भक्ति आंदोलन का भारत में इतिहास क्या है? व इसके उदय के कारण - Rajasthan Result

भक्ति आंदोलन का भारत में इतिहास क्या है? व इसके उदय के कारण

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भक्ति आंदोलन ने भारत की जनता के नैतिक,सामाजिक, राजनैतिक दृष्टिकोण में क्रांतिकारी बदलाव उत्पन्न किया महत्वपूर्ण पूर्ण रुप से भक्ति आंदोलन ने विभिन्न धर्मों के बीच विद्वान समानता ओं को प्रदर्शित किया उन्हें यह ध्यान देना भी महत्वपूर्ण है कि इसने समाज की विभाजक और विध्वंसक तत्वों के विरुद्ध सार्थक भूमिका अदा की कर्म योग और ज्ञान योग के साथ-साथ भक्ति योग के द्वारा भक्ति आंदोलन ने अपने आप को ईश्वर प्राप्ति के ढंग और मार्ग के रूप में स्थापित किया ।

इस इकाई के उद्‌देश

1 छात्र को प्राचीन और मध्यकालीन भारत के भक्ति आंदोलन के बारे में ज्ञान प्राप्त कर आना

2 छात्र को आंदोलन के नेताओं के उद्देश्य और सेवाओं को समझने के योग्य बनाना

3. छात्र को भक्ति आंदोलन के नेताओं के कार्यों का सम्मान करने की प्रेरणा देना।

भक्ति आंदोलन

भक्ति आंदोलन

भक्ति आंदोलन की प्रस्तावना

भक्ति पद संस्कृत के भज् धातु से निकला है। जिसका अर्थ होता है पूजा करना धर्म का अर्थ है वस्तु का प्राकृतिक गुण आंदोलन का अर्थ है वह व्यवहार जो समाज के एक बड़े भाग को प्रभावित करता है

आरंभ में भक्ति शब्द का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में इंद्र और सूर्य देवताओं की पूजा के अर्थ में हुआ है नारद भक्ति सूत्र में नारद द्वारा भक्ति पर प्रसिद्ध विमर्श में भी भक्ति का वर्णन हुआ है इसी तरह विष्णु सूक्त में भी भक्ति की चर्चा हुई है |

बाद में उपनिषदों ने परा भक्ति पर जोर दिया है विष्णु शिव रूद्र नारायण और सूर्य के भक्ति एवं उपासना का भी संकेत उपनिषदों में हुआ है रामायण महाभारत ने पितृ भक्ति और गुरु भक्ति पर बल दिया है |

भक्ति आंदोलन के सिद्धांत

भक्ति आंदोलन के प्रमुख सिद्धांत हैं :-

1. ईश्वर एक है

2. ईश्वर की पूजा के लिए मनुष्य को मानवता की सेवा करनी चाहिए

3. सभी मनुष्य समान हैं

4. समर्पण के साथ ईश्वर की पूजा धार्मिक कर्मकांड ओं के आयोजनों और तीर्थ स्थानों से श्रेष्ठ है

5. जाति भेद और अंधविश्वासी व्यवहार त्याज्य है I

 

भक्ति आंदोलन के हिंदू संत और सूफी आंदोलन के मुस्लिम संत अपने दृष्टिकोण में और अधिक उदार रहे वह अपने धर्मों में अंतर्निहित बुराइयों से मुक्ति चाहते थे आठवीं सदी से लेकर सोली सदी के बीच ऐसे कई संत पैदा हुए |

भक्ति आंदोलन का इतिहास

भक्ति पद को ईश्वर के प्रति समर्पण अथवा उत्कृष्ट प्रेम के रूप में परिभाषित किया जाता है मोक्ष अथवा पुनर्जन्म से मुक्ति नियमों विनियम अथवा सामाजिक अनु क्रमिक व्यवस्था के पालन में नहीं बल्कि ईश्वर के प्रति सहज समर्पण में है समकालीन विद्वानों ने ईश्वर के सगुण रूप की स्तुति करने वाले अर्थात सगुण भक्तों और ईश्वर उनको समस्त गुणों और रूपों से परे मानने वाले निर्गुण भक्तों के बीच महत्वपूर्ण अंतर किया है |

जैसा कि ऊपर बताया गया है भक्ति अनुभव और समर्पण की जड़ें पीछे ऋग्वेद तक ढूंढी जा सकती हैं ऋग्वेद का पहला ही श्लोक भगवान के प्रति आत्मीयता की अनुभूति को अभिव्यक्त करता है I कठोपनिषद में कहा गया है कि देवीय सहयोग जो की भक्ति का फल है से ही व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है |

श्वेताश्वतर उपनिषद् ईश्वर के प्रति सर्वोच्च समर्पण की बात करता है पाणिनी ने अष्टाध्यायी में भक्ति के विषय का वर्णन किया है भक्ति के सबसे प्राचीन पात्र भगवान विष्णु कृष्ण हैं भगवद्गीता में ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रेम पर जोर दिया गया है भगवान के प्रति प्रेम की प्रवृत्ति की अनुशंसा भगवद्पुराण तक में बराबर की गई है |

भक्ति आंदोलन के उद्भव के कारण

इस्लाम के आगमन से पहले भारत में हिंदू जैन और बौद्ध प्रमुख धर्म थे। समय के साथ कई दार्शनिक मतभेद उभरे जिससे हिंदू धर्म की सरलता नष्ट हो गई हिंदू धर्म के भीतर वैष्णव और शैव नाम के दो बिन संप्रदाय उत्पन्न हुए समय के साथ शक्ति की उपासना भी अस्तित्व में आई इससे साधारण जनता ईश्वर उपासना की विधि को लेकर दिग्भ्रमित हो गई इस्लाम जब भारत आया।

तब के हिंदू अनेकों प्रकार के धार्मिक कर्मकांड करते थे और विभिन्न देवी देवताओं की पूजा करते थे उनमें सभी प्रकार के अंधविश्वास प्रचलित थे हिंदू धर्म अपने स्वभाव में जटिल हो चुका था इसके साथ-साथ जाति व्यवस्था अस्पृश्यता आंध्र पूजा और सामाजिक विषमता ने जनता के विभिन्न वर्गों में असंतोष और मतभेद पैदा कर दिया था दूसरी और इस्लाम ने एकेश्वरवाद और भाईचारे की शिक्षा दी और एकेश्वरवाद पर जोर दिया इस्लाम ने मूर्ति पूजा पर प्रहार किया और अल्लाह के सम्मुख मनुष्य की समानता की शिक्षा दी |

शोषित आमजन और निम्न जातियों के लोग स्वाभाविक रूप से इस्लाम की ओर आकर्षित हुए इससे धर्मों के बीच प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा मिला कट्टरता, धर्माधता और धार्मिक असहिष्णुता ने सिर उठाना शुरू कर दिया इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए अनेक धार्मिक नेता देश के विभिन्न भागों में प्रकट हुए और ईश्वर की प्राप्ति के लिए शुद्ध समर्पण अथवा भक्ति की शिक्षा दी|

भक्ति आंदोलन का उदय

भक्ति का अर्थ है ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण | भक्ति ईश्वर से व्यक्ति के मिलन पर बल देती है भक्ति आंदोलन का उदय और विकास सातवीं से बारहवीं सदियों के बीच दक्षिण भारत में हुआ शिवपूजन नयनमारो और विष्णु पूजक आलवारों ने भक्ति की शिक्षा दी स्थानीय भाषाओं में उन्होंने दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में प्रेम और समर्पण के संदेश का प्रचार किया उन्होंने आम जनता में अपने संदेश का प्रचार विशेष रूप से किया इससे वैदिक आस्था वालों को प्राचीन वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने की प्रेरणा मिली शंकराचार्य रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य ने आत्मा और परमात्मा संबंधी अपने विचारों को प्रतिपादित किया ।

उत्तर में भक्ति आंदोलन

उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन मुसलमानों की भारत के अनेक भागों पर जीत के कारण गतिमान हुआ भक्ति आंदोलन के संत सभी वर्गों और जातियों से आए थे लेकिन वह विशेष रूप से निम्न वर्गों के स्त्री-पुरुष थे वह भक्ति के गीत गाते हुए स्थान स्थान पर भ्रमण करते थे उन्होंने ईश्वर की एकता और मनुष्य की समानता की शिक्षा दी वह विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता पर बल देते थे उनकी शिक्षाएं सहज थी I

अपने विकास के लंबी अवधि में हिंदू परंपरा विशेष रूप से कई ऐतिहासिक और धार्मिक कार्यों में विभाजन की गई हैI पवित्र ग्रंथों का रचनाकाल 2500 से 400 ईसा पूर्व का काल वैदिक काल के रूप में रेखांकित किया गया है इस काल के खानाबदोश लोगों के इंडो -आर्य के रूप में जाना जाता है वेदों का केंद्रीय स्तंभ ऋषि अथवा वे दृष्टा थे जो विभिन्न संश्लिष्ट कर्मकांड जो कि केवल धीरे-धीरे शक्तिशाली हो रहे पुरोहितों द्वारा कराए जा सकते थे के माध्यम से वैदिक सर्वेश्वर बाद के विभिन्न देवताओं से संपर्क कर सकते थे और उनके बारे में लोगों को बता सकते थे मुक्ति अथवा मोक्ष के लिए विशेष कर्मकांडो का शुद्ध निष्पादन किया जाता थाl

400 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसवी तक के काल द्वारा महाभारत और रामायण को केंद्रीय महत्व देने के कारण इसका नाम महाकाव्य काल और शास्त्र काल पड़ा इन महाकाव्यों का संबंध नायकों वीरता पूर्ण युद्ध राजा और रानियों और व्यक्तियों की आदर्श भूमिकाओं से है आदर्श समाज की चिंता करने वाली विधि संहिता ओं का भी इस काल में केंद्रीय महत्व था सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए पदानुक्रमवादी व्यवस्था थी इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका और जीवन के पड़ाव उसकी सामाजिक स्थिति या जाति के आधार पर निश्चित किए गए थे|

इस जाति व्यवस्था में सबसे ऊपरी स्थान ब्राह्मण पुरोहितों का था दूसरा स्थान क्षत्रियों और तीसरा स्थान वेश्यो का थाI केवल यही लोग जनेऊ धारण करने वेद अध्ययन करने और वैदिक संस्कारों में भाग लेने के लिए अधिकृत थे इन समूहों के नीचे शुद्र थे जो इनकी सेवा करते थे निचले स्तर पर अछूत आते थे जिनके काम इतने अपवित्र माने जाते थे कि उन्हें वर्ण व्यवस्था में शामिल करने योग्य भी नहीं माना गया यह अछूत जाति व्यवस्था से बाहर रखे गए थे पुनर्जन्म से मुक्ति अथवा मोक्ष के लिए महाकाव्य तथा विधि संहिताओं द्वारा निर्धारित और संचालित धर्म की समझदारी समाज व्यवस्था का सम्मान और पालन आवश्यक थाl

भक्ति आंदोलन का स्वभाव और विशेषताएं

भक्ति आंदोलन का स्वभाव

भक्ति आंदोलन का काल 1300-1500 ईसवी है। यह कर्मकांड विहीन और मुख्य रूप से भक्ति पर आधारित था इसका जो अनिवार्यता धर्म अथवा आस्था पर था जो अनिवार्यता हिंदू थी किंतु जिस पर इस्लाम के एकेश्वरवाद का गहरा प्रभाव था सभी भक्ति मत अनिवार्य थे एकेश्वरवादी थे। भगवान को शिवकृष्ण या देवी माना जाता था लेकिन यह महत्वहीन था कि वह सभी ईश्वर के एक और अनंत रूप को प्रतिष्ठित करते हैं भक्ति आंदोलन धर्म दर्शन और सामाजिक चिंतन है जिसकी रचना इस पुनरुत्थान काल में कोई और जिसने हिंदू धर्म को आगामी समस्याओं के लिए प्रभावशाली बनाया भारत के धार्मिक जीवन में इस काल की महिमा उत्कृष्ट है रामानंद कबीर मीरा और वल्लभाचार्य उत्तर में बंगाल में चैतन्य वह माधवाचार्य वेदांत देसीका और अन्य ढेर सारे संतो ने दक्षिण में इस काल के हिंदू धर्म को अपूर्व जीवन दिया |

 

भक्ति आंदोलन की विशेषताएं

एक ईश्वर में विश्वास भक्ति आंदोलन की सर्व प्रमुख विशेषता है भक्त प्रेम और समर्पण के माध्यम से ईश्वर की पूजा कर सकते थे दूसरी विशेषता यह है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए मूर्ति पूजा और कर्मकांड ओं की कोई जरूरत नहीं रह गई थी तीसरी विशेषता यह है कि संतों ने सभी जातियों की समानता पर बल दिया ईश्वर भक्ति के लिए ऊंच-नीच का भेद निरर्थक है चौथी विशेषता है हिंदू मुस्लिम एकता इन संतों के अनुसार सभी धर्मों के अनुयाई ईश्वर की दृष्टि में समान हैं |

संतो ने अपने उपदेश और शिक्षाएं लोक भाषाओं में दी उन्होंने संस्कृत जो कुछ सुसंस्कृत लोगों की भाषा थी का प्रयोग नहीं किया संतो ने हृदय की पवित्रता और सत्य इमानदारी करुणा और दान जैसे गुणों पर बल दिया संतो के अनुसार केवल नैतिक व्यक्ति ही ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं संतो ने ईश्वर को सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान माना उनके अनुसार गृहस्थ भी प्रेम और समर्पण के माध्यम से ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं कुछ नहीं स्वर को सगुण और कुछ नहीं निर्गुण माना |

भक्ति आंदोलन में प्रयुक्त मूल सिद्धांत एक ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण तथा ईश्वर की एकता मुख्य रूप से हिंदू धर्म की विशेषता है किंतु इस्लाम से संपर्क के फलस्वरूप यज्ञ उपवास तीर्थाटन गंगा स्नान अथवा मूर्तियों की पूजा जैसे कर्मकांडो की अपेक्षा इन सिद्धांतों पर अधिक बल दिया गया l

भक्ति आंदोलन में दो प्रमुख लक्ष्यों को ध्यान में रखा था पहला लक्ष्य था इस्लाम के भीषण और आक्रामक प्रचार से बच पाने की सामर्थ विकसित कर पाने के लिए हिंदू धर्म का सुधार करना और दूसरा लक्ष्य था इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच समझौता करना |

भक्ति आंदोलन के विकास के सहायक कारक

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के उदय और विकास के कई कारक थे | पहला महत्वपूर्ण कारक मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदुओं का उत्पीड़न माना जा सकता है मुसलमान शासक हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास करते थे| और न बनने पर उन पर जजिया कर लगाते थे जिसकी प्रतिक्रिया है हिंदुओं में कोई और उन्होंने भक्ति आंदोलन के माध्यम से अपने धर्म के संरक्षण का प्रयास किया दूसरा कारण था उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के प्रति दुर्व्यवहार निम्न जातियों के लोगों को अन्याय और क्रूरता सहनी पड़ती थी इसलिए संतो के इस संदेश ने कि ईश्वर भक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए खुले हैं निम्न जातियों के लोगों को आकर्षित किया तीसरे धर्म में बड़े-बड़े कर्मकांड और कठोरता को जनता पसंद नहीं करती थी भक्ति संतों ने भक्ति की शिक्षा दी और समस्त धार्मिक कर्मकांड का विरोध किया इससे भी जनता भक्ति आंदोलन की ओर आकर्षित हुई |

भक्ति आंदोलन के उदय और विकास का एक कारण संतों का उत्साह और प्रेरणा थी उन्होंने हिंदू समाज की बुराइयों को मिटाने का प्रयास किया और उसे नई जीवन शक्ति प्रदान की अंत में मूल रूप से हिंदू धर्म में अंतर नहीं सास्वत जीवन शक्ति का वह मुख्य कारण था जिसके फलस्वरूप उसका बौद्धिक और नैतिक पुनरुत्थान हुआ हिंदू धर्म में भक्ति आंदोलन के विचार के सभी पक्षों को प्रभावित किया और नई नैतिक शक्तियों का सृजन किया जिसने हिंदू धर्म को पुनर्जीवन और गतिशीलता प्रदान की सोलवीं सदी के मध्य में भारत में विधि साहित्य और यहां तक कि राजनीतिक विचारों के क्षेत्र में एक नया जीवन आया |

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