मीरा के स्त्री विमर्श :– स्त्रीवादी आलोचना, मीरा के समूचे काव्य को उत्पीड़ित स्त्री के आर्तनाद और विरहिणी प्रिया के मार्मिक हाहाकार का प्रामाणिक दस्तावेज मानती है। स्त्री के निजी जीवन की अनुभूतियाँ और गोपन मन की रहस्यात्मकता जिस सूक्ष्म भाव से मीरा-काव्य में व्यंजित हुई हैं, वह उसे अन्य भक्त कवियों से अलगाता है।
मीरा के पद अपनी मूल संरचना में उत्कट भावोच्छवास में लिखी गई डायरी की प्रविष्टियाँ हैं जहाँ न अपने को बेहतर रूप में प्रस्तुत करने की सामाजिकता है, न विकारों को छुपाने की व्यावहारिकता। है तो अपनी भौतिक सच्चाई को अकुंठ निर्भीक भाव से स्वीकारने की ईमानदारी।
मीरा के स्त्री विमर्श
एक औसत स्त्री की तरह मीरा सरलहृदया है, किंतु औसत स्त्री से भिन्न ज्ञानपिपासु भी। अपने ही वृत्त में बंद स्त्री जीवन की नियति के कारण मीरा के अनुभव सीमित हैं लेकिन वह आरोपित स्त्री-नियति से ऊपर उठ कर ‘अपने’ को तलाशना और सँवारना चाहती है।
साधु-संगति मीरा के लिए ज्ञानार्जन और आत्मविस्तार का जरिया है – भौतिक जगत के रहस्यों को जानने, जगत के साथ अपने सम्बन्धों को गुनने और अपनी मानवीय सत्ता को एक सार्थक दिशा देने का। उल्लेखनीय है कि इस तलाश में परिवार और सम्बन्धों का निषेध नहीं है, बल्कि उनके अर्थ और अंतरंगता का विस्तार है।
मीरा के भीतर की नारी, वैषम्य एवं दमन पर आश्रित पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ता के कारण आहत है। वह स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में परस्पर समानता, सद्भाव और हार्दिकता की मांग करती है जहाँ किसी एक का व्यक्तित्व दूसरे का विलयन न करे, बल्कि साथसाथ विकास और परिष्कार की संभावनाओं को फलीभूत करे। मीरा आरोपित विवाह सम्बन्ध को अस्वीकार कर स्त्री द्वारा स्वयं पति रूप में पुरुष का वरण करने की स्वतंत्रता की पक्षधर है।
चूंकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री के पुरुष-निरपेक्ष रूप पर विचार करने की स्वतंत्रता ही नहीं देती, अतः मीरा इस व्यवस्था का अतिक्रमण करने के लिए स्वप्नलोक रचती है जहाँ की सामाजिकता विवाह-सूत्र में बँधी स्त्री के समक्ष न पातिव्रत्य की कठोर एकांगी साधना का आदर्श प्रस्तुत करती है, न वैधव्य का अभिशाप। मीरा परमुखापेक्षी स्त्री का मिथक तोड़ कर स्वतंत्र निर्णय लेती नई स्त्री छवि को गढ़ती है।
कृत्रिमता एवं छद्म छल-छंद से सर्वथा मुक्त मीरा, स्त्री-मानस को उसकी उद्दाम कामनाओं के साथ चित्रित करती हैं। मीरा के पदों को यदि आध्यात्मिकता के कुहासे से मुक्त किया जाए तो वे जीवन के राग, उल्लास, उत्सव और ठाठ-बाट के साथ ऐन्द्रिकता के उद्दाम का भी संस्पर्श करते हैं। मीरा की स्त्री फैल-फूट कर अपना वजूद पाना चाहती है।
उसके भीतर जीवन ठाठे मार रहा है। वह अपने को बचाना चाहती है। इसलिए प्रेम पर भक्ति का अरोपण कर प्रिय की स्मृतियों के साथ अपने अनुभव संसार – प्रीत – को अमर कर देना चाहती है। मीरा के विरह पदों में मूर्त का अमूर्तीकरण व्यवस्था के प्रति मीरा के निरुपाय समर्थन की व्यथा है।
यही कारण है कि मीरा के इन तथाकथित भक्ति पदों की उत्कटता, हार्दिकता एवं भास्वरता क्षीणतर होते-होते भक्ति के लयबद्ध सुमिरन में घुट कर रह गई है। विद्रोह और दीनता के दो कूलों में प्रवाहित मीरा के स्त्री विमर्श का यह अंतर्विरोध समकालीन स्त्री विमर्श में भी कमोबेश इसी रूप में उपस्थित है जो स्त्री मुक्ति आंदोलन को ‘मानवीय पहचान’ का आंदोलन न बना कर पुरुष की स्वीकृत और अनुकंपा पाने का उपहासास्पद अनुष्ठान बना देता है। ।
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