जूठन आत्मकथा का प्रतिपाद्य : ओमप्रकाश वाल्मीकि - Rajasthan Result

जूठन आत्मकथा का प्रतिपाद्य : ओमप्रकाश वाल्मीकि

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जूठन आत्मकथा का प्रतिपाद्य

जूठन आत्मकथा का प्रतिपाद्य

कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि की तरह आत्मकथा का भी एक निश्चित उद्देश्य होता है। यह उद्देश्य ही उसका प्रतिपाद्य माना गया है। यह बात अपनी जगह सही है कि इस रचना में लेखक की अपनी कथा है, जो स्वयं उसकी ही कलम से लिपिबद्ध हुई है। लेकिन इसे लेखक के जीवन का रोजनामचा मात्र नहीं कहा जा सकता। अपने पूरे जीवन के विस्तार में लेखक को जिन प्रिय-अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ा है, जिन व्यक्तियों, जिन घटनाओं ने उसे प्रभावित किया है, जिनके माध्यम से उसकी दृष्टि का निर्माण हुआ है, वे सभी आत्मकथा में आई हैं। जूठन आत्मकथा का जूठन आत्मकथा का 

अपने जीवन-यापन के दौरान होने वाले अनुभव, व्यक्तिगत और सामाजिक क्रियाएँ, उसकी मूल्य-दृष्टि का निर्माण करती हैं। यही वह मूल्य दृष्टि है, जिसके आधार पर वह अपना, अपने जैसे लोगों का और पूरे समाज का मूल्यांकन करता है। यह मूल्यांकन-दृष्टि चूंकि पूरे सामाजिक संदर्भ में विकसित या अर्जित होती है, अतः इसे सामाजिक दृष्टि भी कहा जा सकता है। इस सामाजिक दृष्टि के प्रकाश में ही वह अपनी व्यक्ति-स्थिति और समाज-स्थिति का निरीक्षण-परीक्षण करता है। इसके बाद ही उसका निजी जीवन आत्मकथा का विषय बन पाता है।

इस संदर्भ में विचार करें तो आप स्पष्ट रूप से देखेंगे कि इस आत्मकथा में लेखक के जीवन में उसके अछूत होने के सामाजिक अभिशाप की पीड़ा ही विषय बनी है। लेकिन मात्र अपनी निजी पीड़ा से अभिभूत होकर ओमप्रकाश वाल्मीकि ने उसे दूसरों के सामने प्रकट करने के उद्देश्य से आत्मकथा की रचना नहीं की है। यदि अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति को वे महत्व देते तो अपना ‘सरनेम’ हटाकर उसे पूरा कर सकते थे और तब आत्मकथा लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस आत्मकथा के विस्तृत सार और उसकी अंतर्वस्तु के विवेचन-विश्लेषण से आपको इसके उद्देश्य का संकेत अवश्य मिल गया होगा। जूठन आत्मकथा का जूठन आत्मकथा का 

उसके आधार पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि रपना का मूल और प्रथम प्रतिपाद्य भारतीय समाज के एक काफी बड़े समुदाय की, जिन्हें अछूत मान लिया गया है, मुक्ति का प्रयास है। इसके लिए लेखक ने अपनी आत्मकथा में जगहजगह जाति-पाँति पर आधारित समाज-व्यवस्था, उसके लिए जिम्मेदार वर्ण-व्यवस्था, आभिजात्यवादी सामंती भानासेकता आदि का तीव्र विरोध किया है।

इस प्रक्रिया में उसने जाति-व्यवस्था के झूठ, उसकी कृत्रिमता और सवर्ण समुदाय के सचेत षडयंत्र का भी पर्दाफाश किया है। अपने व्यक्तिगत अनुभव के दंश से पीड़ित होकर उसने लिखा है, ‘भारतीय समाज में ‘जाति’ एक महत्वपूर्ण घटक है। ‘जाति’ पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है। पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में नहीं होता। यदि होता तो मैं भंगी के घर पैदा क्यों होता?

जो स्वयं को इस देश की महान सांस्कृतिक धरोहर का अलमबरदार कहते हैं क्या वे अपनी मर्जी से उन घरों में पैदा हुए हैं? हाँ, इसे जस्टी-फाई करने के लिए अनेक धर्मशास्त्रों का सहारा वे जरूर लेते हैं। वे धर्मशास्त्र, जो समता, स्वतंत्रता की हिमायत नहीं करते, बल्कि सामंती प्रवृत्तियों को स्थापित करते हैं।’ इससे स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था की अतार्किकता, उसकी कृत्रिमता ही नहीं, उसे पुष्ट करने वाले धर्मशास्त्रों की निरर्थकता और अप्रासंगिकता को भी लेखक ने उद्घाटित किया है।

अपने मूल उद्देश्य के प्रतिपादन में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने केवल सवर्णों की सामंती मानसिकता पर ही चोट नहीं की है। उन्होंने अछूतों और नीची जातियों में प्रचलित अशिक्षाजन्य अंधविश्वास पर आधारित रूढ़ियों, कुसंस्कारों, झाड़-फूंक, टोना-टोटका, भूत-प्रेत आदि से संबंध मान्यताओं की आलोचना कर उनमें व्यापक जागृति की अनिवार्यता को भी रेखांकित किया है। यह उनके प्रतिपाद्य का एक दूसरा पक्ष है, जो अछूतोद्धार के मार्ग में बाधक है। जूठन आत्मकथा का जूठन आत्मकथा का 

इस दृष्टि से एक तीसरे पक्ष की ओर भी वाल्मीकि की दृष्टि गई है। अछूत कही जाने वाली जातियों में ऐसे बहुत सारे लोगों का उल्लेख वाल्मीकि ने किया है, जो पढ़-लिखकर अच्छी स्थिति में हो गए हैं और अपनी जाति पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। इनमें उनके कई रिश्तेदार, उनकी भतीजी, हमसफर मित्र और मोहनदास नैमिशराय जैसे दलित कविलेखक भी सम्मिलित हैं। इससे आहत होकर उन्होंने लिखा है, ‘दलित आंदोलन से जुड़े रचनाकारों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं को अपने अंतर्दवों से लगातार जूझना पड़ा रहा है।’

इसका और अधिक खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘इस ‘सरनेम’ (वाल्मीकि) के कारण मुझे जो दंश मिले हैं, उनको बयान करना कठिन है। परायों की बात तो छोड़िए, अपनों ने जो पीड़ा दी है, वह अकथनीय है। परायों से लड़ना जितना आसान है, अपनों से लड़ना उतना ही दुष्कर।’ यह तथ्य भी अछूत अथवा दलित जीवन की समस्या की गंभीरता को ही रेखांकित करता है, जिसमें बेटा भी अपने बाप को पहचानने से इनकार कर सकता है। जूठन आत्मकथा का जूठन आत्मकथा का 

इस प्रकार ‘जूठन’ शीर्षक आत्मकथा दलित और अछूत समझी जाने वाली जातियों के एक प्रतिनिधि रचनाकार की आत्मकथा है, जिसमें अछूतों के उद्धार की आवश्यकता को एक गंभीर सामाजिक समस्या के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है।

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कामायनी के दार्शनिक पक्ष | जयशंकर प्रसाद |

 

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