गीतिकाव्य का उद्भव और विकास |

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गीतिकाव्य का उद्भव और विकास :— संस्कृत साहित्य में प्रथम ग्रन्थ के रूप में वेद को गौरव प्राप्त है। इसमें दो प्रकार की बातें भाव प्रकाशन तथा विचार प्रकाशन उपस्थित हैं । वेद का विचार प्रकाशन मुख्य कार्य है तथा भाव प्रकाशन गौण है। यह उस समय के वाणी की स्थिति थी जब मानव आचार्य, गुरू अथवा ऋषि पद पर प्रतिष्ठित होता है। वह कभी-कभी परम शक्ति से निवेदन करता है तो कभी-कभी शिष्य मण्डली को उपदेश देता है। गीतिकाव्य का उद्भव गीतिकाव्य का उद्भव

ऋग्वेद में काव्य तत्त्व का प्रकाशन प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। इसमें गीतिकाव्य के सुन्दर उदाहरण प्राप्त होते हैं। रामायण एक प्रबन्ध काव्य है फिर भी वाल्मीकि ने अनेक स्थलों पर गीतिकाव्य के तत्त्वों का प्रयोग किया है। गीतिकाव्य की विकास परम्परा में महाभारत का भी अप्रत्यक्ष रूप से योगदान अवश्य है। वाल्मीकि ने अपने मनोभाव को प्रकट करने के लिए काव्य की जिस प्रवृत्ति का प्रारम्भ किया वह महाभारत में भी स्पष्ट रूप से लक्षित होता रहा है।

महाभारत के स्वयंवर अवसर में, नल उपाख्यान में द्रुपद की मनोदशा तथा पाण्डवों के वन गमन काल में करुण क्रन्दन आदि अनेक स्थलों में गीतिकाव्य के लक्षण घटित होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे आर्ष काव्यों में भी अनुभूत भावों को गीति के रूप में प्रकट किया गया है। महाकाव्य में गाम्भीर्य, प्रशस्तता तथा उदात्तता गुण अपेक्षित होता है किन्तु इसके विपरीत गीतिकाव्य में माधुर्य, मृदुता तथा आन्तरिक वेग आदि गुण मुख्य होते हैं।

व्याकरणशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य पाणिनि के ‘पातालविजय’ काव्य में भी गीतिकाव्य के उदाहरण प्राप्त होते हैं । महाकवि कालिदास की रचनाओं में गीतितत्व विकसित रूप में प्रकट हुआ है। कालिदास के नाम से संस्कृत साहित्य में अनेक रचनाएँ प्राप्त होती हैं परन्तु उनमें दो गीतिकाव्य के रूप में सुप्रतिष्ठित हैं- मेघदूत तथा ऋतुसंहार मेघदूत के दो भाग पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ प्राप्त होते हैं। इसमें नायक यक्ष अपनी प्रेयसी के पास सन्देश प्रेषण के लिए दूत के रूप में मेघ का चयन करता है ।

धूमज्ज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः 

सन्देशार्था क्व पटुकरणै: प्राणिभिः प्रापणीया ।

इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे 

कामार्ता हि प्रकृतिकृपणास्चेतनाचेतनेषु ।।

( पूर्वमेघ 5 )

 

पूर्वमेघ में प्रकृति के अनेक मनोहर चित्र प्रस्तुत हैं । कालिदास का प्रकृति चेतना में विश्वास है जिसको मेघदूत में उन्होंने हर जगह प्रदर्शित किया है । ऋतुसंहार की भी गणना खण्ड अथवा गीतिकाव्य में की जाती है। इसी क्रम में जयदेव का गीतगोविन्द, भर्तृहरि का शतकत्रय, अमरुक कवि का अमरुकशतक, गोवर्धनाचार्य कृत आर्यासप्तशती, पण्डितराज जगन्नाथ का विलासकाव्य, गंगालहरी आदि गीतिकाव्य प्रसिद्ध हैं।

खण्डकाव्य (गीतिकाव्य) का स्वरूप गीतिकाव्य का उद्भव

खण्डकाव्य के स्वरूप की चर्चा केवल कविराज विश्वनाथ ने की है जैसा कि षष्ठ परिच्छेद में यह लक्षण प्रदर्शित किया है- “खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि अथार्त काव्य के एक देश का अनुसरण जो करे इस प्रकार का काव्य खण्डकाव्य कहलाता है। विश्वनाथ ने उदाहरण के रूप में मेघदूत को प्रस्तुत किया है। खण्डकाव्य काव्यशास्त्र के अनुसार प्रबन्ध काव्य का एक रूप है। जीवन की किसी घटना विशेष को लेकर लिखा गया काव्य खण्डकाव्य है। “खण्डकाव्य” शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसमें मानव जीवन की किसी एक ही घटना की प्रधानता रहती है।

कवि जीवन की किसी सर्वोत्कृष्ट घटना से प्रभावित होकर जीवन के उस खण्ड विशेष का अपने काव्य में पूर्णतया उद्घाटन करता है। प्रबन्धात्मकता महाकाव्य एवं खण्डकाव्य दोनों में ही रहती है परन्तु खण्डकाव्य के कथासूत्र में जीवन की अनेकरूपता नहीं होती है इसलिए इसका कथानक कहानी की भाँति शीघ्रतापूर्वक अन्त की ओर जाता है। महाकाव्य में प्रमुख कथा के साथ अन्य अनेक प्रासंगिक कथायें भी जुड़ी रहती हैं। खण्डकाव्य में केवल एक प्रमुख कथा रहती है, प्रासंगिक कथाओं को इसमें स्थान नहीं मिलने पाता है। खण्डकाव्य के सन्दर्भ में भारतीय विद्वानों ने भी अपने मत प्रस्तुत किए हैं

जिनमें श्यामसुन्दरदास महोदय ने कहा है कि “गीतिकाव्य में कवि अपने अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाता है तथा बाह्य जगत् को अपने अन्तःकरण में ग्रहण करके उनके स्वभाव को प्रदर्शित करके सभी को रंजित करता है । गीतिकाव्य में कवि अपनी अनुभूतियों को लघु-लघु गेय पदों के द्वारा प्रस्तुत करते हैं।” रवीन्द्र ठाकुर का गीतिकाव्य के स्वरूप के विषय में विचार है“यह बाह्य जगत् हमारी चेतना रूपी जगत् में जब प्रविष्ट होता है, उस अवस्था में कवि भिन्न ही होता है।

जबकि उसका रूप वर्ण ध्वनि आदि कुछ भी परिवर्तित नहीं होता है फिर भी अपनी संवेदना, भय, हर्ष, विस्मय और विभिन्न भावनाओं के माध्यम से सहृदयों को रंजित कर देता है। इन सभी विवरणों से यह ज्ञात होता है कि गीतिकाव्य में ये प्रमुख तत्त्व हैं

1. गीतिकाव्य में संगीतात्मकता होती है ।

2. गीतिकाव्य में पूर्व अथवा पर के सम्बन्ध की हीनता अथवा निरपेक्षता होती है।

3. गीतिकाव्य में रसात्मकता अथवा रंजकता

4. गीतिकाव्य में भाव का अतिरेक अथवा रागात्मक

5. गीतिकाव्य में भाव की सान्द्रता तथा चित्रात्मक मार्मिकता का प्रयोग होता है।

6. गीतिकाव्य में सरल एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है।

7. गीतिकाव्य में संक्षिप्तता एवं सहज अन्तःप्रेरणा का प्रयोग होता है।

8. गीतिकाव्य में आत्मनिष्ठता अथवा अन्तर्वृत्त की प्रधानता होती है ।

खण्डकाव्य (गीतिकाव्य) की विशेषतायें

संस्कृत काव्यशास्त्र में खण्डकाव्य को सामान्य रूप से ही स्वीकृत किया गया है। संस्कृत गीतिकाव्य में शृंगार का वर्णन, नीति, वैराग्य तथा प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन उपलब्ध होता है। कोमल भावों का माधुर्य प्रत्येक रसिक सहृदय को अपनी ओर खींचता है। इसी कारण से संस्कृत गीतिकाव्य का बाह्यरूप जिस प्रकार से सुन्दर प्रतीत होता है उसी प्रकार से अन्तःतत्त्व भी रसपेशल होता है । गीतिकाव्य में रस की प्रतीति एवं काव्यात्मक अनुभूति के स्थिरीकरण में छन्द का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है |

गीतिकाव्य में छन्द माधुर्य के साथ सौन्दर्य का भी अनुपम चित्रण प्राप्त होता है। इसमें प्रेम की उदात्तता एवं विशुद्धता भी गुम्फित होती है। प्रेम सन्देश के लिए यह अपूर्व प्रकार है। संस्कृत गीतिकाव्य में पूर्ण सामजंस्य की अनुभूति प्राप्त होती है। मार्मिक अनुभूति के समावेश के कारण संस्कृत गीतिकाव्य में सौन्दर्य की पराकाष्ठा प्राप्त होती है।

खण्डकाव्य में सौन्दर्य के वर्णन के साथ – साथ नीति तथा शिवतत्त्व की भी पर्याप्त चर्चा की गयी है। संस्कृत गीतिकाव्य में प्रकृति वर्णन एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है जिससे प्रकृति से परिचित पात्रों के मध्य में रागात्मक एकता का अद्भुत सामंजस्य अनायास ही घटित हो जाता है। सौन्दर्य बोध केसाथ आनन्द और उल्लास स्वाभाविक रूप से सर्वत्र प्रसिद्ध है।

यह भी पढ़े :—

  1. विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए |
  2. विद्यापति के काव्यगत विशेषता का मूल्यांकन करें |
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  4. विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए |
  5. गीतिकाव्य की दृष्टि से विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए |
  6. विद्यापति की कविता में प्रेम और श्रृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए |

 

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