निरखि सुजान प्यारे रावरो रूचिर रूप | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
निरखि सुजान प्यारे रावरो रूचिर रूप, बाबरो भयौ है मन मेरी न सिखौ सुनै ।
मति अति छाकी गति थकी रतिरस भीजि, रीझ की उझिल घनआनन्द रह्यौ उनै ।
नैन बैन चित-चैन है न मेरे बस, मेरी दसा अचिरज देखो बूड़ति गहै ग्रनै ।
नेह लाम रूखे आता कैसे हूजियत हाय, चंद ही के चाय च्वै चकोर चिनगी चुनै ॥ (२५)
निरखि सुजान प्यारे रावरो
प्रसंग :— यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से लिया गया है। प्रिय के रूप प्रेम में बंधा प्रेमी का हृदय कभी भी चैन नहीं पाता । वह विरह की आग में हमेशा तड़पता और निष्ठुर प्रिय को कोसते रहा करता है। विरही-मन में इसी प्रकार के हाव-भावों को इस पद्य में वर्णित करते हुए कवि कह रहा है – –
व्याख्या :— हे प्रिय सुजान! तुम्हारे सुन्दर रूपाकर को पहली नजर में ही देखकर मेरा मन बावला होकर रह गया है। मैं इसे बार-बार समझाने-बुझाने की कोशिश करता हूँ, पर तुम्हारे रूप – सौन्दर्य के दर्शन से बावला बन गया। मन मेरी एक भी शिक्षा नहीं सुनता। मेरी शिक्षा भरी बातें सुनकर भी यह बावला मन धीरज नहीं रख पा रहा ।
तुम्हारे प्रेम के रस में मेरी बुद्धि तो जैसे छककर रह गई है और गतिदशा एकदम थक गई है- अर्थात् तुम्हें छोड़कर और किसी तरफ जाना ही नहीं चाहती। अब तो बस प्रेम की वर्षा करने वाले आनन्द के घने बादल ही मेरी मति गति पर छा रहे हैं। अर्थात् प्रेम के कारण मन पर जो आनन्द की वर्षा होती है, वही मेरा सर्वस्व बनकर रह गया है। तुम्हारे प्रेम के कारण अपनी आँखों, बोलो और यहाँ तक कि मन के चैन पर भी अब मेरा कुछ बचा नहीं रह गया।
मेरी दशा तो कुछ इस प्रकार आश्चर्यजनक बनकर रह तुम्हारे सौंदर्य-गुण-रूपी रस्सी पकड़े रहने पर भी चेतना डूबती ही हाय, पता नहीं, इतना प्रेम करने के बाद अब तुम इतने रूखे अर्थात् कठोर केसे बन गए हो? हाय! कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा । उधर मेरी दशा तो उस चकोर के समान होकर रह गई है कि जो चन्द्रमा की किरणों के चाव में अंगारे ही निगलने लगता है। अर्थात् मेरे मन- रूपी चकोर के लिए तेरे विरह-रूपी अंगारे ही सब कुछ बनकर संतोषप्रद हो गए हैं। गई है कि जा रही है।
विशेष
1. प्रथम दर्शन में प्रेम-विमग्नता और बाद में विरहजन्य व्यथा का सजीव एवं प्रभावी चित्रण दर्शनीय है।
2. विप्रलम्भ शृंगार – पक्ष की पद्य में प्रधानता है।
3. चकोर की परम्परागत काव्य – रूढ़ि का सार्थक प्रयोग किया गया है।
4. पद्य में उपमा, रूपक, असंगति, छेकानुप्रास आदि कई अलंकार हैं।
5. पद्य – भाषा माधुर्यगुण- प्रधान, ध्वन्यात्मक, संगीतमय और प्रभावी है। सभी तरह के विचार व्यक्त कर पाने में पूर्ण समर्थ है।
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