नागमती वियोग खण्ड में विरह वेदना और प्रकृति संवेदना पर प्रकाश डालिए | - Rajasthan Result

नागमती वियोग खण्ड में विरह वेदना और प्रकृति संवेदना पर प्रकाश डालिए |

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नागमती वियोग खण्ड मलिक मुहम्मद जायसी वस्तुतः प्रेम की पीर के कवि हैं।उनका विरह वर्णन अद्वितीय है। जायसी को यह भी सम्मान प्राप्त है कि वे सूफी काव्यधारा के मूर्धन्य कवि हैं। उनके हृदय से प्रेम की पीर और विरह वेदना का स्वर मुखर हो कर काव्य में मूर्त रूप में हमारे सम्मुख विद्यमान है।अनेक विद्वानों का मानना है कि जायसी विरह गीत जितनी मर्मस्पर्शी वाणी में गा सके हैं उतने कोई भी कवि नहीं गा पाया है।

नागमती वियोग खण्ड

पद्मावत कवि की अत्यंन्त मार्मिक कृति है ।इसमें कवि ने छ: स्थलों पर राजा रत्नसेन की विरह व्यथा का अलौकिक वर्णन किया है ।पदमावत मूलतः एक विरहभावना को अभिव्यक्त करने वाला काव्य है। कवि ने इसमें रत्नसेन पदमावती नागमतीऔर अलाउद्दीन की विरहव्यथा को सुचारु रूप से अंकित किया है।

राजा रत्नसेन का विरह वर्णन – पदमावत में अनेक स्थलों पर राजारत्नसेन के विरह का अलौकिक चित्रण किया गया हैं। छ: स्थलों पर राजा के विरह का भावपूर्ण चित्रण हुआ है। प्रेम खण्ड में हीरा मन तोते द्वारा पदमावतीके अलौकिक सौंदर्य को सुनकर राजा मूर्छित हो जाता है जिसका बडा ही मार्मिक चित्रण कवि ने किया है।

इसी तरह राजा गजपति खंड सती खंड पार्वती महेश खंडतथागढ छेका खंड एवं लक्ष्मी समुन्द्रखं डमें जायसी ने रत्नसेन के अलौकिक विरह का वर्णन किया है।

पद्मावती के विरह का वर्णन – राजा रत्न सेन की तरह पदमावती के विरह का वर्णन भी बहुत मार्मिक एवं दिल को छू लेने वाला है। पदमावतीके विरह कावर्णन पांच स्थलों पर हुआ है। वियोग खण्ड 3 गन्धर्व मैत्री खण्ड लक्ष्मी समुद्रखंण्ड पद्मावती नागमती खण्ड 4 एवं पदमावती गोरा-बादल संवाद खण्ड आदि में सभी स्थलों पर अत्यन्त मार्मिक वर्णन हुआ है।

नागमती विरह व्यथा का वर्णन – पदमावत महाकाव्य में नागमती के विरह का वर्णन तीन स्थलों पर किया गया है। नागमती 5 वियोग खण्ड एवं नागमती संदेश खण्ड तथा पदमावती-नागमती विलाप खंडमें विरह वेदना का वर्णन अतीव हृदय द्रावक है। सम्भवतः ऐसा हृदय विदारक वर्णन साहित्य में नहीं मिलता।

बादशाह अलाउदीन की विरह व्यथा का वर्णन – पदमावत में बादशाह अलाउदीन के विरहव्यथा का वर्णन भी बड़ा मर्म स्पर्शी है जिसका वर्णन पदमावती रूपचर्चा खंण्ड में मिलता है।राघव चेतन चितौडगढ को छोड़ने के बाद बादशाह अलाउदीन के पास पहुंच कर अलाउदीन को पदमावती के रूपसौंदर्य के बारे में बताते हैं जिसे सुनकर राजा विरह व्यथित होकर तडपने लगता है जिस का सुन्दर वर्णन जायसी ने पदमावत में किया है।

पदमावत में यद्यपि अनेक पात्रों का विभिन्न स्थलों पर मर्म स्पर्शी विरह वर्णन किया है परन्तु सबसे अधिक नागमती का विरह वर्णन पाठकों को द्रवित करता है क्योंकि ऐसा मार्मिक वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता। जायसी के विरह वर्णन की क्या विशेषताएं हैं जिनके कारण उन्हें विरह वर्णन का सर्वश्रेष्ठ कवि माना लाता है। निम्नलिखित बिन्दु उनकी विशेषताओं को स्पष्ट करने में सक्षम होंगे।

विरह की व्यापकता – पदमावत में विरह की व्यापकता अतिशयोक्ति के रूपमें दिखाई गई है। कहीं कहीं कवि की अतिशय कल्पना ने कथानक को अविश्सनीय बना दिया है। विरह की आग में सम्पूर्ण सृष्टि जल उठती है। सृष्टि में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो इस आग में जल न उठा हा न केवल मानव बल्कि पशु पक्षी सूर्य आकाश पाताल स्वर्ग एवं ब्रह्माण्ड सभी विरहाग्नि में जलते नजर आते हैं।

विरह के आगि सूर जरि कांपा । 

राति दिवस जरै ओह तापा।।

खिनहि सरग खिन जाइ पतारा । 

थिर न रहै एहि आगि अपारा ।।

रुदन से परिपूर्ण महाकाव्य – पदमावत में सर्वत्र रुदन की अतिव्याप्ति पाठकों को उद्वेलित करने वाली है।इस प्रबन्धकाव्य के सभी स्त्री पुरुष पात्र विरह में अत्यधिक आंसू बहाते हुए चित्रित किए गए हैं। अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन से प्रबन्ध काव्य की गरिमा में कमी महसूस होती है। कहीं तो पर्वतों के शिखर आंसुओं में डूब जाते हैं तो कहीं समुद्र अपनी मर्यादा भूल जाता है।

पदिक पदारथ कर-हुंत खोबा।

टूटहि रतन रतन तस रोबा।

गगन मेघ जस बरसै भला ।

पुहुमी पूरि सलिल बहि चला।

सायर टूट शिखर गा पाटा ।

सूझ न बार पार कहुं घाटा।।

विरह ताप की व्यापकता – पदमावत में विरह की तीव्रता के साथ साथ विरह ताप की अतिशयता का भी वर्णन किया है। अन्य प्राणियों के अतिरिक्त नागमती भी विरह की आग में जलने लगती है सृष्टि के अन्य पदार्थ भी जलते दिखाई देते है।

अस परजरा विरह कर गठा।

मेघ साम भए घूम जो उठा ||

दाधा राहु केतु गा दाधा।

सूरज जरा चांद जरि आधा ।।

औ सब नखत तराईं जरहीं ।

टूटहिं लूक धनि महं परहीं ।।

जरै सो धरती ठावहिं ठाउं।

दहकि पलास जरै तेहि ठाउं ।।

विरह का हृदय विदारक चित्रण – जायसी ने न केवल विरह ताप का ही उल्लेख किया है अपितु विरही जनों की वेदना तथा दर्द का भी हृदय विदारक वर्णन किया है। राजा रत्नसेन के हृदय में जब विरह की आग जलती है तो राजा रत्नसेन अत्यन्त करुणा जनक स्थिति में पहुंच जाता है। उदाहरण देखिए

विरह भौर होइ भांवरि देई |

खिन खिन जोउ हिलोरा लेई ||

खिनहिं उसांस बूडि जिउ जाई | 

खिनहिं उठै निसरै बौराई ||

खिनहिं पीत खिनहोइ मुख सेता | 

खिनहिंचेत खिन होइ अचेता ||

इसी तरह नागमती का विरह वर्णन भी अत्यन्त हृदय विदारक एवं करुणा जनक है। उदाहरण देखिए

 

विरह वाण तस लाग न डोली | 

रकत पसीज भांजि गई चोली ||

सूखहिं हियां हार भा भारी |

हरेहरे प्राण तजहिसब नारी ||

खन एक आव पेटमहं सांसा |

खनहिं जाइ जिउ होइ निरासा ||

मींचहिं चोला पहर एक |

समुझहिं मुख पवन बोला ||

प्रकृति की संवेदनशीलता का सुन्दर चित्रण – पदमावत में विरह व्यथित पात्रों के साथ साथ प्रकृति को सहानुभूति व्यक्त करते हुए चित्रित किया गया है। पशुपक्षी पेड पौधे लताएं फूल आदि सारी प्रकृति विरही जनों के प्रति संवेदन शील दिखाई देती है। विरह का घनत्व इतना है कि पक्षी भी विरह की अग्नि में जलने लगते हैं तथा वृक्ष पत्ते छोडने लगते हैं।

जेहि पंखी के निअर होइ कहै विरह कै बात | 

सोइ पंखी जाइ जरि तरिवर होइ निपात ||

निस्सहाय विरही की दयनीय स्थिति का वर्णन- पदमावत में जायसी द्वारा विरही व्यक्ति की दयनीय दशा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। पदमावती के अनुसार यदि पेड के पत्ते को पेड से अलग करके पृथ्वी पर वायु गिरा देती है तथा पेड चूरचूर करके उसे ठुकरा देता है तो वह बेचारा पत्ता किस वृक्ष पर जा कर सहारा ले सकता है। पदमावत की भी यही स्थिति है। प्रियतम के ठुकराने के बाद वह किस का सहारा ले सकती है।

आवा पौन विछोह कर पात परा बेकरार |

तरिवर तजै जो चूरि कै लागै केहि की बार ||

विरह के प्रभाव का नायक नायिका आदि पर प्रभाव- जायसी ने पदमावत में विरही की पीडा का व्यापक तथा मार्मिक चित्रण किया है। इस प्रयास में अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन से मार्मिक अभिव्यक्ति में शिथिलता आई है। फारसी पद्धति से प्रभावित होने के कारण कवि अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन करता हुआ कहता है कि नागमती वियोग की आग में जलकर कोयला हो गई है।

तोला मांस भी उसके शरीर में नहीं रहा । उसके शरीर में रक्त की एक बूंद भी शेष नहीं है। नागमती का शरीर गल कर क्षीण हो गया है। उधर पदमावती राजा रत्नसेन के वियोग में डूब कर रस्सी के समान पतली हे गई है

1. दहि कोयला भई कंत सनेहा |

तोला मांसु रहा नहीं देहा ||

रक्त न रहा विरह तन गरा |

रतीरती होइ नैनन ढरा ||

 

2. लेजुरि भइ नाइ बिनु तोही |

कंबा परी धरि काठसि मोही ||

विरह वर्णन में तीज त्योहारों का मिश्रण- विहारी ने बडी कुशलता से विरही व्यथा को स्वाभाविकता प्रदान करने के लिए परम्परागत तीज त्योहारों का आश्रय लिया। तीज त्योहार तथा पर्व आदि संयोगकाल में नायक-नायिकाको सुख प्रान करते हैं परन्तु वियोग काल में विरही को बेचैन बना देते हैं। नागमती अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते हुए कहती है कि निष्ठुर प्रियतम! अब तो घर लौट आओ सारा संसार दीपावली का पर्व मना रहा है जबकि मैं तुम्हारे बिना व्याकुल हूं –

अबहुं निठुर आउ एहि वारा |

परब दिवारी होइ संसारा ||

तथा- सखि झूमक हौ गावै अंग मोरी |

हौ झुरावं विछुरी मोरि जोरी ||

जनसाधारण का विरह वर्णन- पदमावत के छोटे बड़े सभी पात्र जनसाधारण की तरह विरह व्यथित दिखाई देते हैं ।इन में राजा रानी दास दासियां एक समान प्रभावित दिखाई देते हैं । नागमती का कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है

तपै लागि अब जेठअसाढी |

मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढी ||

तथा- कोरे कहां ठाट नव साजा |

तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा ||

सात्विक प्रेम की प्रधानता- पदमावत में विरह निरुपण में भोग विलास की प्रधानता नहीं हैंअपितु सात्विकता की प्रधानता है। पदमावत में सारे पात्र वियोग की आग में जल कर पावन विनम्र तथा सात्विक बन चुके हैं। उनके मन में गर्व और अहंकार कीजगह नही है न ही विषय भोगों के प्रति उनके मन में कोइ रुचि है। जिस प्रकार आग में तप कर सोना शुद्ध कुंदन बन जाता है उसी प्रकार नागमती के रजोगुण तथा तमोगुण विरह की आग में जलकर भस्म हो जाते हैं तथा उसमें केवल सतोगुण ही प्रबल रह जाता है। नागमती का कथन द्रष्टव्य है

मोहि भोग सों काज न वारी |

सौंह दीठि की चाहन हारी ||

नागमती अपने शरीर को जलाकर राख कर देना चाहती है। वह पवन को भी कहती है कि इस राख को चारों ओर उड़ा कर बिखेर दे ताकि यह उस रास्ते जा कर गिरे जहां पर उसका प्रियतम पैर रखकर निकलेगा तथा इस तरह कहीं उसके पैरों का स्पर्श हो सके।

यह तन जारौं छार कै कहौ कि पवन उडाव । 

मकु तेहि मारग उडि परै कन्त धरै जहं पांव ।।

नागमती के अतिरिक्त राजा रत्न सेन में भी सात्विकता एवं पावनता के दर्शन होते हैं। विरह कारण वह भौतिक कष्टों से परिपूर्ण कुछ क्षणों के लिए मृत्यु को छोडकर देवलोक में पहुंच जाता है तथा सचेत हो कर पुनः कुछ कहने लगता है

जब भा चेत उठा वैरागा | बाउर जना सोइ उठि जागा ||

आवत जगबालक जस रोआ | उठा रोइ हा ग्यान सो खोआ || 

हौं तों अहा अमर पुर जहां | इहां मरनपुर आएउँ कहां ||

विरह वर्णन फारसी पद्धति के अनुरूप – पदमावत में फारसी पद्धति के अनुरूप विरह का चित्रण हुआ है।यही कारण है कि पदमावत में वर्णित विरह वर्णन भारतीय विरह वर्णन के अनुरूप नहीं है। 7 विरह वर्णन में विरही जन की आंखोंसे आंसुओं के स्थान पर रक्त की धारा प्रवाहित होती है। यहां तक की रत्नसेन भी विरह व्यथित हो कर रोने लगता है तथा उसकी भी आंखों से खून टपकने लगता है जिससे उसके वस्त्र भी लाल रंग के हो जाते हैं।

नैनन चली रक्त की धारा |

कंथा भीजी भयेउ रतनार ||

नागमती भी कोयल के समान कूकती है। उसकी आंखो से खून के आंसू पृथ्वी पर गिरते हैं और जमीन पर गुंजा के ढेर लग जाते हैं-

कूहुक कूहुक जस कोयल रोई । 

रकत-आंसू घुघुयी बन बोई। 

जहं जहं ठाढि होई बनवासी। 

तह तह होइ घुघुचि के रासी।।

इस तरह जायसी का विरह वर्णन पदमावत में पूरी तरह व्याप्त है। डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने ठीक ही लिखा है- जायसी के विरह वर्णन में वेदना एवं पीडा का आधिक्य है उसमें कोमलता सरलता एवं गंभीरता भी पर्याप्त मात्रा में है और षडऋतुओं तथा बारह मासे कम रूप में प्रकृति का भी अत्यधिक सहयोग लिया गया है।

अतिशयोक्ति पूर्ण विरह वर्णन कथानक पर भारी पडा है फिर भी कवि का यह विरह वर्णन बिहारी आदि रीति कालीन कवियों की भांति मजाक की हद तक नहीं पहुंचा है। उसमें संवेदनशीलता एवं प्रभावोत्पादकता अधिक है। उसके प्रत्येक शब्द में हृदय को दोलायमान करने की अपूर्व शक्ति है और उसके प्रत्येक स्थल विरह की आकुलता टीस तडप आह दर्द से भरे हुए हैं।

 

संदर्भ सूचि

1. श्री रामचन्द्र शुक्ल जायसी ग्रन्थावली सम्पादन

2. उपरोक्त उपरोक्त – पदमावत प्रेम खण्ड

3. उपरोक्त – उपरोक्त वियोग खण्ड

4. उपरोक्त – उपरोक्त पदमावती नागमती खण्ड

5. उपरोक्त – उपरोक्त – नागमती वियोग खण्ड

6. उपरोक्त – उपरोक्त

7. श्री रामचन्द्र शुक्ल – जायसी ग्रंन्थावली पृ 164

8. उपरोक्त उपरोक्त – नागमती वियोग खण्ड

यह भी पढ़े :–

  1. तपै लाग अब जेठ असाड़ी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी |
  2. नागमती चितउर पंथ हेरा । कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी |
  3. पिउ बियोग अस बाउर जीऊ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी |

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