बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि है सिद्ध कीजिए | - Rajasthan Result

बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि है सिद्ध कीजिए |

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बिहारी रीतिकाल के महत्वपूर्ण रीतिसिद्ध कवि हैं. रीतिकाल की ख्याति भी बिहारी की वजह से है. बिहारी उन कवियों में गिने जाते हैं जिन्होंने कम लिखकर अधिक ख्याति प्राप्त की है.हिन्दी के प्रमुख आलोचक डॉ. बलराम तिवारी का मत है कि, ‘बिहारी अपने सामंती मिजाज एवं दरबारी रुझान के कारण पूर्ववर्ती शृगारी कवियों से भिन्न तो हैं ही, रीतिकवियों में भी भिन्न और विशिष्ट हैं. उनका प्रेमदृष्टिकोण भारतीय साहित्य में प्रचलित उद्दात प्रेम-आस्था को एक झटका देता है. वे प्रेम के आदर्श को नहीं, वासना के यथार्थ को तूल देते हैं।

लोकोन्मुखता नहीं वैयक्तिक अद्वितीयता उनका साहित्यिक मूल्य है.’ इनके जन्म को लेकर थोड़ी विवाद की स्थिति है कुछ के मन्तव्य हैं कि बुंदेलखंड के रहने वाले हैं तो कुछ उन्हें ग्वालियर (म. प्र. ) के निकट बसुआ गोविन्दपुर नामक गाँव में जन्म (1595 ई.) हुआ है, बताते हैं. बिहारी हरिदासी संप्रदाय में दीक्षित स्वामी नरहरि दास के शिष्यतत्व में रहे. जयपुर के राजा मिर्जा जयसिंह के संरक्षण में ‘सतसईं’ की रचना की. इनकी मृत्यु 1663 ई. में हुई.

बिहारी की साहित्यिक ख्याति का आधार उनकी सतसईं है. इसमें उन्होंने जीवन के अपने व्यापक अनुभव, पर्यवेक्षन और बहुज्ञता का एक साथ परिचय दिया. बिहारी की रचना में नायिका भेद, अलंकार, रस, नखशिख, रीतियों और गुणों के उदाहरण से उनके दोहे भरे पड़े हैं. श्रृंगारिकता इनके काव्य का मुख्य आधार हैं. इनके सतसई में संयोग एवं वियोग श्रृंगार दोनों पक्ष का वर्णन है.
इनके काव्य की भाषा ब्रजभाषा है. इनके काव्य में संस्कृत और फ़ारसी के शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है.

बिहारी रीतिकाल के दोहे

(1)  मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई,
जा तन की झाई परै स्यामू हरित दुति होइ..
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में बिहारी अपनी मन की व्यथा को श्रीकृष्ण की प्रेयसी राधा से व्यक्त कर रहे हैं. वे प्रार्थना कर रहे हैं कि, हे ! राधा जो तुम जिस नगर में रही हो, और जिसके अर्थात तुम्हारे ही तन की परछाई, आभा पड़ने मात्र से श्रीकृष्ण जैसे श्याम वर्ण/रंग के व्यक्ति के शरीर के रंग में हरापन आ जाता है, वैसे ही मेरी भी सांसारिक कष्टों का निवारण करो. मेरी भी बाधा का हरण कर लो. मुझमें भी वह चमक आ जाये. ऐसी मेरी आपसे प्रार्थना है.
विशेष : भव और स्यामू में श्लेस अलंकार है.
(2) सनि कज्जल चख झख लगन, उपज्यो सुदिन सनेह.
क्यों न नृपति हवे भोगवै, लहि सुदेश सब
भावार्थ :- बिहारीलाल इस पद के माध्यम से काजल को शनि अर्थात शानैश्वर है, आँखें मीन लग्न की भांति है ( शनि और मीन लग्न के संयोग से ) इस शुभ घड़ी में प्रेम की उत्पत्ति हुई है. फिर वह प्रेम के कारण समूचे शरीर-रूपी सुन्दर देश को पाकर (उसका ) राजा की भांति बनकर क्यों न उपभोग किया जाये.
विशेष :- इस पद में ‘सनि कज्जल, चख-झख’ में रूपक अलंकार है.

(3) लाज लगाम न मनाहिं, नैना मो बस नाहिं.
ये मुँहजोर तुरंत लौ एन्चत हूं चलि जाहिं..
भावार्थ :- इस पद में नायिका अपनी सखी से कहती हैं, कि मेरे नेत्र अब मेरे वश में नहीं हैं. ये लाज रूपी लगाम को नहीं मानते हैं. खींचने या रोकने पर भी मुँह जोर घोड़े की तरह नायक की ओर चले जाते हैं. जिस प्रकार लगाम को मुँह से दबा देने वाला घोड़ा लगाम को खींचने पर नहीं रुकता हैं. आगे की ओर दौड़ता ही चला जाता है. उसी प्रकार अब मेरे नेत्र लज्जा का फ़िक्र किए बिना बार-बार नायक की ओर (ऐंठन भरी दृष्टि) से देखती ही जा रही है.
विशेष :- नाहिं.. जाहिं में अन्त्यानुप्रास अलंकार है. आँख की तुलना घोड़े की लगाम से की गई है.

(4) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ.
सौंह करें, भौहनि हँसे, दैन कहै नटि जाई..
भावार्थ :- प्रस्तुत दोहे में कवि ने गोपियों के द्वारा कृष्ण की बांसुरी चुराए जाने का वर्णन है. गोपिकाएं कृष्ण से बातचीत करने के लालच में गोपिकाओं द्वारा के कृष्ण की बंसी छुपा दी जाती है, वे बांसुरी इसलिए भी छुपा दी हैं ताकि कृष्ण उनसे बात करे. बांसुरी के बारे में पूछे जाने पर उनके द्वारा नख़रे भी दिखाई दी जा रही है. वे भौं से इशारा करके कह भी रही हैं और कसम भी खाती हैं कि बांसुरी उनके पास नहीं हैं और मुँह से नहीं नहीं होने की बात भी कह रही हैं.
विशेष :- ‘लालच लाल’ में अनुप्रास अलंकार है.
(5) कहत, नटत, रिझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात.
भौन में करत हैं हैं नैननु ही सब बात..
भावार्थ :- बिहारी इस पद में प्रेम में नेत्र कैसी भूमिका अदा करते हैं, इसी की व्यंजना को रेखांकित किए हैं. प्रेमी और प्रेमिका किसी भीड़भाड़ वाले भवन में कैसे अपनी नेत्रों के माध्यम से आपस में संवाद कर रहे हैं. कैसे अपनी बात एक-दूसरे तक पंहुचा रहे हैं. कहना, मना करना, रीझना, खीझना, मिलना, खुश होना और फिर शर्माना… और फिर उस भरे भवन में मौन धारण कर लेना और सिर्फ आँखों से सारी बातें करना यह सिर्फ एक प्रेमी और प्रेमिका ही इस तरह की वार्ता करने में माहिर हो सकते हैं हैं |
विशेष :- कहत, नटत आदि में अनुप्रास अलंकार है.

(6) भूषण भार संभारि हैं, क्यों यह तन सुकुमार.
      सूधे पाय न परत धर सोभा ही के भार..
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में सखी नायिका से व्यंग्यपूर्वक कहती है. बिना आभूषण के ही, सौंदर्य के भार से तुम अपने इस नाजुक देह को ऐंठ कर चलती हो, फिर आभूषण पहनने पर न मालूम तुम कैसे अपना पाँव जमीन पर रखोगी?
विशेष :- ‘सूधे पाय न परत में मुहावरे का प्रयोग .
(7) या अनुरागी चित की, गति समुझै नहिं कोय.
ज्यों ज्यों बूरे स्याम रंग, त्यों त्यों उज्जल होय.. 
भावार्थ :- बिहारी प्रस्तुत पद में कह रहे हैं कि इस प्रेमी मन की चाल (अटपटी चाल) कोई नहीं जनता. यह कृष्ण की भक्ति में इतना डूबा है की जितना ही उसमें डूबता उतना ही वह मन निर्मल होकर उपस्थित हो रहा।
विशेष :- ‘ज्यों -ज्यों -त्यों -त्यों..’ में विरोधाभास के साथ-साथ अनुप्रास अलंकार है. स्याम रंग में श्लेष अलंकार है.

(8) तंत्री-नाद कवित-रस, सरस राग रति-रंग,
अनबूड़े-बूड़े तीरे, जे बूड़े सब अंग..
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में बिहारी कह रहे हैं, कि तंत्री नाद अर्थात वीणा के मधुर ध्वनि में, कवित्त रस अर्थात , काव्य के रस का स्वाद सरस राग अर्थात रसीले गीत का स्वाद रति रंग अर्थात काम-क्रीड़ा आदि ऐसे तत्व हैं जिसमे बिना डूबे कोई आनंद नहीं मिलता. अगर इसमें डूबना हो तो पूर्णतया से डुबो अन्यथा नहीं डुबो.
विशेष :- ‘अनबूड़े बूड़े में विरोधाभास अलंकार है.
(9) अजौ तरयौना ही रहयो, श्रुति सेवत इक अंग.
नाक बास बेसरि लयो बसि मुकुतनु के संग..
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में बिहारी सत्संग की महिमा का बखान करते हैं . कहते हैं कि आज भी एकमात्र ढंग से कानों को सेते रहने अथवा साथ रहने से ‘कर्णफूल’ कर्णफूल ही रह गया है, जबकि कान हमेशा वेद पाठ का सेवन करता रहा वहीं मुक्ताओं की संगति करके नाक का बेसर ने नाक का सहवास पा लिया अर्थात उच्च स्थान प्राप्त कर लिया . यहाँ कवि ने एक श्लेषठ भाव व्यक्त किया है – एक मात्र वेद का पाठ करने से इस जीवन से कोई नहीं तरा बल्कि मुक्त-आत्माओं की सतसंगति करने से ही अनुपम स्वर्ग का वास बहुतों ने पाया है.
विशेष :- सम्पूर्ण पद में श्लेष अलंकार का प्रयोग हुआ है. कर्णफूल, बेसर का मानवीकरण किया गया है.
(10) अलि इन लोचन को कछु, उपजी बड़ी बलाय.
      नीर भरे प्रति दिन रहे तउ न प्यास बुझाय.. 
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में बिहारी कहना चाह रहे हैं, कि आँखों में हमेशा अनिष्ट ही होता रहता है, हे भौंरा ! प्रतिदिन इन आँखों में पानी अर्थात आंसू भरा रहता है, फ़िरभी इसकी प्यास नहीं बुझती है. यहाँ आंख, पानी और प्यास को श्लिष्ट अर्थ में प्रस्तुत हुआ है. दुख में नायिका का नयन हमेसा आंसू से भरा रहता है फिर भी नायक से मिलने की प्यास शेष है.

यह भी पढ़े :—

  1. श्रृंगार रस के दोहे बिहारी

 

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