निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राण | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |

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निज सहज रूप में संयत हो जानकीप्राण

बोले “आया न समझ में यह दैवी विधान।

रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,

यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!

करता मैं योजित बार बार शरनिकर निशित,

हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,

जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,

हैं जिनमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत शुद्धिबोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,

जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,

जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,

वे शर हो गये आज रण में श्रीहत, खण्डित!

देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक,

लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,

हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार बार,

निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।

विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,

झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों त्यों,

पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,

फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!”

निज सहज रूप में संयत

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में राम की इस भावना का वर्णन किया गया है कि क्रूर और अजीब दैवी-विधान के फलस्वरूप रावण की ओर से महाशक्ति युद्ध कर रही है, जिसके कारण मेरे मंत्रपूत वाण – प्रहार निष्फल हो जाते हैं।

व्याख्या – कवि कहता है कि तदंतर जानकी-वल्लभ राम ने अपने सहज रूप में संयत स्वर में कहा कि मैं इस विचित्र ईश्वरीय विधान को नहीं समझ सका हं कि दैवी शक्तियों के लिए रावण अधर्म में लीन होते हुए भी अपना है जबकि मैं धर्मानुकरण करते हुए भी पराया हूं।

हे शिव! शिव!! यह युद्ध तो शक्ति का खेल बनकर रह गया है। मैं अपने धनुष पर बार-बार बड़े तीव्र ऐसे वाणों को चढ़ाता हूं, जिनके द्वारा इस संपूर्ण सृष्टि को जीता जा सकता है, जो तेज के समूह हैं, जिनमें सृष्टि-रक्षा का विचार छिपा हुआ है, जिनमें उद्धार करने वाली अपार संस्कृति निहित है, जिनमें पूर्णतया शुद्ध ज्ञान निहित है, जिनमें सूक्ष्म-से- सूक्ष्म मन का विवेक है।

जिनमें क्षात्र धर्म का पूर्ण अभिषेक धारण किया हुआ है अर्थात् जो क्षात्र-धर्म से ओत-प्रोत है, जो प्रजापतियों के संयम से रक्षित हैं, मेरे वही वाण आज रण में शोभा बढ़ाने के स्थान पर शोभा-विहीन होकर टूट गए हैं अर्थात् अपने लक्ष्य की सिद्धि में असफल हो गए हैं। मैंने आज रण में देखा था कि महाशक्ति रावण को अपनी गोद में उसी प्रकार छिपाए हुए है, जैसे आकाश में चंद्रमा लांछन को अपने साथ धारण किए रहता है ।

महाशक्ति मेरे मंत्रों से पवित्र किए गए वाणों को बार-बार रोककर तोड़ती जा रही थी। मैं बार-बार अपने लक्ष्य पर प्रहार करता था, किंतु बार- बार मेरे सभी प्रहार निष्फल होते जा रहे थे। मैं युद्ध स्थल में वानर-दल को देखकर ज्यों-ज्यों क्रुद्ध होकर युद्ध करता था, त्यों-त्यों महाशक्ति की आंखों से चिनगारियां निकलने लगती थीं। तदनंतर वह मेरी ओर एकटक दृष्टि से देखने लगी, जिससे मेरी दृष्टि और हाथ बंध गए।

मेरे हाथ बंध जाने पर मुझसे धनुष नहीं खिंच सका और मैं मुक्त होते हुए भी बंधनग्रस्त-सा हो गया। अपनी इस विचित्र दशा को देखकर मैं भयभीत – सा हो गया। मैं यह देखकर चकित था कि यद्यपि मैं बंधनग्रस्त नहीं हूं, फिर भी मेरे हाथ शर – संधान के लिए नहीं उठ पा रहे हैं।

विशेष

1. कवि के उपर्युक्त विवरण पर बंगाल की काली पूजा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।

2. निराला ने रावण को महाशक्ति द्वारा गोद में लिए रहने के लिए चंद्रमा द्वारा कलंक को गोद में लिए रहने का जो उपमान प्रस्तुत किया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है।

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