मीरा की भक्ति में उनके जीवनानुभवों की सच्चाई और मार्मिकता है, कथन से आप कहां तक सहमत हैं ?

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मीरा की भक्ति में उनके जीवनानुभवों की सच्चाई :– मीरा पन्द्रहवीं शताब्दी में संपूर्ण भारत में व्यापक रूप से प्रसारित वैष्णव भक्ति आंदोलन की मूल्यवान कड़ी है। उनके काव्य में भक्ति आंदोलन की प्रगतिशील अन्तर्वस्तु अपनी समग्रता में उद्घाटित है। इसे हम वर्ण व्यवस्था और नारी पराधीनता का संरक्षण करने वाले धर्म, शास्त्र और सामाजिक विधि-विधान के विरोध के रूप में देखते हैं। वस्तुत: मध्यकालीन समाज में धर्म ने सामान्य जनता की मुक्ति के हित में काम न करते हुए घोर शुचितावाद और बाह्याचार को बढ़ावा देकर सामाजिक वैषम्य को और गहरा किया।

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धर्म, शास्त्र, पुराण आदि ने निम्न वर्णों तथा प्रत्येक वर्ण और वय की स्त्री के लिए कुलीन जाति पुरूषों की सेवा और अभ्यर्थना को सुनिश्चित करने वाले कर्म, भाग्यफल और पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्तों का निर्माण किया। इस प्रकार उन शास्त्रों ने वर्ण व्यवस्था का सबसे मजबूत दार्शनिक आधार तैयार किया।

यही कारण है कि मनुष्य और मनुष्य में किसी का भेद न मानने वाले भक्ति आंदोलन के लिए ऐसे धर्म और इसकी समर्थक प्रणालियों का विरोध अनिवार्य हो गया। भक्ति आंदोलन का मुख्य आधार धार्मिक विचार या दर्शन नहीं था। उनके इसके भीतर वे सभी सामाजिक शक्तियां सक्रिय थीं जो वर्ण विभाजित सामंती समाज में मनुष्य की मुक्ति के मूल्यवान सवालों के प्रति केन्द्रित थीं।

बौद्ध, जैन धर्मों के साथ-साथ सिद्ध संतों, दक्षिण के आलवार भक्तों तथा रामानुजाचार्य, रामानन्द, मध्वाचार्य, नामदेव और चैतन्य महाप्रभु आदि महान संतों ने समय-समय पर इस ब्राह्मण-पुरोहित वर्चस्व वाली वर्ण व्यवस्था से कठिन संघर्ष किया है। कबीर, रैदास, तुलसी, जायसी और मीरा जैसे भक्त कवियों को मध्ययुगीन सामंती रूढ़ियों के विरोध की कांतिकारी विरासत इन्हीं आचार्यों और संतकवियों से प्राप्त हुई। मीरा की भक्ति में उनके मीरा की भक्ति में उनके

भक्ति युग को व्यापक लोकजागरण का युग कहा जाता है। भक्ति काव्य में मध्ययुगीन सामंती जड़ताजों के विरोध के साथ-साथ समाज और संस्कृति के पुनर्निर्माण की चेतना विद्यमान है। भक्त कवियों की सबसे बड़ी शक्ति ईश्वर की सर्वव्यापकता व सर्वसुलभता की प्रतिष्ठा कर सामान्य जन में आत्मगौरव का बोध जगाना तथा उनकी मुक्ति आकांक्षा को प्रेरित करना है। इसके लिए उन्होंने जनता को सामंती समाज के धार्मिक-सामाजिक अन्तर्विरोधों के प्रति सचेत किया। उनके द्वारा विकसित ईश्वर के सगुण-निर्गुण स्वरूप में सामान्य जन के विषमतापूर्ण जीवन के प्रति गहरी करूणा और इस विषमता से मुक्ति का प्रयत्न था।

इसलिए भक्त कवियों का यह ईश्वर स्वरूप तत्कालीन समाज के दलित-वंचित वर्गों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ और भक्तिकाव्य ने व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया। इस दृष्टि से हम देखते हैं कि मीरा की कृष्ण भक्ति में भी उनकी वैयक्तिक मुक्ति का प्रयत्न मात्र नहीं है, अपितु उसमें भी अपने समय के अमानवीय अन्तर्विरोधों की पहचान तथा उनसे संघर्ष का पक्ष सबल है।
एक ओर तो उनके काव्य में सगुण-निर्गुण काव्य धारा की सम्पूर्ण परंपरा अपने सर्वश्रेष्ठ के साथ समाहित है तो दूसरी ओर वे कबीर, जायसी और तुलसी जैसे कवियों से और आगे बढ़कर मध्ययुगीन समाज में नारी की दारूण स्थिति के प्रति प्रश्न उठाकर भक्तिकाव्य धारा में नारी मुक्ति चेतना का महत्वपूर्ण पक्ष जोड़ती हुई उसकी सामाजिक भुमिकां को पूरा करती है।
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अन्य भक्त कवियों की तुलना में मीरा ने कम लिखा है किन्तु जो लिखा है उसमें उनके कठिन जीवन संघर्ष के साथ गहरी लोकोन्मुखता और भविष्य दृष्टि है। वृन्दावन-गोकुल जैसे नैतिक मानवीय मूल्यों से सजे हुए समाज का वे केवल स्वप्न ही नहीं देखती, अपितु उसके लिए संघर्ष भी करती है। राणा और छद्म कुलमर्यादा का पोषण करने वाले राणा कुल और समाज का विरोध करती हुई मीरा राजसत्ता के विरोध के साथ-साथ पुरूषसत्तात्मक सामंती समाज का विरोध करती है ||

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