तरसि तरसि प्रान जान मनि दरस कौं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
तरसि तरसि प्रान जान मनि दरस कौं,
उमहि उमहि आनि आँखिनी बसत है।
विषय विरह के विसिष हियें घायल है,
गहवर धूमि – धूमि सोचनि ससत है।
निसिदिन लालसा लये हि ही रहत लोभी,
मुरझि अनोखी उरझनि मैं गसत है।
सुमिरि सुमिरि घनआनन्द मिलन- सुख,
कहनि सौं आसा-पट कटि लै कसत है । (२६)
तरसि तरसि प्रान जान
प्रसंग : यह पद्य मध्यकालीन शृंगारी कवि घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। अपनी इस रचना में कवि ने विशेषकर वियोग शृंगार का सजीव साकार वर्णन किया है। प्रिय दर्शन के लिए तरसते-तड़पते प्रेमी का तन-मन अत्यधिक विकलता एवं ऐंठन का अनुभव करने लगता है। उसकी चिन्ता बढ़ जाती है और विरह भाव दाहक हो जाया करता है। व्याख्येय पद्य में कुछ उसी प्रकार के भावों- विचारों का स्वरूपाकार प्रदान करते हुए कविवर घनानन्द कह रहे हैं
व्याख्या : उस निष्ठुर प्रियतम के दर्शन के लिए हर समय तरसते रहकर मेरे प्राण आँसुओं के रूप में उमड़-घुमड़कर आंखों में आ बसते हैं। अर्थात् प्रिय दर्शन की इच्छा विवश होकर आँसू बन आँखों से उमड़ पड़ती है। प्रिय के वियोग के कठिन वाणों से घायल और पीड़ित होकर हृदय बार-बार उमड़ उमड़ आता है और चिन्ताएँ दम घोटने लगती हैं। अर्ज्ञात् प्रिय विरह की विषम वेदना बढ़कर साँसों में घुटन बनकर और भी अधिक चिन्ता उत्पन्न कर दिया करती है।
प्रियतम दर्शन के कामी इस मेरे मन को रात-दिन तरह-तरह की लालसाएँ लपेटे यानि घेरे रखती हैं, जिससे मुरझा या उदास अथवा निराश होकर यह मन जाने केसी उलझनों से ग्रस्त हो जाता है अर्थात् प्रिय के न मिल पाने की स्थिति में मन निराशाओं में उलझ और विषम वेदना से ग्रस्त होकर
कविवर घनानन्द करहते है कि प्रिय के साथ मिलन से प्राप्त होने वाले सुख का अपनी कल्पना में बार-बार स्मरण कर-करके आशा रूपी अंगवस्त्र कमर पर स्वयं ही ढब से कसा जाने लगता है। अर्थात् मिलन-सुख की इच्छा और कल्पना तन-मन को अत्याधिक उत्तेजित एवं समृद्ध-सा कर देती है।
विशेष
1. वियोगी की पीड़ित मानसिकता का अत्यन्त सजीव साकार एवं यथार्थ चित्रण किया गया है ।
2. शब्दों और पदों की पुनरावृत्ति से रचना में बाह्य स्तर पर विशेष चमत्कार सुन्दरता और प्रभविष्णुता आ गई है।
3. पद्य में रूपक, वीप्सा, अनुप्रास, उल्लेख आदि अलंकारों की छटा दर्शनीय है।
4. भाषा भावानुकूल प्रसाद – गुण प्रधान है । दरबारी प्रभाव भी स्पष्ट नजर आता है। ‘जान मति’ जैसे नरक बसी प्रभाव की देन है।
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