कृष्ण का चरित्र-चित्रण | अंधा युग | डॉ धर्मवीर भारती | - Rajasthan Result

कृष्ण का चरित्र-चित्रण | अंधा युग | डॉ धर्मवीर भारती |

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कृष्ण का चरित्र-चित्रण :- कृष्ण का चरित्र युग – युगो से भारतीय संस्कृति और जनचेतना को आप्लावित करता आ रहा है। पौराणिक काल से ही कृष्ण भारतीय जनमानस को प्रेरित करते आ रहे हैं इसलिए इनके अनेक रूपों का चित्रण भारतीय साहित्य में हुआ है।

कृष्ण का चरित्र-चित्रण

इनके रसिक रूप को यदि छोड़ दिया जाए तो तीन महत्वपूर्ण रूपों में श्रीकृष्ण हमारे सामने आते हैं और वह रूप हैं भगवान राजनीतिक और योगीराज। वैष्णव भक्ति के अंतर्गत इन का चित्रण ईश्वर रूप में हुआ है और इनका यह रूप भारतीय जनमानस को इतना भाव विह्वल करता रहा है किस देश में चलने वाले सभी धार्मिक आंदोलनों में कृष्ण भक्ति शाखा सर्वाधिक विस्तृत और संगठित रही है।

योगीराज रूप में इनके चरित का विशुद्ध चित्रण अत्यंत हुआ है किंतु एक प्रखर राजनीतिक के रूप में महाभारत में सर्वप्रथम उनके दर्शन होते हैं और उसके बाद अन्य अनेक रचनाओं में उनका यह रूप देखा जा सकता है। महाभारत में तो युग की समस्त राजनीति के नियंता के रूप में ही उनका प्रादुर्भाव होता है और एक विलक्षण राजनीति के रूप में उनके हाथ में दिखाई देती है। महाभारत युद्ध के संचालक स्वयं भगवान कृष्ण थे और इसलिए उन्हें महाभारत का अस्त्र विहीन संचालक माना जाता है।

पहले तो महाभारत के युद्ध को रोकने के लिए श्री कृष्ण पांडवों के दूत रूप में दुर्योधन के पास गए और उनसे शांति वार्ता करना चाहि किंतु दुर्योधन की मदान्धता से निराश होकर उन्होंने पांडवों को युद्ध करने के लिए उकसाया और उन्हें विजय दिलाने के लिए अपनी समस्त कूटनीति का प्रयोग किया। युद्ध के प्रारंभ में ही अर्जुन के युद्ध विरत हो जाने पर उन्होंने उसे कर्म योग का उपदेश दिया और युद्ध में मैं ही मारूंगा बार-बार कहकर अर्जुन को प्रेरित किया। कृष्ण का चरित्र-चित्रण कृष्ण का चरित्र-चित्रण

इतने पर भी पूर्ण विश्वास न होने के कारण वह अर्जुन को बहका कर संसप्त कों मारने के नाम पर कहीं दूर ले गए ताकि कौरव उनके पुत्र अभिमन्यु की हत्या कर सके और इस प्रकार अर्जुन पूर्णता युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाए यही हुआ और अर्जुन की प्रतिशोधाग्नि ने महाभारत जैसा युद्ध भारत को दिया। कृष्ण की कूटनीति से ही भीम द्रोण कर्ण और दुर्योधन जैसे अपराजेय वीर भूलुंठित हो गए तथा विजय श्री पांडवों को मिली। कृष्ण का चरित्र-चित्रण कृष्ण का चरित्र-चित्रण

अंधा युग गीतिनाट्य में भी सर्वाधिक प्रविष्णु चरित्र कृष्ण का ही है और यह चरित्र राजनीतिक एवं भगवान दोनों ही रूपों में उजागर हुआ है। यद्यपि इस नाटक के अधिकांश पात्र उन्हें अन्याय प्रभुता का दुरुपयोग करने वाला, शत्रु और कूट बुद्धि ही कहते हैं किंतु उनके चरित्र से यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रखर राजनीतिक , अमित शौर्यवान , कर्ममार्ग के प्रेरणा प्रेरक, दयालु , मर्यादा और मानव भविष्य के रक्षक, क्षमावान, शत्रु को भी अपना समझने वाले प्रभा मंडित किंतु शांत व्यक्तित्व संपन्न हैं। गांधारी को तो प्रारंभ में ही उनकी प्रभुता पर संदेह हो जाता है और वह विदुर को प्रताड़ित करती हुई अत्यंत विक्षुब्ध स्वर में उठती है :-

इसमें संदेह है और किसी को मत

अर्पित कर दो मुझको मनोबुद्धि उसने कहा है यह

जिसने पितामह के बाणों से आहत हो

अपनी सारी ही मनोबुद्धि खो दी थी

उसने कहा है यह जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार|

इस प्रकार गांधारी उन्हें मर्यादा को तोड़ने वाला सबसे बड़ा मर्यादाहीन व्यक्ति मानती है । और दूसरी ओर स्वयं उनके भाई बलराम भी उन्हें कूटबुद्धि और मर्यादाहीन मानते हैं

जानता हूँ मैं तुमको शैशव से

रहे हो सदा से ही मर्यादाहीन कूटबुद्धि

बलराम कृष्ण को कूटबुद्धि इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हीं के संकेत पर भीम ने दुर्योधन पर अधर्म वार किया था और दुर्योधन मारा गया था। कृष्ण की इसी दुर्नीतियुक्त प्रेरणा से गांधारी और अश्वत्थामा भी उन्हीं अन्यायी कहते हैं, जब गांधारी यह कहती है कि :-

अन्यायी कृष्ण इसके बाद अश्वत्थामा को

जीवित नहीं छोड़ेंगे

और अश्वत्थामा भी यही कहता है कि मुझे अकेला जानकर कृष्ण पाण्डवों के साथ मिलकर मुझे मार डालना चाहते हैं-

मैं था अकेला और अन्यायी कृष्ण पाण्डवों के सहित

मेरा वध करने को आतुर थे।

प्रायः सभी कौरव पक्षी यही मानते हैं कि यदि कृष्ण की इच्छा न होती तो महाभारत युद्ध को रोका जा सकता था। किन्तु कृष्ण ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने अपनी चतुराई से अपराजेय कौरवों को पराजित कर दिया क्योंकि उन्होंने अवध्य शिखण्डी के द्वारा भीष्म को मरवाया युधिष्ठिर से झूठ बुलवा कर गुरु द्रोण को अस्त्रहीन करवा दिया और धृष्टद्युम्न ने उनकी हत्या कर दी कर्ण को भी तब मरवाया जब वह निहत्था होकर अपने रथ के धसे पहिये को ठीक कर रहा था |

तथा दुर्योधन के उस स्थान पर भीम द्वारा आक्रमण कराया जो उचित न था. इससे दुर्योधन भी मृत्युगामी हो गया। इसीलिए गांधारी कहती है कि धर्म नीति या मर्यादा ये सब दिखाने की वस्तुएं हैं, निर्माण के क्षण में इनका कोई महत्व नहीं रहता

मैंने यह बाहर का वस्तु-जगत अच्छी तरह जाना था

धर्म, नीति मर्यादा, यह सब हैं केवल आडम्बर मात्र,

मैंने यह बार-बार देखा था।

गांधारी को जब यह ज्ञात होता है कि कृष्ण ने अश्वत्थामा को भ्रूण हत्या का शाप दे दिया है और कोढ फूट आने के कारण अश्वत्थामा का शरीर अत्यन्त विकृत और घृणास्पद हो गया

है, तब वह अत्यधिक खिन्न हो उठती है और उसे लगता है कि इस सारे विनाश की जड़ कृष्ण हैं। वह क्रोधावेश में उन्हें शाप दे बैठती है

प्रभु हो या परात्पर हो कुछ भी हो

सारा तुम्हारा वंश

इसी तरह पागल कुत्तों की तरह

एक-दूसरे को परस्पर फाड़ खायेगा

तुम खुद उनका विनाश करके कई वर्षों बाद

किसी घने जंगल में

साधारण व्याध के हाथों मारे जाओगे

प्रभु हो

पर मारे जाओगे पशुओं की तरह।

के बाद भी गांधारी को लगता है कि कृष्ण ने अपनी प्रभुता का दुरुपयोग किया है। किन्तु इन आरोपों कृष्ण के उदात्त चरित्र में कोई कमी नहीं आई है। गांधारी के शाप को अपनी महानता के कारण कृष्ण स्वीकार कर लेते हैं तो वहां पर एक तो उनके भगवान होने का पूर्ण परिचय मिल जाता है और दूसरे उनमें स्थित गाम्भीर्य तथा धैर्य के भी दर्शन हो जाते हैं। गांधारी का शाप सुनकर वह केवल इतना ही कहते हैं-

 

प्रभु हूँ या परात्पर

पर पुत्र हूँ तुम्हारा

तुम माता हो ।

इसके साथ ही वह अपने कर्ता और फल-भोक्ता होने की बात कहकर भी अपने ईश्वरत्व को प्रकट कर देते हैं-

सारे तुम्हारे कर्मों का पाप-पुण्य, योग क्षेम में

वहन करूँगा अपने कंधों पर

अठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में

कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूं करोड़ों बार ।

जीवन मैं हूँ

तो मृत्यु भी तो मैं ही हूँ माँ ।

कृष्ण के इसी उदार और ममत्व भरे चरित्र के कारण गांधारी उनके प्रति कटु होती हुई भी अपने शाप के प्रति स्वयं रो पडती है, उनके प्रति अपनी अगाध ममता का प्रदर्शन करती हुई वह व्यथित स्वर में कहती है

कोई नहीं मैं अपने

सौ पुत्रों के लिए

लेकिन कृष्ण तुम पर

मेरी ममता अगाध है

कर देते शाप यह मेरा तुम अस्वीकार

तो क्या मुझे दुख होता ।

 

श्रीकृष्ण को इस कृति में सर्वत्र मर्यादा के रक्षक रूप में दिखाया गया है। नाटककार नाटक के प्रारम्भ में ही जो उद्घोषणा करता है, उसमें वह स्पष्ट कह देता है कि एक पतली डोरी मर्यादा की शेष रह गयी है और वह भी कौरव-पाण्डव दोनों पक्षों में उलझी हुई है। केवल कृष्ण में ही उसे सुलझाने की क्षमता और साहस है। वृद्ध याचक की प्रेतात्मा के इस कथन में भी उनकी मर्यादा की शक्तिमत्ता का वर्णन किया गया है-

नहीं, उनमें सारे समय के प्रवाह की मर्यादा बँध जाती है बाँध नहीं सकता हूँ उसको मैं।

 

कृष्ण के चरित्र में दयालुता का भी अजल स्रोत मिलता है। वह पूर्ण क्षमाशील है। गांधारी जब कृष्ण को वंचक कहकर पुकारती है तो विदुर कृष्ण की अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं कि गांधारी पुत्रशोक से जर्जर है इसलिए उसकी उद्धत अनास्था को वह क्षमा कर दें। जब आस्था को उन्होंने अपने चरणों में स्थान दिया है तो फिर अनास्था को कौन देगा?

इसी प्रकार जब अश्वत्थामा क्रोधावेश में अपने ब्रह्मास्त्र को उत्तरा के गर्भ पर फेंक देता है तो कृष्ण उसकी हत्या नहीं करते वरन् उसे शाप देकर और मणि लेकर क्षमा कर देते हैं। इसी प्रकार जिस वृद्ध याचक की हत्या अश्वत्थामा ने की थी उसे भी यह कहकर वह मुक्ति प्रदान कर देते हैं

अश्वत्थामा ने किया था तुम्हारा वध

उसका था पाप, दण्ड मैं लूंगा

मेरा मरण तुमको मुक्त करेगा प्रेतकारा से।

 

मर्यादा के रक्षक होने के साथ ही वह मानव-भविष्य के रक्षक भी हैं इसीलिए अश्वत्थामा द्वारा उत्तरा के गर्भ पर फेंके गये ब्रह्मास्त्र की चिन्ता से पाण्डवों को मुक्त कराते हुए कहते हैं

बोले वे

यदि यह ब्रह्मास्त्र गिरता है तो गिरे

लेकिन जो मुर्दा शिशु होगा उत्पन्न

उसे जीवित करूंगा मैं देकर अपना जीवन ।

और अन्त में व्याध के वाण लगने के उपरान्त वह मानवता के समक्ष अपना यह संदेश देकर जाते हैं कि संसार का कल्याण और मानव भविष्य की सुरक्षा किस प्रकार हो सकती है

सबका दायित्व लिया मैंने अपने ऊपर

अपना दायित्व सौंप जाता हूँ मैं सबको

मेरा दायित्व वह स्थित रहेगा

हर मानव-मन के उस वृत्त में

जिसके सहारे वह

सभी परिस्थितियों का अतिक्रण करते हुए

नूतन निर्माण करेगा पिछले ध्वंसों पर ।

गर्यादायुक्त आचरण में

नित नूतन सृजन में निर्भयता के

साहस के

ममता के

रस के

क्षण में

जीवित और सक्रिय हो उहूँगा मैं बार-बार

 

अन्ततः ‘अन्धा युग’ में चित्रित कृष्ण के चरित्र के उपर्युक्त विवेचन के उपरांत हम यही कह सकते हैं कि उनका चित्रण आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हुआ हैं। वह ईश्वर या परात्पर चाहे हों या नहीं, एक सफल नीतिज्ञ और युग पुरुष अवश्य हैं जो इतिहास की गति को बदल देने में समर्थ हैं, जैसे कि वृद्ध याचक ने धृतराष्ट्र के समक्ष स्वयं कहा है-

पता नहीं

प्रभु या नहीं

किन्तु, उस दिन यह सिद्ध हुआ

जब कोई भी मनुष्य

अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,

उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।

 

और यह अनासक्त पुरुष कृष्ण ही थे जिन्होंने भविष्यवक्ता की भविष्यवाणी को भी झुठला दिया और इतिहास को चुनौती देकर नक्षत्रों की दिशा ही बदल दी थी |

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