तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए |

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तुलसीदास की भक्ति भावना :— भक्ति ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति का भाव है। वैसी भक्ति जो शास्त्रोक्त विधि से की जाती है उसे वैधी भक्ति तथा जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति वात्सल्य, सख्य, दांपत्य अथवा दास्य आदि भाव निवेदित अथवा वर्णित कर अपना भाव अर्पित करता है उसे रागानुगा भक्ति कहते हैं। तुलसीदास की भक्ति भावना

‘भागवत’ तथा ‘आध्यात्म रामायण’ में किंचित अंतर के साथ भक्ति के नौ साधन बताए गए हैं, इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं। तुलसीदास की भक्ति-पद्धति में भक्ति के इन सारे साधनों अथवा रूपों की झलक किसी न किसी रूप में मौजूद है। हालाँकि जहाँ वे स्वयं अपनी निजी अनुरक्ति प्रभु के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं वहाँ वे मुख्य रूप से दैन्य भाव ही प्रदर्शित करते हैं। तुलसीदास की भक्ति भावना

वात्सल्य कौशल्या, दशरथ आदि के माध्यम से; दांपत्य की सीमित और मर्यादित अभिव्यक्ति शिव-पार्वती, राम-सीता आदि के विवाह के अनंतर तथा सख्य भाव निषादराज, सुग्रीव, विभीषण आदि के बहाने व्यक्त हुई है।

भक्ति के इन रूपों-साधनों के अतिरिक्त उसकी दार्शनिकता, उसके प्रधान भेद सगुण-निर्गुण तथा सगुण मत के अंदर शैव-वैष्णव मत के विभेद तथा इनके बीच समन्वय के बिंदु आदि अनेक पक्ष तुलसीदास के भक्ति निरूपण के अंतर्गत विचारणीय हैं । तुलसीदास की भक्ति भावना

तुलसीदास की भक्ति भावना

तुलसीदास की भक्ति में कुछ चीजें आधार रूप में हैं। वे स्मार्त वैष्णव हैं। उदयभानु सिंह के अनुसार, “स्मार्त धर्म की दो महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं- वर्णाश्रमधर्म-निष्ठा और गणेश, सूर्य, शिव, दुर्गा तथा विष्णु: इन पाँच देवों की उपासना ।

पहली विशेषता तुलसी की सभी प्रमुख कृतियों में सम्यक रूप से अभिव्यक्त हुई हैं, किंतु पंचदेवों का योजनाबद्ध स्तवन ‘विनय-पत्रिका’ में ही मिलता है।” हालाँकि योजनाबद्धता से इतर देखें तो इन देवों की अपने इष्ट देव के रूप में तो नहीं पर प्रसंगवश जगह-जगह अर्चना की गई है।

आधार रूप में तुलसीदास की भक्ति की निजी विशिष्टताओं में प्रमुख हैं- अवतारवाद की स्वीकृति और ईश्वर के सगुण रूप के प्रति आग्रह, सगुण और निर्गुण में पार्थक्य की अस्वीकृति, राम की सर्वोच्चता तथा दिव्यता के प्रति सचेत भाव, निज भक्ति में गहन रूप से शरणागति और दास्य का भाव तथा ( कलियुग में) नाम जप को भक्ति की केंद्रीय प्रविधि का प्रस्ताव । तुलसीदास विष्णु के अवतार राम के भक्त हैं ।

यद्यपि वे निपुण कवि भी हैं पर निरंतर कवि व्यक्तित्व की जगह भक्त व्यक्तित्व को प्राथमिक बनाने की व्यग्रता उनमें दिखाई देती है। वे र निरंतर कपि बनी ह ऐसी कविता जिसमें कवित्व के गुण हों पर राम की मौजूदगी नहीं हो, उसे वरेण्य नहीं मानते। कविता का कार्य उनके लिए संसार के मंगल की साधना है। वह राम की मौजूदगी से ही संभव है :

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ ।

राम नाम बिनु सोह ने सोऊ ।।

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी ।

राम कथा जग मंगल करनी ।।

तुलसीदास से पूर्व हिंदी साहित्य में वीरगाथात्मक काव्य लिखने वाले चारण कवि हो चुके थे। उनके आसपास ही दरबारी मनोवृत्ति वाले केशवदास हुए। लेकिन तुलसीदास ने काव्य कर्म की इस मनोवृत्ति से अपने को अलग ही नहीं रखा बल्कि ऐसे कृत्य को विद्या का अपमान माना, ‘कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ।’ प्राकृत जन के अपने आग्रह-दुराग्रह हो सकते हैं इसलिए तुलसीदास उस ईश्वर का गुणगान करते हैं जो समदर्शी है, जो सबका कल्याण करता है । तुलसीदास की भक्ति भावना

तुलसीदास की भक्ति में जो तथ्य प्राथमिक महत्व का है वह यह है कि तुलसी के राम सगुण अवतारी राम हैं। यद्यपि वे तत्वतः ईश्वर को निर्गुण और गुणातीत मानते हैं, पर साथ ही इस बात पर जोर देते हैं कि वही परमेश्वर जो निराकार है, भक्तों के हित के लिए देह धारण कर अवतार लेता है । वे (ईश्वर) भक्तों के प्रति ममत्व का भाव रखते हैं तथा कभी उस पर क्रोध नहीं करते हैं । आशय यह है कि सदा वे भक्तों का कल्याण करते हैं :

एक अनीह अरूप अनामा ।

अज सच्चिदानंद पर धामा ।।

सो केवल भगतन हित लागी ।

परम कृपाल प्रनत अनुरागी।। 

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना ।

तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।। 

जेहि जन पर ममता अति छोहू ।

जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू।। 

तुलसीदास की भक्ति में एक विशेष प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह है अपनी मान्यताओं के प्रति दृढ़ रवैया । चूँकि उनमें भक्ति से संबंधित कई संदर्भ में द्विआयामिता है, समन्वय की चेष्टा है— जैसे सगुण और निर्गुण में, शिव और राम (विष्णु) में; बावजूद इसके उनकी मान्यता और आराधना के जो केंद्रीय तत्व हैं उसके प्रति वे खासा आग्रही हैं।

अपने समस्त काव्य में उसे वे बार-बार दुहराते हैं। वनवास से लौटने के पश्चात जब राम का राज्याभिषेक होता है, उस समय भाटों का वेश धारण करके आए चारों वेद उनके सगुण रूप का गुणगान करते हुए उसे ही वरेण्य मानते हैं :

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं ।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं । 

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ।।

अर्थात जो ब्रह्म को अजन्मा और अद्वैत मानते हुए ऐसा कहते हैं कि ब्रह्म मन से परे हैं जिन्हें अनुभव से ही जाना जा सकता है, वे ऐसा कहें; पर हम तो आपके सगुण रूप को गाते हैं। हे करुणामय, सदगुण देव मैं तो आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि अपने मन, वचन, कर्म से दोषों को त्यागकर आपके चरणों में मेरा अनुराग हो । तुलसीदास की भक्ति भावना

ईश्वर के अवतार के जो कारण तुलसीदास ने बताए हैं उनमें भक्तों का प्रेम तथा धर्म की रक्षा प्रमुख हैं। जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, असुरों का उत्पात बढ़ता है, वेद की मर्यादा प्रभावित होती है, तब इसके समाधान के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं। तुलसीदास की भक्ति भावना

राम के अवतारी रूप को लेकर तुलसीदास जितने आग्रही हैं उतना ही इस बात को रेखांकित करने में सचेत हैं कि उनका जो नर रूप है वह भक्तवत्सल प्रमु की लीला है। तुलसीदास लीला का वर्णन करते हुए बार-बार याद दिलाते हैं कि अपने मूल में वे इच्छा रहित, अजन्मा, निर्गुण हैं; वे भक्तों के लिए विभिन्न प्रकार के अलौकिक रूपों को धारण करते हैं

ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप । 

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ।।

सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की स्वीकृति तुलसीदास को इनके समन्वय की ओर अग्रसर करती है। समन्वय उनकी भक्ति का एक प्रमुख पक्ष है। उनका मानना है कि पानी और बर्फ में तत्वतः कोई भेद नहीं है वैसे ही सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें/जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें। तुलसीदास की भक्ति भावना

‘रामचरितमानस’ के बालकांड में भी तुलसीदास नामजप की महिमा का बखान करने के क्रम में सगुण और निर्गुण ब्रह्म में अभेद को दर्शाते हैं, ‘एकु दारुगत देखिअ एकू | / पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू।।’ अर्थात ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण ब्रह्म उस अप्रकट अग्नि के समान है जो काठ के अंदर है पर सामान्य नजर से दिखाई नहीं देता।

सगुण ब्रह्म काठ से निकलने वाली अग्नि के समान है। इसी तरह ‘दोहावली’ में सगुण और निर्गुण में जो मूलतः साम्यता है उसे समझाते हुए वे कहते हैं, ‘अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार ।’ अंक में लिखे जाने से किसी संख्या का बोध होता है, उसी संख्या को अक्षर में भी लिखा जा सकता है और इससे कोई अंतर नहीं आता। इसी तरह ब्रह्म को सगुण या निर्गुण कहने से कोई अंतर नहीं आता ।

सगुण और निर्गुण के समन्वय की तरह ही वे शिव और विष्णु (राम) की भक्ति का भी समन्वय करते हैं। मध्यकाल में सनातन धर्म विभिन्न पंथों- आदि- में बँटा हुआ था, तुलसीदास इस विभेद को दूर करना चाहते थे । साहित्य में राम के बाद शिव को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। ‘रामचरितमानस’ की कथा उमा-शंभु संवाद के रूप में कही गई है। शिव निरंतर राम के चरण में अपनी रति (प्रेम) प्रकट करते हैं।

सीता के हरण के बाद राम व्याकुल होकर सीता को खोजते फिर रहे हैं। नर रूप में राम की व्याकुलता देखकर शिव की पत्नी सती को राम के देवत्व के प्रति मोह यानि संशय उत्पन्न होता है लेकिन सती पाती हैं कि जो शिव संसार भर के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि जिनके आगे सिर नवाते हैं।

उन्होंने एक राजा के बेटे को सच्चिदानंद कह उसको प्रणाम किया। उसकी छवि को देखकर इतने प्रेममग्न हो गए कि हृदय का प्रेम रोके नहीं रूकता । सती के संशय को जान शिव उन्हें संदेह न रखने की सलाह देते हैं और उनके नर रूप को भक्तों के हित में लिया गया अवतार बताते हैं :—

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ।। 

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रधुकुलमनी।।

अर्थात (शिव कहते हैं) मुनि, योगी सिद्ध और संत निर्मल मन से जिसका ध्यान करते हैं । वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति नेति’ कहकर जिसका यश गाते हैं, उसी माया के धनी व्यापक ब्रह्म ने अपने भक्तों के हित में रघुकुल में अवतार लिया है। सती का संशय दूर नहीं होता तो शिव उनसे मर्यादा में रहते हुए परीक्षा लेने की बात करते हैं। सती मर्यादा नहीं मानती हैं और सीता के रूप में राम के सामने प्रकट होती हैं इसे जान कर शिव दुखी होते हैं। तुलसीदास की भक्ति भावना

राम भी विभिन्न प्रकरणों में शिव की किसी अवमानना को सहन नहीं करने का भाव रखते हैं। ‘रामचरितमानस’ में पार्वती विवाह की कथा भारद्वाज को सुनाने के बाद याज्ञवलक्य कहते हैं कि जिनका अनुराग शिव जी के चरण-कमल में नहीं है उसे राम स्वप्न भी पसंद नहीं करते, ‘सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।’

उत्तरकांड में स्वयं राम कहते हैं कि शंकर की भक्ति के बिना मेरी भक्ति संभव नहीं है, ‘औरउ एक गुप्त मत सबहि कहउँ कर जोरी । / संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।’ लेकिन तुलसीदास की भक्ति के संदर्भ में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि वे भले ही शिव और राम की सह-भक्ति में कोई विरोध नहीं मानते; यथास्थान गणेश, सरस्वती आदि विभिन्न देवी-देवताओं की वंदना भी करते हैं पर राम की निज भक्ति और सर्वोच्चता के प्रति वे अत्यंत आग्रही हैं । तुलसीदास की भक्ति भावना

‘विनय-पत्रिका’ में वे गणेश, सूर्य, शिव, उमा, गंगा, यमुना, हनुमान आदि की जो स्तुति करते हैं, उनमें वे इन देवी देवताओं से रघुवीर के पद में प्रीति का ही वरदान माँगते हैं । यद्यपि राम अंशावतार हैं ( अंसन्ह सहित देह धरि ताता।/करिहऊँ चरित भगत सुखदाता), लेकिन तुलसीदास जब राम के ब्रह्मत्व, दिव्यता और महिमा का बखान करते हैं तो ब्रह्म का सर्वोच्च आसन उन्हें प्रदान करते हैं :—

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान। 

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान।।

अर्थात सरस्वती, शेष, शिव, ब्रह्मा, शास्त्र, वेद और पुराण उनकी महिमा का गुणगान ‘नेतिनेति’ (यह भी नहीं, वह भी नहीं) कहकर करते हैं। अन्यत्र एक जगह वे दर्शाते हैं कि शिव, ब्रह्मा और विष्णु उन्हीं के अंश से उत्पन्न होते हैं, ‘संभु बिरंचि विष्णु भगवाना | उपजहिं जासु अंस तें नाना।‘ दरअसल तुलसीदास के राम परम विष्णु अथवा परम ब्रह्म हैं।

उदयभानु सिंह 200 के अनुसार, “उपनिषदकारों और वेदांतियों ने जिसे ब्रह्म कहा है, शैवों ने जिसे परमशिव माना है, वैष्णवों की दृष्टि में जो परमविष्णु हैं, उसी परमार्थ तत्व को तुलसी राम कहते हैं।” तुलसीदास ने अपनी भक्ति पथ को वेद सम्मत कहा है :—

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।

तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ।।

अर्थात प्रभु की भक्ति का मार्ग वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त है। जो मनुष्य मोहवश इसका अनुसरण नहीं करता, विभिन्न पंथों के बीच भटकता रहता है । यहाँ तुलसीदास ने ज्ञान के साथ भक्ति के सह-अस्तित्व को स्वीकार किया है। दरअसल तुलसीदास ने ज्ञान को भक्ति का सहयोगी माना है, ‘बिमल ग्यान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छाई।।’

हालाँकि उपासना पद्धति के रूप में वे ज्ञानमार्ग की जगह भक्तिमार्ग को महत्व देते हैं। तुलसीदास ज्ञानमार्ग की कठिनता की ओर संकेत करते हैं, ‘कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।’ साथ ही वे इसे निबाहना दुष्कर मानते हैं।

उत्तरकांड में काकभुशुंडि गरुड़ से कहते हैं कि ज्ञानमार्ग तलवार की धार के समान है इससे गिरते देर नहीं लगती, ‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा । परत खगेस होइ नहिं बारा ।।’ तुलसीदास का मानना है कि जो राम के भजन के बिना मोक्ष चाहता है वह ज्ञानवान होते हुए भी बिना पूँछ और सींग के पशु के समान है :—

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान । 

ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ।। 

दार्शनिक स्तर पर तुलसीदास में शंकर के अद्वैतवाद तथा रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद दोनों की झलक दिखाई देती है। भगवान के सगुण रूप के प्रति आग्रह के बावजूद उनके स्वरूप की अनिर्वचनीयता को विभिन्न रूपों में, विविध प्रसंगों में वे दुहराते हैं। इस जगत को शंकर के अद्वैत की तरह असत्य मानते हैं वैसे ही जैसे बिना जाने रस्सी में साँप का भ्रम होता है :—

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । 

जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ।।

जेहि जानें जग जाइ हेराई । 

जागें जथा सपन भ्रम जाई ।।

लेकिन दूसरी ओर वे ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।।’ कहकर विशिष्टाद्वैत की मान्यता को भी स्वीकार करते हैं। माया को तुलसीदास ने भ्रम में डालने वाली शक्ति के रूप में रेखांकित किया है जिसके प्रभाव से कोई नहीं बच सका, लेकिन उनके अनुसार वह प्रभु राम की दासी है|

अपनी भक्ति की पद्धति में तुलसीदास ने शरणागति एवं दैन्य भाव को चुना है। ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में राम राज्याभिषेक के छह माह पश्चात वानरों को अपनेअपने घर जाने की बात करते हुए कहते हैं कि मुझे अपने दासों से विशेष प्रेम है, ‘सब कें प्रिय सेवक यह नीती।/ मोरें अधिक दास पर प्रीति ।’ काकभुशुंडि गरूड़ को संदेश देते हैं कि स्वयं और ईश्वर के बीच सेवक और सेव्य भाव के बिना संसार से मुक्ति संभव नहीं है:

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।

भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारी ।।

‘विनय-पत्रिका’ में तुलसीदास की शरणागति और दैन्य भाव की गहन अभिव्यक्ति हुई है। वे राम से अपनी दीनता प्रकट करते हुए अपने को पापी तथा प्रभु को दयालु बताते हैं। अपने को अनाथ और दुखी तथा राम को अनाथों के नाथ तथा दुखहर्ता बताते हैं :—

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी । 

हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज – हारी ।। 

नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो। 

मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो 

वे अपनी विकलता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि तुम्हें छोड़कर कहाँ जाऊँ । आपके समान पापों को हरने वाला और गरीबों को प्रेम करने वाला कौन है :—

जाऊँ कहाँ तजि चरण तुम्हारे ।

 काको नाम पतित-पावन जग,

केहि अति दिन पियारे ।

तुलसीदास ने अपनी भक्ति में नवधा भक्ति को स्वीकार किया है। हालाँकि नवधा भक्ति को तुलसीदास ने अपने ढंग से अभिव्यक्ति दी है। ‘रामचरितमानस’ के अरण्यकांड में राम शबरी को नवधा भक्ति की सीख देते हुए कहते हैं :—

नवधा भगति कहऊँ तोही पाहीं । 

सावधान सुनु धरु मन माहीं ।। 

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। 

दूसरि राति मम कथा प्रसंगा।। 

गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।। 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । 

पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।। 

छठ दम सील बिरति बहु करमा । 

निरत निरंतर सज्जन धरमा।। 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। 

मोतें संग अधिक करि लेखा । 

आठवँ जथालाभ संतोषा । 

सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ।। 

नवम सरल सब सन छलहीना। 

मम भरोस हियँ हरष न दीना ।। 

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई ।

नारि पुरुष सचराचर कोई ।।

यहाँ तुलसीदास ने संतों के साथ सत्संग, रामकथा के प्रति अनुराग, गुरु सेवा, छल रहित मन-भावना से राम गुणगान, राम मंत्र का जाप, वेद मार्ग का अनुसरण, कर्म में शील और सज्जनता, जगत को राममय मानते हुए संतों का आदर, खुद संतोष धारण करना।

दूसरों का दोष न देखना तथा हर्ष और विषाद में एक-सा भाव रखते हुए राम में भरोसा को नवधा भक्ति के विभिन्न तत्वों के रूप में चिह्नित किया है। नवधा भक्ति के इन तत्वों को तुलसीदास के काव्य में जगह-जगह विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति दी गई है। शबरी प्रसंग में उसका समन्वित रूप प्रस्तुत किया गया है।

नाम जप को तुलसीदास ने भक्ति की प्रविधि के रूप में सर्वाधिक महत्व दिया है। वे नाम की महिमा को सगुण और निर्गुण से ऊपर मानते हैं। उनके अनुसार कलियुग में यह कल्पतरु के समान है। ‘रामचरितमानस’ के बालकांड में नाम महिमा का विस्तार से वर्णन है तथा उत्तरकांड में भी इसका जिक्र आया है। ‘कवितावली’ में तुलसीदास कलियुग के दुखों को दूर करने में ज्ञान, वैराग्य, तप, तीरथ सभी को असमर्थ मानते हुए एकमात्र नाम जप को सुखप्रदायी मानते हैं :—

न मिटै भवसंकटु, दुर्घट है तप, तीरथ जन्म अनेक अटो ।

कलिमें न बिरागु, न ग्यानु कहूँ, सबु लागत फोकट झूठ- जटो |

 नटु ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक-कौतुक-ठाट ठटो । 

तुलसी जो सदा सुखु चाहिअ तौ, रसनाँ निसिबासर रामु, रटो।

तुलसीदास की भक्ति के संदर्भ में रेखांकित करने योग्य एक महत्वपूर्ण पक्ष है- अहंकार का त्याग। पूरे ‘रामचरितमानस’ में मोह, अहंकार, दंभ के विभिन्न संदर्भ आए हैं जिसका शमन प्रभु ने किया है। नारद – मोह प्रसंग, सती-मोह प्रसंग, गरुड़-मोह प्रसंग, काकभुशुंडि-मोह प्रसंग इसी को इंगित करते हैं। काकभुशुंडि गरुड़ से कहते हैं कि प्रभु राम किसी के अहंकार को रहने नहीं देते क्योंकि यह समस्त शोक और क्लेश का कारण है:—

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । 

जन अभिमान न राखहिं काऊ संसृत मूल सूलप्रद नाना ।

 सकल सोक दायक अभिमाना।।

यह भी पढ़े :—

  1. तुलसीदास की भाषा और काव्य सौंदर्य
  2. तुलसीदास का जीवन परिचय और रचना संसार
  3. भारतीय परंपरा में प्राचीन समय से लेकर तुलसीदास तक के राम भक्ति साहित्य के विकास पर प्रकाश डालिए |

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