मनुष्य और ईश्वर में कोई भेद न मानते हुए सांसारिकता और सत्ता से निरपेक्ष होने के बावजूद वे धर्म और राजनीति के अमानवीय रूपों के तीव्र आलोचक थे उनका जीवन और सिद्धांत मनुष्य और मनुष्य में समानता के विश्वास पर आधारित था। यही कारण था कि प्राय: ये संत मध्ययुगीन भारत के किसान-कारीगर वर्गों के गहरे संपर्क में थे। शासक वर्गों से अपने किसी हित या महत्वाकांक्षा के कारण जुड़ने के लोभ से परे होने के कारण ही ये समाज के धार्मिक-सामाजिक अन्तविरोधों के प्रति आकामक थे।
सूफी संतों की उल्माओं या राजनैतिक आकाओं के मुंह पर खरी-खरी सुनाने के अनेक किस्से लोक में आज भी प्रचलित हैं। भक्ति आंदोलन पर इन सूफी संतों के कांतिकारी विचारों का भी प्रभाव पड़ा है। कबीर, दादू, रज्जब तथा जायसी आदि संत कवियों पर यह प्रभाव देखा जा सकता है। मीरा की भक्ति में भी सूफियों की सी अनुरक्ति की दृढ़ता और निर्भय तन्मयता देखी जा सकती है।
वर्ण व्यवस्था
इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्ण विभाजित भारतीय समाज में नयी जटिलतायें पैदा हो रही थीं। उच्चकुलीन वर्गों को अपने वंश और रक्त की शुचिता की चिंता थी।
ब्राह्मणों ने, जिन्होंने प्राचीन काल से ही स्वयं को देवताओं के समकक्ष और वर्णाश्रम धर्म का रक्षक घोषित कर रखा था, इन नयी परिस्थितियों में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए. जातिभेदपरक अधिक कठोर नियमों और विधिनिषेधों की रचना की।
वर्णव्यवस्था की अमानवीय कठोरता से त्रस्त निम्न जातियां इस्लाम के मनुष्य और मनुष्य के बीच समानतामूलक विचारों से आकृष्ट हो धर्मान्तरण की ओर चली गई।
इस प्रकार मुस्लिम धर्म ग्रहण करने वाली अधिकांश जातियां कपड़ा बुनने वालों, चमड़े का काम करने वाले कारीगर, शिल्पी वर्ग की थीं, जिन्हें हिन्दू समाज में अस्पृश्य समझा जाता था। हालांकि मुस्लमान हो जाने के बावजूद इन जातियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आया।
उन्हें अब भी गुलामों की तरह प्रभुवर्ग की सेवा करनी थी। निम्न जातियों को शिक्षा प्राप्त करने या स्वतंत्र संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। प्राचीन काल से ही शिक्षा अध्यापक होते थे। धार्मिक आचार-विचार और कर्मकाण्ड संबंधी निर्देश इस शिक्षा का महत्वपूर्ण भाग थे। इस प्रकार शिक्षा का संबंध भी शूद्रों को हीन स्थिति में बनाये रखने वाली जाति व्यवस्था से था। मात्र शिक्षा ही नहीं, अपितु न्याय व्यवस्था और सेना का कार्य भी उच्चवर्ग व प्रभुत्वशाली वर्गों के आर्थिक-सामाजिक हितों की रक्षा का था।
समस्त उत्पादन का बोझ निचली जातियों के कंधों पर था तथा उच्चवर्ग के राजा, सामंत, सुल्तान आदि इसके उपभाग के लिए थे। मुगल शासकों को अपने उपभोग के लिए ज्यादा कलात्मक विलासिता वस्तुयें अपेक्षित थीं। इसके लिए बाहर से कारीगर, शिल्पी, सैनिक आदि आये। इन तमाम जातियों के प्रवेश से भारतीय समाज में जातिव्यवस्था संबंधी नयी उलझनें पैदा हुई ।
धर्म की प्रकृति संकीर्ण होती गई तथा समाज में रूढ़िवादिता का जोर बढ़ा। जन्म, कर्म, नियति, भाग्यफल, पुनर्जन्म, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र विषयक धारणाओं ने हिन्दू समाज के लिए नयी जकड़ने पैदा कीं। धर्म की इन्हीं अनवरत सीमित होती हुई भूमिकाओं की पहचान करते हुए भक्ति आंदोलन सामने आया।
जिस ईश्वर को हिन्दू-मुस्लिम धर्माचार्यों ने वंचित-विपन्न जनता के लिए आंतक बना कर प्रस्तुत किया था उसी ईश्वर को सूफी संतों और निर्गुण-सगुण भक्तों ने समूची वर्ण-व्यवस्था और स्त्री पराधीनता की सामंती रूढ़ियों को चुनौती देने वाली शक्ति के रूप में विकसित किया। मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष
महिलाओं की स्थिति
वस्तुत: सामंती समाज में शुद्र और स्त्री के दमन का अनिवार्य संबंध श्रम के शोषण और संपत्ति के एकाधिकार से है। इस समाज में स्त्री पराधीनता की जड़ें बहुत गहरी थीं। शुद्र के शोषण के पीछे तो वर्ण व्यवस्था का शुचितावाद काम कर रहा था, किन्तु स्त्री चाहे उच्च वर्ण की हो या निम्न वर्ण की सर्वत्र पराधीन और शोषित थी। वर्णव्यवस्था के सूत्रधार मनु ने प्रत्येक वय की स्त्री की पराधीनता को समाज के लिए अनिवार्य बताया। भर्तृहरि ने स्त्री को पुरूष के पतन और विनाश के ओर ले जाने वाली घोषित किया।
पुरूषसत्तात्मकता की इस निरंतर मजबूत होती हुई प्रवृत्ति का ही प्रभाव था कि कबीर जैसे संत कवि, जो वर्णव्यवस्था के कटु आलोचक थे ‘स्त्री’ के संबंध में प्राय: ऐसे सामंती अन्तर्विरोधों से मुक्त नहीं थे। ध्यान देने की बात है कि ‘स्त्री’ को माया स्वरूप मानते हुए उन्होंने भर्तृहरि की धारणा का ही समर्थन किया। वैदिक युग या उसके बाद बौद्धकाल तक महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा के उल्लेख मिलते हैं, किंतु यह स्थिति प्राय: उन स्त्रियों तक सीमित है जो उच्चवंशीय थीं। प्राय: ब्राह्मण स्त्रियों को विदुषी, उपाध्याया या आचार्य होने का गौरव प्राप्त था।
वैदों, संहिताओं, धर्मसूत्रों या पुराणों में स्त्री स्वाधीनता का सहज समर्थन नहीं है। महाभारत में भी स्त्री की स्वतंत्रता का विरोध किया गया है। इसी प्रकार की स्त्री निंदा रामायण में भी मिलती है। उसमें स्त्री को धर्महीन, चपल, तीक्षण तथा भेदकर बताया गया है। बौद्धसाहित्य भी स्त्री के प्रति सहज और उदार नहीं है। इस प्रकार पुरूष वर्चस्ववादी इन विचारधाराऔं की जड़ें इतनी गहरी थीं कि इन्हें समाज के भीतर से चुनौती मिलना कठिन था।
प्रथम शताब्दी आते-आते उच्च वर्ण में भी कन्याओं की शिक्षा-दीक्षा और उपनयन प्रथा का अंत हो गया। यही नहीं प्राय: इसी समय से कन्या के अल्प आयु में विवाह की प्रथा भी जोर पकड़ती दिखाई देती है। मध्यकाल में इस्लाम के आगमन के पश्चात् की राजनैतिक उथल-पुथल ने स्त्रियों के लिए ज्यादा कठिन परिस्थितियों का निर्माण किया।
राजपूत वंश में जौहर आदि की प्रथायें वंश की कुलीनता की रक्षा के लिए अनिवार्य हो गयी थीं। उच्च वर्ग की या राजपरिवारों की स्त्रियों का जीवन खाने-पहनने और आराम से रहने की दृष्टि से ज्यादा सुविधाजनक था, किन्तु उन्हें बाह्य समाज में घुलने-मिलने के अवसर नहीं थे। पर्दा उनके लिए अनिवार्य था।
यह युग किसी भी स्थिति में स्त्री की स्वतंत्र आत्माभिव्यक्ति के प्रति अनुकूल नहीं था। ऐसे में मीरा की स्वतंत्र आत्माभिव्यक्ति इस समूची सामंती व्यवस्था के प्रति विद्रोह का एक प्रखर बिगुल थी। । मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष मीरा के काव्य में पुरूष
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