पेट नहीं भरता। वरन् बाजे दिन उपवास करना पड़ता है। सो मैं तो यहीं रहूँगा।”

4. अन्य पात्र –

‘अन्धेर नगरी’ प्रहसन में अनेक अन्य प्रतीकात्मक पात्रों की भूमिका अदा करते हैं। सभी पात्र अपनी व्यंग्य – प्रधान भूमिका में ‘अन्धेर नगरी’ को यथार्थ रूप प्रस्तुत करते हैं। हलवाई विभिन्न मिठाइयों के साथ टके सेर भाव का उद्घोष करता है, तो मछली वाली सांसारिक आकर्षण का सुन्दर बिम्ब विधान करती है। जात वाला अपनी जात को टके सेर बेच रहा है तो कुजडिन एवं मुगल भी तरह-तरह की वस्तुएं बेच रहे हैं। पाचक वाला चूरन बेचकर अंग्रेजी शासन पर व्यंग्य कर रहा है

चूरन साहेब लोग भी खाता।

सारा हिन्द हजम कर जाता ॥

चूरन पुलिस बाले खाते ।

सब कानून हजम कर जाते ॥

मछली वाली को देखकर लगता है कि यहां तो सौंदर्य भी बिकाऊ है

लाख टका कै वाला जोबन; ग्राहक सब ललचाय।

नैन मछरिया रूप जाल में, देखत ही फंसि जाय।

बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिलै बिना अकुलाय।

बनिया, बाज़ार के विभिन्न सामानों के साथ अपने प्रतीकात्मक आचरण का प्रतिपादन करता है । मन्त्री का स्वरूप उसकी चादुकारिता से जुड़ा हुआ है। कुछ प्यादों का प्रतीक तो नौकरशाही से जुड़ी विषम परिस्थितियों से है।

अंकगत प्रतीक-अक

प्रतीक के रूप में भारतेन्दु जी ने ‘अन्धेर नगरी’ प्रहसन को निम्न भागों में प्रस्तुत किया है।

(क) बाह्य प्रान्त –

इस प्रहसन का प्रथम अंक बाह्य प्रान्त से जुड़ा हुआ है। यह सत्य तथ्य है कि विधि के विधान में प्रकृति का सर्वाधिक मोहक रूप है। जहाँ स्वच्छन्द प्रकृति है, वहाँ सुखद और प्रेरक वातावरण होता है । प्रहसनकार ने इस अंक को प्रेरक, सुखद और अनुकूल वातावरण के रूप में प्रस्तुत किया है जहाँ आध्यात्म चिंतन का सुअवसर मिलता है, वहीं, राम के नाम की महिमा चारों ओर व्याप्त दिखाई देती है।

राम के नाम से काम बनै सब,

राम के भजन बिनु सबहि नसाई ।

राम के नाम से दोनों नयन बिनु

सूरदास भए कविकुल राई। –

इस बाह्य प्रान्त में ‘अन्धेर नगरी’ का विकृत प्रभाव नहीं है। गुरु का जाने पर उपदेश ऐसे ही वातावरण में सुलभ होता है। इसके विपरीत अथवा दूर दुष्परिणाम का संकेत गुरु के द्वारा दिया जाता है—

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।

लोभ कभी नहीं कीजिए, या मैं नरक निदान|

 

( ख ) बाजार –

प्रहसनकार ने बाजार अंक की व्यवस्था प्रतीकात्मक रूप में की है। उन्होंने इस अंक के द्वारा यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि उस राज्य का समाज और उसकी अर्थव्यवस्था सब ध्वस्त हो गई हैं। उत्तम, मध्यम और निम्न सभी को समान रूप में देखा जाता है।

चने से लेकर मिठाई ही नहीं, धर्म और जाति भी टके सिर बिक रही है। यहां टके सेर बिकना भी प्रतीकात्मक चिन्तन है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि मूल्यहीनता इतनी बढ़ गई है कि बहुमूल्य चीजें भी बेकार सिद्ध होने लगी हैं। ऐसी बिक्री कितनी हास्यास्पद है, जहाँ जात और धर्म टके सेर बिके।

‘टके के वास्ते ब्राह्मण से नुसलमान टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान … वेद धर्म कुल-मरजाद। सचाई – बड़ाई सब टके सेर । ‘

इस प्रकार बाजार का अंक ‘टके सेर’ भाव प्रतीकात्मक रूप में ‘अन्धेर नगरी’ की आर्थिक अर्थव्यवस्था का स्पष्ट चित्रण करता है।

( ग ) जंगल –

इस अंक का प्रस्तुतीकरण जनहीन स्थल और चिन्तन स्थल के प्रतीक रूप में ग्रहण किया गया है। ‘अन्धेर नगरी’ के विश्लेषण हेतु इस प्रतीकात्मक अंक की, मध्य में योजना की गई है। गुरु महन्त अपने शिष्य की विकलता और लोलुपता से प्रभावित होकर उसे उपदेश देते हैं

बसिए ऐसे देस नहिं, कनक-वृष्टि जो होय ।

रहिए तो दुख पाइए प्रान दीजिए रोय ||

महन्त की भूमिका इस जंगल को अपने प्रभावशाली रूप में बदल देती है। यही ऐसा अंक है जिसके आधार पर ‘चौपट राजा’ के कुशासन की दुर्गति का ज्ञान कराता है।

(घ) राजसभा –

प्रहसन के स्वरूप के आधार पर ही राजसभा के सुन्दर शासन और श्रेष्ठ व्यवस्था को सर्वाधिक विषम बनाया गया है। यह दृश्य हृदयस्पर्शी है। अव्यवस्था के प्रतीक रूप में, यहाँ का प्रत्येक सदस्य किंकर्त्तव्यविमूढ़ अथवा पराश्रित दिखाई देता है। राजा का विषम चरित्र इसका प्रबल प्रमाण है। उसके सम्वाद की निरर्थक भाषा द्रष्टव्य है

राजा -… क्यों वे बनिये! इसकी लरकी, नहीं बरकी, क्यों दबकर मर गयी? मन्त्री बरकी नहीं महाराज, बकरी ।

यह अंक निश्चय ही अव्यवस्था के आकर्षक व्यंग्य और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर हास्य रस प्रवाहित करने का सफल प्रयास करता है।

(ङ) अरण्य –

इस दृश्य की व्यवस्था पुनः चिन्तन स्थल के रूप में की गई है। यह एक ऐसा वन प्रान्त है, जहाँ शान्त भाव से जीवनयापन सम्भव होता है। दुर्भाग्य है ‘अन्धेर नगरी’ का प्रदूषण इसे भी प्रदूषित कर चुका है। यहाँ चिन्तन और भजन करने वाले गोबर्धनदास ही नहीं, महन्त भी दुःखी हो जाते हैं। बनिए की दीवार गिरती है और बकरी मर जाती है।

सजा किसको दी जाए इस लम्बी प्रक्रिया में बनिया, मिस्त्री, भिश्ती, सिपाही आदि को छोड़ते हुए गोबर्धनदास को पकड़ लिया जाता है। सारा वातावरण आहत है, क्योंकि कहीं भी न्याय नहीं है। प्यादा के शब्दों में- ‘हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी को सजा होनी जरूरी है, नहीं तो न्याव न होगा।’

(च) श्मशान-

इस प्रहसन का अन्तिम अंक ‘श्मशान’ भी प्रतीक योजना पर आधारित है। इस शीर्षक को पढ़ते ही यह ज्ञान हो जाता है कि विपरीत और अधम प्रकृति का व्यक्ति दुर्गति के साथ जीता हुआ अन्त में दर्द भरी मौत प्राप्त करता है। ‘चौपट राजा’ की ऐसी ही स्थिति हुई है। यह चित्रण अंग्रेज़ी शासक के प्रतीकरूप में अत्यन्त मनोहारी ढंग से किया गया है।

जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज ।

ते ऐसाहि आपहिं नसै जैसे चौपट राज ॥

 

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