चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य | गुरु गोविंद सिंह | - Rajasthan Result

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य | गुरु गोविंद सिंह |

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चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य :— धर्म-युद्ध का आह्वान कोई भी कवि देश-काल निरपेक्ष होकर रचना नहीं करता। एक ओर उसका सृजन-सूत्र, किसी-न-किसी रूप में, अतीत से जडा होता है और दूसरी ओर वह. प्रत्यक्ष या परोक्षतः उस वर्तमान से, जिसमें वह जीता है, करता है। अतीत को वर्तमान में प्रतिफलित तथा वर्तमान को अतीत से संगुफित करना ही उसकी किसी भी साहित्यिक रचना कर मूल प्रतिपाद्य होता है।

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य

अपने सम्मुख उपस्थित पाठक अथवा श्रोता-वर्ग को निजी अनुभव-ज्योति से आलोकित करने के लिए, उसे दीप-पात्र तो वर्तमान की मिट्टी से गढ़ना होता है, परंतु उसमें स्नेह-सिंचन का कार्य वह अतीत के अजम्न स्रोत से करता है तथा उसकी अपनी भाषा-शैली की वर्तिका वर्तमान के दीपक तथा अतीत के स्नेह का सम्बन्ध-सूत्र बन कर कथ्य या प्रतिपाद्य के आलोक को प्रसारित करती है। ‘चंडी चरित्र उक्ति-विलास’ के रचना-काल में अतीत की गहन गुफाओं से निःसृत संस्कृति-धारा को शब्दों के भगीरथ प्रयत्न से निकाल कर वर्तमान की लोक भूमि पर लाने की विशेष आवश्यकता थी।

इसके लिए ‘चंडी-चरित्र’ के रचनाकार को न केवल प्राचीन पौराणिक आख्यान को पूर्वपीठिका के रूप में ग्रहण करना पड़ा, अपितु, स्वयं अपने लौकिक व्यक्तित्व को भी दिव्य पुरातन परंपरा से एकाकार करना पड़ा। समकालीन समाज पर नृशंस अत्याचार और सहज लोक धर्म के उपादानों पर अकारण कठोर प्रहार करने वाली शक्तियों के विरुद्ध ‘धर्म-युद्ध’ का आह्वान किसी सामान्य राज्य प्रतिष्ठा के आकांक्षी अथवा दरबारी शोभा के पिपासु कवि के रूप में कदापि संभव नहीं था।

इसके लिए रचनाकार का स्वयं को उस उच्च धरातल तक ले जाना आवश्यक था जहाँ से सामान्य लोक-मानस को आशा-विश्वास और आत्मबोध की प्रेरणा मिल सके। इसीलिए गुरु गोविंद सिंह ने स्वयं को उस महाकाल की संतान घोषित किया जो अनादि-अनन्त और सर्वशक्तिमान है। उल्लेखनीय है कि ‘महाकाल’ या ‘अकाल पुरुष’ की परिकल्पना अरूप होने के कारण, गुरु गोविंद सिंह ने जन-सामान्य के लिए उसके स्वरूप को समझ पाना कठिन जानकर है।

उसकी अजेय-अपार शक्ति को ‘कालिका‘ के साकार स्वरूप में रूपांतरित कर, उसे अपनी ‘माता’ बताया सर्वकाल है पिता हमारा,देबि कालका मात हमारी (बचित्र नाटक) आत्मकथा के रूप में रचित ‘बचित्र नाटक’ में उन्होंने उस ‘सप्तसिंधु’ को अपनी तपोभूमि बताया है, जहाँ उनके पूर्वजों ने साधना की थी

सपत सिंघ तिहि नाम कहावा 

पंडराज जहँ जोग कमावा।। 

तहँ हम अधिक तपसिआ साधी। 

महाकाल कालका अराधी।

ऐसे घोर तप का कारण? आखिर कवि ‘महाकाल’ और ‘कालका’ की आराधना में किस उपलब्धि-हेतु प्रवृत्त हुआ? उसे न मुक्ति की चाह न भुक्ति की। उसकी केवल एक ही कामना है, वह यह कि उसे धर्म-विस्तार तथा दुष्ट-संहार का सामर्थ्य प्राप्त हो

हम इह काज जगत मो आए। धरम हेत गुरुदेव पउए।।

जहाँ तहाँ तुम धरम बिथारो। दुस्ट दोखियन पकरि पछारो।। 

याही काज धरा हम जनमं। समझ लेह साधु सभ मनम।।

धरम चलावन संत उबारन। दुस्ट सबन को मूल उपारन।।

स्वयं को निस्सहाय और निर्बल समझने वाली समकालीन जनता को यह विश्वास दिलाना आवश्यक था कि दुष्टों को समूल नष्ट किये बिना धर्म-रक्षा और लोक-हित संभव नहीं। उदाहरणतः जन-सामान्य भागवत कथा से भलीभाँति परिचित थे-परंतु उसके माध्यम से वे अधिकतर कृष्ण की बाल-लीलाओं और मधुर क्रीड़ाओं का ही रसास्वादन करते थे। गुरु गोविंद सिंह ने उसी भागवत को ‘भाषा’ (लोक भाषा हिन्दी) में रूपांतरित करते हुए उसको ‘धर्मयुद्ध’ बतलाया

दसम कथा भागौत की, भाषा करी बनाइ। 

अउर वासना कछु नहीं, धरम जुद्ध के चाइ।। (कृष्णावतार)

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

गुरु गोविंद सिंह – रचित ‘चंडी चरित्र उक्तिविलास’ का भी यही प्रतिपाध है अर्थात लोक-मानस में धर्मयुद्ध की चाह का संचार उत्पाती असुरों के अनीतिपूर्ण कृत्यों से दु:खी देवताओं का ब्रह्मा जी के नेतृत्व में देवी की शरण में जाकर, स्वरक्षा की याचना करना इस तथ्य का द्योतक है कि अनीतिजन्य उत्पातों का अन्त ‘शक्ति’ द्वारा ही हो सकता है। गुरु गोविंद सिंह ने ‘चंडी’ द्वारा उन अनीतिकारी असुरों के विरुद्ध धर्मयुद्ध करने और उनपर विजय पाने में पाठकों के सम्मुख वही मूल प्रेरणा रखी है।

समय कोई भी हो, युग किसी का भी हो, अनीति की हत्या अनिवार्य है, अनैतिकता और उत्पात के प्रति यदि भला व्यक्ति हथियार नहीं उठाएगा तो वह स्वयं तो मष्ट होगा ही, भविष्य में नैतिक जीवन-मूल्यों के हनन का अपराधी भी होगा। इसी उद्देश्य से गुरु गोविंद सिंह ने ‘चंडी-चरित्र’ लिखा और इसके मिस अपने अनुयायियों को उत्पाती और अत्याचारी अधर्मियों के विरुद्ध तलवार उठाने को प्रोत्साहित किया। (द्रष्टण्य : डॉ० मनमोहन सहगल, मध्यकालीन हिन्दी साहित्य, पृष्ठ-90)

अपने समय ही अनीतिपूर्ण परिस्थितियों को बदलने के लिए गुरु गोविंद सिंह ने जो प्रण धारण किया था, वही प्रण ‘चंडी-चरित्र’ में दुर्गा के माध्यम से रूपायित हुआ है

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

कान सुनी धुनि देवन की, सब दानव मारन को प्रन कीनौ।

ह्वै कै प्रतन्छ महा वर चंडि सुक्रुद्ध ह्वै जुद्ध विषै मन दीनौ।। (चंडी चरित्र-74)

गुरु गोविन्द सिंह इस तथ्य से भलीभाँति अवगत थे कि अनीति और दुष्टता के बीज बहुत जल्दी फैलते और पनपते हैं अतः उनका समूल नाश आवश्यक है। ‘चंडी चरित्र’ में कालिका यही करती है। देवगण देवी-स्तुति करते हुए ठीक ही कहते हैं

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

मिलि कै सु देवन बड़ाई करि कालका की, 

ए हो जगमात तैं तो काट्यो बड़ो पाप है। 

दैतन को मार राज दीनों तें सुरेस हूँ को, 

बड़ो जस लीनो जग तेरो ही प्रताप है।। (चंडी चरित्र – 22)

लोक-चेतना का जागरण- ‘चंडी-चरित्र उक्ति विलास’ के प्रतिपाद्य के रूप में, समकालीन लोक जागरण को केंद्रस्थ मानना कोई आरोपित अवधारणा अथवा कल्पित ‘थीसिस’ नहीं। रचना के अन्त में, कवि ने देवों और देव-स्त्रियों द्वारा देवी की स्तुति कराने के उपरान्त, अपने लिए जो वरदान मांगा है, वह रचना के प्रतिपाद्य को भलीभाँति स्पष्ट कर देता है

वर देहि सिवा नित मोहि इहै, सुभ कर्मन ते कबहूँ न टरौं। 

न डरौं अरि सौं जब जाइ लरौं, निसवै करि आवनि जीत करौं।। 

अरु सिखहाँ आपने ही मन कौं, इहि लालच हौं गुन तो उचरौं। 

जब आव की अउध निदान बनै अत ही रन मैं तब जूझ म ।।(चंडी चरित्र-231)

[ हे रुद्रानी! पार्वती! हे शक्ति भवानी! मुझे सदा यही वर दीजिए कि मैं शुभ कर्मों, सत्कार्यों का निर्वाह करते समय कभी किसी से न डरूँ, किसी से संकोच न करूँ! सदुद्देश्य के लिए जब मुझे वैरियों से युद्ध करना पड़े तो मैं डरूँ नहीं, अडिग और अटल रह कर, निश्चयपूर्वक विजय प्राप्त करूँ! मैं तो अपने मन को सदा यही शिक्षा (सीख) देता हूँ और इसी कामना से तुम्हारा गुणगान करता हूँ कि, अंत में, जब मेरी आयु-सीमा समाप्त होने को आए, जीवन की अवधि पूर्ण होने का समय आ जाए तो रण में पूरी तत्परता से जूझते हुए ही मेरी मृत्यु हो ]

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

सम्पूर्ण जीवन-साधना और भक्ति-उपासना के प्रतिफल-स्वरूप केवल यही चाहना कि ‘कभी सत्कर्मों से विरति न हो और जीवन का अन्त जब हो तो युद्ध में जूझते हुए’ यही गुरु गोविंदसिंह के युग के हर सच्चे भारतीय की कामना बन जाय, ‘चंडीचरित्र’ का हर पाठक और श्रोता ऐसा सत्संकल्प मन में रखे-यही इस रचना का वास्तविक प्रतिपाद्य है।

कथ्य चंडी चरित्र का यह प्रतिपाद्य अथवा मात्र सैद्धान्तिक, औपचारिक अथवा ‘पर-उपदेश-कौशल’ का परिचायक नहीं, वरन् व्यावहारिक अनुभव-गम्य और रचनात्मक है। यह काव्यकृति वास्तव में एक ‘विजयगीति‘ है जो पाठकों में उत्कट संघर्ष के लिए अनायास उत्साह का संचार कर देती है

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

देहिं असीस सबै सुरनारि सु धारि कै आरती दीप जगायौ।

फूल सुगंध सु अच्छत दच्छन अच्छन जीत को गीत सुनायौ।।

धूप जागाइ कै संख बजाइ कै सीस नवाइ कै बैन सुनायौ।

जै जगमाइ सदा सुखदाइ तैं सुभ को घाइ बड़ौ जस पायौ।

लोक अनिष्टकारी दुर्दभ शक्तियों का विनाश करने वाले का यश-गान सारा जगत करता है-यह संदेश देने के लिए ही ‘चंडी चरित्र’ की रचना हुई। यश-प्राप्ति का मूल आधार राज्य-सत्ता, अपार न-वैभव अथवा मात्र वंशगत बड़प्पन नहीं, उसकी एक ही कसौटी है-शिवेतर की क्षति, अर्थात् संसार में जो भी अशिव है, अशुभ है, अनीतिकर है-उसका शमन तथा शिव, शुभ एवं मंगल का वरण। यह कार्य सरल नहीं। कहने या काव्य-गान मात्र से अशिव की क्षति संभव नहीं।

इसके लिए चाहिए सतत संघर्ष, अविराम युद्ध और संघर्ष अथवा युद्ध के लिए अपेक्षित अदम्य आन्तरिक उत्साह! ‘चंडी-चरित्र उक्ति विलास’ लोक-चेतना में शिव के संरक्षण और अशिव के खंडन-हेतु इसी उत्साह-संचार का एक बृहत् काव्यमय प्रकल्प है। इसमें सर्वाधिक महत्व युद्ध-वर्णन को दिया गया है।

देवी और दैत्यों के मध्य चलने वाले युद्ध के पैंतरों, परस्पर प्रखर प्रहार, व्यूह रचना, सैन्य-संचालन एवं शस्त्र-परिचालन आदि का जैसा जीवंत बिंबांकन इस काव्यकृति में हुआ है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें रचनाकार का निजी युद्ध-अनुभव और वैरियों के विरुद्ध उसका अपना आक्रोश, युद्धोत्साह आदि शब्द-रूप में मुखरित हो उठा है।

युद्ध-वर्णन ‘रासो’ ग्रंथों में भी हुआ है, भूषण के काव्य में भी और रामकथा पर आधारित अन्य विभिन्न प्रबधकाव्यों में भी; पर उनमें वर्णित युद्ध-कलाप और एतदर्थ प्रयुक्त उपमान आदि प्रायः पारंपरिक या प्राकृतिक हैं, जबकि चंडी चरित्र में अरि-मर्दन हेतु प्रचंड आवेश और आवेग की अभिव्यक्ति अधिकांशतः समकालीन लोक-जीवन से गृहीत उपमानों के माध्यम से हुई है (जिनकी विस्तृत झलक आगे अप्रस्तुत-योजना के अन्दर मिलेगी)। चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

एक उदाहरण देखिये, जिसमें क्रुद्ध दैत्य सेनानी म्यान से तलवार निकाल कर, जब एक साथ ही चंडी के शरीर तथा उसके वाहन सिंह पर कठोर प्रहार करता है, तब चंडी संभलकर, पैंतरा बदल कर, उस दैत्य सेनानी की गर्दन दबोचकर, उसे इस प्रकार धरती पर दे पटकती है जैसे ‘धोबी नदी-तट पर जाकर पट को बार-बार पटरे पर पटापट पछाड़ता है’ ।

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

बीर बली सरदार दयैत सु क्रोध कै म्यान ते खड्ग निकारौ।

एक दयौ तन चडि प्रचंड कै, दूसर केहरि के सिर झारौ।।

चडि सम्हारि तबै, बलु धारि, लयौ गहि नारि, धरा पर मारौ।

ज्यों धुबिया सरिता तट जाइ कै, लै पट को पट साथ पछारौ।। (चंडी चरित्र – 34)

इस पद्य को पढ़ते या सुनते ही भला किस साधारण से साधारण व्यक्ति के मन में भी जोश की तरंगें नहीं लहराने लगेंगी, क्योंकि धोबी द्वारा कपड़े को पटकना-पछाड़ना किसी के लिए भी दुर्बोध नहीं। गुरु गोविंद सिंह की रचनाएँ काव्य-मर्म की दृष्टि से जितनी काव्य-मर्मज्ञों को मुग्ध करती हैं, कथ्य या प्रतिपाद्य की दृष्टि से उतना ही जन-सामान्य को ‘वाह-वाह’ करने पर बाध्य कर देती हैं। ‘चंडी चरित्र’ में महिषासुर की कटार देव-सैनिकों को इस प्रकार काट-काट कर फेंक रही है जैसे दर्जी कैंची से कपड़ा कतर-कतर कर कतरनों का ढेर लगा दे।

कहीं चंडी की तलवार शुंभ के शीश को ऐसे चीर डालती है, जैसे कोई साबुन-निर्माता लोहे की बारीक तार से साबुन की लम्बी बटिया को सहजता से चीरता चला जाए। कहीं चंडिका दैत्य-दल को इस प्रकार रौंदकर कुचल-मसल कर उनका कचूमर निकाल रही है जैसे तेली तिलों को मींज कर उनसे तेल निकालता है – चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

 

(क) लै महिषासुर अस्त्र सु शस्त्र सबै कलवस्त्र ज्यौँ चीर के डारे। ..ज्यों दरजी-जम मृत्त के सीस में बागें अनेक कता करि डारे।।(चंडी चरित्र-15) 

ख) चंडि प्रचंड तबै बल धारि सम्हारि लई करवारि कड़ी करि। कोपि दई अरि कुंभ के सीस, बही इहि भाति रही तरवातर।। मानहु सार की तार लै हाथ चलाई है साबुन कै सबुनीगर।। (चंडी चरित्र-202) 

(ग) कै पल मैं दल मीझि दयौ तिल तैं जिसि तेल निकारत तेली। (चंडी चरित्र-157)

इस प्रकार, धोबी, साबुनसाज़ या तेली आदि के ये उपमान रचनाकार के समकालीन समाज के सामान्य वर्ग से ही गृहीत हैं, क्योंकि ऐसे सामान्य लोक-समुदाय को ही कवि धर्म-युद्ध अर्थात् नैतिक संघर्ष की दीक्षा देना चाहता है। गुरु गोविंदसिह ने स्वयं अनेक युद्ध लड़े थे। उनके योद्धाओं में सामान्य समाज से आये हुए, धर्म-दीक्षित साधु-संगत के ही साधारण लोग थे।

उन्होंने ‘चंडी-चरित्र’ में अनेकविध युद्ध-वर्णन के दृश्यों का चित्रांकन इस प्रकार किया कि लोग इन छंदों को गाते हुए आततायी शत्रु-दल पर टूट पड़ते थे, क्योंकि कवि ने इस रचना द्वारा उन्हें विश्वास दिलाया कि तुम सूर्य हो और अन्यायी अंधकार है, तुम तूफानी हवा हो और वैरी काले बादल हैं।

तुम वह मयूर हो जो फणिधर सर्प को निगल लेते हैं, तुम शूर हो वे कायर, तुम सिंह हो वे गीदड़। जैसे अंधकार सूर्य के, बादल हवा के, साँप मोर के और कायर शूरवीर के सामने नहीं टिक सकते, ऐसे ही दैत्य चंडी के सामने नहीं टिक पाये, अर्थात् दुष्ट वैरी तुम्हारे सामने नहीं टिक पायेंगे

भानु तैं ज्यौं तम, पौन तैं ज्यों धन, मोर तैं ज्यों फन त्यौं सकुचाने। सूर तैं कातुर, कूर तैं चातुर, सिंह तैं सातुर ऐण डेराने।।

………………….चंडि के जुद्ध तैं दैत पराने।। (चंडी चरित्र-146)

सुधी साहित्य-अध्येता भलीभाँति जानते हैं कि देव-असुर संग्राम में कहीं भी देवों द्वारा खेती करने अथवा असुरों द्वारा देवताओं के खेत जीत कर, उनपर बलात् अधिकार जमा लेने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वहाँ तो असुरों द्वारा देवताओं को अबिकार-वंचित करप देने का उल्लेख है।

परंतु गुरु गोविंद सिंह ने ‘अधिकार-हनन’ की यही प्रवृत्ति समकालीन शासकों और उनके क्रूर कारिदों में देखी जो भोले-निरीह किसानों के खेत पर जबरन अधिकार जमा कर उन्हें अधिकार-वंचित कर देते थे। उन्हें अपने अधिकार छिन जाने की इस यातना का प्रत्यक्ष बोध कराने के लिए ही उन्होंने ‘चंडी चरित्र’ में यह उद्भावना कर डाली

खेत जीति दैतन लियौ, गये देवते भागि। 

इहै विचारै मन विषै, लेहिं सिवा तें राजि। (चंडी चरित्र-72)

देव-गण जिस प्रकार खेत (अर्थात् रणक्षेत्र) में परास्त हो जाने पर ‘शक्ति’ की शरण में गये, उसी प्रकार उस युग के भूमिपुत्रों-कृषकों और श्रमिकों- को भी (शोषक-उत्पीड़क सत्ताधारियों द्वारा अधिकार-वंचित कर दिये जाने पर) ‘शक्ति’ का सहारा लेना होगा यही जनक्रांति का संदेश चंडी-चरित्र का प्रतिपाद्य है।

कोई सुधी समीक्षक ‘देवताओं के खेत दैत्यों द्वारा जीत लिये जाने के प्रसंग’ को काव्य-प्रबन्ध की दृष्टि से असंगत, अस्वाभाविक या अविश्वसनीय कहकर, भले ही इसे ‘चंडी चरित्र’ का काव्य-दोष करार दे।

किन्तु गुरु गोविंद सिंह के सामने सवाल काव्यशास्त्र के निर्वाह का नहीं; अपने समय की निरीह जनता को उसके अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत करने का था। अतः जहाँ तक इस रचना के प्रतिपाद्य का सम्बन्ध है, वह लोक-जागरण ही प्रतीत होता है- चाहे कथा-संयोजन के स्तर पर, चाहे उपमान-चयन के रूप में। चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

इतिहास साक्षी है गुरु गोविंद सिंह ने अनेक युद्धों में विभिन्न प्रदेशों के राजाओं, नवाबों, शासकों और सामंतों को अपने सामने झुकने पर विवश कर दिया था पर उन्होंने किसी भी प्रदेश का शासन अपने हाथ में नहीं लिया, विजित शक्तियों को केवल अपने आदर्श गुरु-पंथ के प्रति उन्मुख करना ही उनका अभीष्ट रहा। स्वयं तो वे सदा कर्म-योग के साधना-पथ के यायावर ही रहे। विभिन्न युद्धों के बाद उनका दक्षिण-प्रवास इसका प्रमाण है। अपनी इस युगीन स्थिति को उन्होंने ‘चंडीचरित्र’ के अंतर्गत ‘देवी’ की विजय-यात्रा के समरूप अनुभव किया

देस देस के नरेस डारे हैं सुरक्ष पाँव, 

कीनौ अभिषेक सुर मंडल सिचारिक। 

इहां भई गुपति, प्रकट जाइ तहाँ भई, 

जहाँ बैठे हर हरि अंबर को डारिक। (चंडी चरित्र-52)

देश-देश के राजाओं को इंद्र के अधीनस्थ बना कर देवी भवनानी, बाँघबर-धारी शिव के पास चली गई। उनका कार्य तो केवल साधु-संतों का हित-साधन था

दान मारि अभेख करि, कीन्हें संतन काज।(चंडी चरित्र-53)

चंडी-द्वारा दैत्यों के दमन का जो सुपरिणाम हुआ उसी की कामना ‘चंडी चरित्र’ के रचनाकार के मन में है और इसी कामना को वह लोक-मानस की स्थायी आकांक्षा बनाना चाहता है

या तैं प्रसन्न भए हैं महामुनि, देवन के तप मैं सुख पावे।

यज्ञ करें, इक वेद रै, भव-ताप हरै, मिलि ध्यानहिं लावै। 

झालर, ताल, मृदंग, उपंग, रबाब लियें सुर साज मिलावै।

किन्नर गंधर्व गान करें, गन यच्छ अपच्छर नृत्य दिखावें।

इस प्रकार, अन्याय के शासन का अन्त कर, उस लोक-राज की स्थापना का स्वप्न ‘चंडी चरित्र’ के माध्यम से कवि साकार करना चाहता है जिसमें सभी जिन धर्म-पालन में प्रवृत्त हों, उनके यज्ञ, पाठ-पूजा आदि में कोई व्यवधान न हो, सब भयमुक्त हो गायें-नाचें और आनंद से जीवन व्यतीत करें।

चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य चंडी चरित्र का प्रतिपाद्य 

यह भी पढ़े:—

  1. चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प की समीक्षा। गुरु गोविंद सिंह द्वारा कृत।
  2. चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य मानते हैं या ‘वीरकाव्य’?

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