रविदास की भक्ति भावना | रविदास |
रविदास की भक्ति भावना भक्तिकाल के सभी कवि चाहे वे निर्गुण हो या सगुण ईश्वर की भक्ति में विश्वास करते हैं। इन कवियों में ईश्वर तर्क का, विचार का या दर्शन का विषय नहीं है, वरन् भक्ति का विषय है। इसका यह भी अर्थ होता है कि भक्त और भगवान का सगुण अथवा निर्गुण वैयक्तिक होता है।
ईश्वर के स्वरूप के संबंध में चाहे जो भी मतभेद रहा हो, लेकिन इस बात से सभी एकमत हैं कि ईश्वर एक होता है, जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है। एक जीव होता है जो ईश्वर का अंश होता है तथा वह जीव या आत्मा ईश्वर की आराधना करती है। यह आराधना ही भक्ति है।
Table of Contents
रविदास की भक्ति भावना
निर्गुण कवि उस निराकार ईश्वर की आराधना करते हैं जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। इस आराधना में कई बाधाएँ हैं जिन्हें माया के रूप में स्पष्ट किया गया। निर्गुण कवियों ने मनुष्य की चेतना का विवेचन किया है। इस चेतना में मनुष्य भक्ति में मन और इन्द्रियाँ आती हैं। ये चेतना के दो रूप ही सबसे बड़ी बाधा है। मनुष्य का मन दसों दिशाओं में भटकता है।
वह एक ईश्वर पर केन्द्रित नहीं हो पाता। मनुष्य की इन्द्रियाँ ऐन्द्रिय सुख में लिप्त रहती हैं तथा करणीय और अकरणीय कार्य करती रहती है। मनुष्य का शरीर जब युवावस्था को प्राप्त होता है तब उसमें अहंकार का उदय होता है। ये सब भी भक्ति ईश्वर भक्ति में आने वाली बाधाएँ हैं। इन पर विजय प्राप्त करके भक्त अपने आपको ईश्वर भक्ति में लीन कर सकता है। अपने कार्य में रविदास भक्ति के इस स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं।
अपनी भक्ति को सूत्रबद्ध करते हुए रविदास कहते हैं
अब कैसे छूटै राम रट लागी।प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।प्रभु जी तुम घन बन, हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।प्रभु जी तुम मोती, हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा ।प्रभु जी तुम स्वामी हम, दासा, ऐसी भगति करै रविदासा।
रविदास ऐसी भक्ति करते हैं। भगवान और भक्त का रिश्ता अटूट है, न केवल अटूट है वरन् वह इस रिश्ते को सुंदर बनाते हैं। जीवन और प्रकृति के अनेक सुंदर उदाहरण देकर रविदास अपने मत को पुष्ट करते हैं। जैसे पानी यदि चंदन के संपर्क में आ जाता है तो पानी में भी चंदन की गंध मिल जाती है। प्रभु बादल हैं तो भक्त वह मोर है जो बादलों को देखकर नाचने लगता है या जैसे चंद्रमा को चकोर देखता ही रहता है। दीपत और बाती, मोती और धागा की तरह यह रिश्ता है।
सामाजिक स्थिति के अनुरूप प्रभुजी स्वामी हैं और भक्त उसका दास है। रविदास भक्त को दास मानते हैं, भगवान को ऐश्वर्यशाली मानते हैं, परंतु भक्त का भी अपना महत्व है। वे माधव से विनती करते हैं कि हे माधव! इस रिश्ते को तुम तोड़ना मत। यदि तुम तोड़ने की कोशिश करोगे तब भी ‘हम नहीं तोरहि । हमारी आपसे सच्ची प्रीति है रविदास की भक्ति भावना
सांची प्रीति हम तुम सिउं जोरी, तुम सिउं जोरि अवर संगि तोरी ।।जहं जहां ताउं तहां सुमरी सेवा, तुम सों ठाकुर असरु न देवा।तुमरे भजन कटहिं जमु पांसा, भगति हेत गावै, रविदासा।।
इसी भक्ति के संत रविदास गाता है :
जो तुम तोरौ राम, तुम सौ तोरि कवन सौ जोरौं ।तीरथ बरत न करूँ अँदेसा, तुम्हरे चरन कमल एक भरोसा ।जहं जहं जाओ तुम्हरी पूजा, तुम सा देव और नहिं दूजा |मैं अपनो मन हरि से जोरौ, हरि सो जोरि सबन सो तोरोंपहर तुम्हारी आसा, मन, क्रम, वचन कहै रविदासा।
रविदास अपने मन, कम और वचन से कहते हैं कि मेरे सभी संबंधी भगवान से हैं। तीर्थव्रत जैसा कोई ब्राह्याचार मैं नहीं करता। मुझे तो तुम्हारे ही चरण कमलों पर भरोसा है।
भक्त और भगवान के अंतः संबंध को व्यक्त करते हुए रविदास लिखते हैं रविदास की भक्ति भावना
जब हम होते तब तूं नाही, अब तू ही मैं नाहीं।अनल अगम जैसे लहर भइ ओदधि, जल केवल जल मांही।।माधवे किआ कहीए प्रभु ऐसा, जैसा मनीए होइ न तैसा ।।नरपति एकु सिंघासनि सोइआ, सुपने भइआ भिखारी ।।अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ, सो गति भई हमारी।।राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि, अब कुछ मरमु जनाइआ ।कनिक कटंक जैसे भूलि परै, अब कहते कहनु न आइआ ।।सरबै एकु अनेकैं, सुआमी, सभ घट भोगवै सोई।कहि ‘रविदास’ हाथ पै नेरै, सहजे होई सु होई।।
अर्थात् जब तक मैं रहता हूँ, भक्त के मन में अहं की चेतना रहती है, तब तक भगवान नहीं रहता। अहं भाव का लोप होने पर ही परमात्मा से मिलन संभव है। जैसे हवा से चलने वाली लहर उठती है और फिर जल में मिल जाती है। ऐसे ही आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। यहाँ रविदास अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देते हैं। एक राजा अपने सिंहासन पर सोया हुआ है। सोते-सोते उसे सपना आ जाता है। इस सपने में वह भिखारी हो जाता है।
रविदास की भक्ति भावना रविदास की भक्ति भावना
तब इस राजा को काल्पनिक दुख होता है, वह परमात्मा से अलग होने के बाद आत्मा का होता है। फिर जिसके स्वामी राम हैं, उसको किसी चीज की कमी नहीं है। अभाव की कोई अनुभूति भक्त को तो हो ही नहीं सकती। उसे किसी प्रकार का ‘त्रिविध ताप’ तो होता ही नहीं। यहाँ तक कि “जम के दूत छोड़ि करि भाजै’ की स्थिति बनती है। यहाँ ध्यान देना चाहिए के यम के दूतों से शक्तिशाली तो इस भवसागर में कोई होता ही नहीं। इसलिए दीनबंधु करुनामै स्वामी औगन चित्त न धरै ।’
जा पै दीनानाथु ढरै। दीनबंधु करुनामै स्वामी औगन चित न धरै ।निसंचर फुनि बंधु बिभीषन, तिहु सिर छत्र धरै ।बन बेरि-बेरि भखै भीलनी कै, लछिमन पेखि प्रजरै।।दरिद सुदामा कियहु आपु सम, नैनन नीर ढरै।कहि ‘रविदास’ क्रिस्न करनामैं, नाम लेत उबरै ।।
राम का स्वरूप
रविदास के अनुसार राम निर्गुण-निराकार है। उनका स्मरण करते रहना चाहिए और यह राम के नाम के जाप के द्वारा किया जा सकता है। रविदास की भक्ति भावना
अविगति नाथ निरंजन देवा, मैं क्या जानूं तुम्हारी सेवा ।बांधू न बन्धन छाउं न दाया, तुमहि सेऊं निरंजन रामा।सीस असमाना, सो ठाकुर कस संपट समाना।सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।तोरो न पाती, पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हर सेवा।नख प्रसेद जाके सुरसरि धारा, रोमावली अठारह भारा।चारि वेद जिहि सुमिरत सासा, भगति हेतु गावै रविदास ।
वह परमात्मा अविगत है, निरंजन है, उसके रहस्य को शिव और सनकादिक भी खोज नहीं पाए। उसको खोजते-खोजते ब्रहमा ने अपना जन्म निरर्थक गँवा दिया। इसकी पूजा के लिए न तो मैं फूल पती तोड़ता हूँ, न मूर्ति पूजा करना है। चारों वेदों में जिसका वर्णन है। जिसके चरण पाताल तक है और जिसका शीश आसमान तक हैं, यह असम्भवः सा प्रतीत होने वाला परमात्मा है। रविदास उसकी भक्ति के गीत गाता है। कबीर ने जिस राम के स्वरूप के लिए गहन चिंतन किया है, रविदास उसे सहज बोधगम्य रीति से अभिव्यक्त कर देते हैं। उनकी वाणी में कहीं भी दर्शन की जटिलता नहीं है।
यह परमात्मा सामाजिक दृष्टि से ‘नीच’ माने जाने वाले को उच्च पद पर स्थापित कर सकता है। उदाहरण देते हुए रविदास कहते हैं कि रविदास की भक्ति भावना
ऐसी लाज तुझ बिनु कौन करै।गरीब निवाजु गुसाइयाँ, मेरा माथै छत्रु धरै ।जाकी जोति जगत कउ लागै, ता पर तुहीं ढरै।नीचहं ऊंच करै, मेरा गोबिंदु, काहू से न डरै।।नामदेव, कबीरु, त्रिलोचनु, सधना, सैनु, तरै ।कह ‘रविदास’ सुनहु रे संतहु, हरि जीउ तैं सभै सरै।
इसलिए हे संतों! भगवान अगर कृपा रखेंगे तो सब काम हो जाएँगे। नामदेव जाति के ‘ओछा‘ थे, परंतु आज सारा लोक उनके यश गाता है। राम नाम की महिमा देखते कबीर इस दुनिया से ‘देही सहित’ सिधारे। अर्थात् उनके शरीर की मृत्यु नहीं हुई। यह तो ‘बाजीगर’ है। रविदास की भक्ति भावना
उसने यह संसार रचा। उसकी यह ‘बाजी’ झूठी है परंतु बाजीगर सच्चा है। वे तो मानते हैं कि ‘सबमें हरि है हरि में सब है’ अर्थात् सबमें परमात्मा है और परमात्मा में सब है। ऐसा ईश्वर कपट करने से प्रसन्न नहीं होता। सच्चे मन की भक्ति जरूरी है।
मानव शरीर
सभी निर्गुण कवि मानव तन की क्षण भंगुरता और नश्वरता का वर्णन करते हैं। इस के माध्यम से संत उपदेश देते हैं। संतों का मानना है कि मनुष्य को अपने तन के सौंदर्य का अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस अहंकार से मनुष्य नम्र नहीं रह पाता । नम्रता के बिना भगवान के प्रति समर्पण नहीं कर पाता। रविदास ने भी माना है कि यह तन घास की टाटी के समान है। यह घास की तरह जल जाएगा और मिट्टी में मिल जाएगा।
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी।जलि गइओ घासु, गलि गइओ माटी।ऊंचे मंदर साल रसोई, एक घरी फुनि रहनु न होई ।भाई बंध कुटंब सहेरा, ओइ भी लागै काढु सबेरा।घर की नारि उरहिं तन लागी, उह तउ भूतु-भूतु करि भागी।कहि ‘रविदासु’ सभै जगु लूटिआ, हम तउ एक राम कहि छूटिआ।
मृत्यु के बाद सभी संगी साथी यहाँ तक कि स्त्री भी साथ छोड़ देते हैं। मृत्यु के पश्चात् शरीर का कोई महत्व नहीं रह जाता। एक अन्य पद में रविदास कहते हैं कि इस तन की निर्मिति देखने-विचारने लायक है। रविदास की भक्ति भावना
जल की भीति पवन का थंभा, रकत बूंद का गारा।हाड़ मांस नाड़ी को पिंजरु, पंखे बसै विचारा।।प्रानी किआ मेरा, किया तेरा, जैसे तरवर पंखी बसेरा।रखहु कंध उसारहु नीवां, साढ़े तीनि हाथ तेरी सीवां ।।बंके लाल पाग सिर ढेरी, इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ।ऊंचे मंदर सुंदर नारी, राम नाम बिनु बाजी हारी ।।मेरी जाति कमीनी, पांति कमीनी, ओछा जनमु हमारा ।तुम सरनागति राजा रामचंद, कहि ‘रविदास’ चमारा ।।
रविदास कहते हैं कि आखिर साढ़े तीन हाथ का शरीर ही तो है। इस पर क्या गर्व करना। अंत में तो यह राख की ढेरी बन जानी है। इसलिए जो कुछ सत्य है, वह राम नाम है।
इसलिए वे अहंकारी व्यक्ति के संदर्भ में विचार करते हुए कहते हैं कि हे मन इस हाड़मांस की शरीर को लेकर टेढ़ा क्यों चलते हैं। इसके भीतर तो थूक और विष्टा है। इसलिए अभी भी चेत जाओ, अन्यथा आपका जन्म अकारथ चला जाएगा। इसलिए हे बावरे मन् राम नाम का भजन कर । रविदास चमड़े का काम करते थे। अतः उन्होंने दर्शन के स्तर पर चमड़े का महत्व बनाते हुए कबीर को संबोधित किया
कहत ‘रविदास’ सुनो कबीर भाई।चाम बिना देह किनकी बनाई।
चाम की गाय है, बछड़ा भी उसका चाम का है। चाम का हाथी और उस पर बैठा हुआ राजा भी चाम का ही है। कई छंदों में रविदास की बानी में कबीर और दादू दयाल का भाव-साम्य मिलता है। बुढ़ापे का वर्णन करते हुए रविदास भी अपने मन को समझाते हुए कहते हैं कि अब न तो कानों से सुनाई पड़ रहा है न नजर से दिखाई दे रहा है और न जीव स्थिर है
मध्यान गयौ जुरा चलि आई, अजहूँ जग रह्यो भरमाया ।पानी गयो पतनु छीजै काया, यहु तन जरा जराना।पांचौ थाके जरा जरु सानै, तो रामह मरमु न जाना।हंस पंखेरु चंचलु माई, समुझि देखि मन मांहि।प्रतिपलु मीचु गरासै देही, फुनि रविदास चेतहुं नांहि।
रविदास की बानियों में विवाद का स्वर नहीं है। वे सहज रूप से अपनी बात कहते हैं। कबीर की तरह वे भी सत्संग का महत्व समझते-समझाते हैं।
इस सबके बावजूद मनुष्य का मन उसके वश में नहीं है। यह मन भगवान में स्थिर नहीं है। चंचल है। चारों दिशाओं में भागता रहता है। इस मन में ‘मैं’ की भावना बहुत है। लोभ और मोह मे बसा हुआ है। काम भाव में डूबा हुआ है। इन्द्रियों के सुख के लिए लालायित रहता है। अपने विरोधी को समझाते हुए रविदास कहते हैं कि मन को मारने के लिए जंगल में जाने की कहाँ जरूरत है। फिर मूल प्रश्न यह है कि मन को मारकर आज तक किसने सिद्धि प्राप्त की है। ।
बन जाकरि इहि मनवा न मरहीं, मन को मारि कहहु कस तरहीं।मन मारन का गुन मन काहीं, मनु मूरख तिस जानत नाहीं।पंच विकार जौ इहि मन त्यागौं, तौं मन राम चरन महिं लागौ।रिदै राम सुध करम कमावऊ, तौ ‘रविदास’ मधु सूदन पावऊ।
रविदास कहते हैं कि इस मन से संशय की गांठ नहीं छूटती ‘काम, क्रोध, माया मद मतसर’ ये पाँचों मिलकर मुझे लूट रहे हैं। रवि मुक्ति में यह सबसे बड़ी बाधाएँ हैं।
हम बड़ कवि, कुलीन, हम पंडित, हम जोगी संन्यासी ।ग्यांनी गुनी, सूर हम दाता, इह बुधि कबहुं न नासी ।पढे गुनै कछु समझि न परहीं, जौ लौं अनभै भाउ न दीसै ।लोहा कंचनु हिरनु होइ कैसे, जउ पारसहिं न परसै ।कहु रविदास’ सभै नहिं समझसि, भूल परें जस बउरे ।मोहि अधारु नाम नराइन, जीवन प्रान धन मोरे ।।
रविदास भी माया को कबीर की तरह ‘ठगिनी’ मानते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा मेरा मन जो, माया के हाथों बिक गया; इसका नियंत्रण कैसे किया जाए। इसके लिए रविदास सत्संग का महत्व समझाते हैं। सत्संग ज्ञानी, गुणी भक्तजनों की करनी चाहिए। ढोंगी लोगों की संगति नुकसानदेह होती है। सत्संग से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान से मन में भाव उत्पन्न होता है। भाव भक्ति में रूपांतरित होता है। भाव के बिना भक्ति नहीं होती। अतः संतों ने ‘भाव’ को महत्व दिया है। संत साहित्य में ‘भक्ति-भाव’ पद प्रचलित है।
साध संगति बिना भाव नहिं ऊपजे, भाव बिन भगति नहिं होय तेरी।कहै ‘रविदास’ एक बेनती हरि सिउं, पैज राखहु राजा राम मेरी।
यदि भगवान की भक्ति नहीं की तो यह मानव मेरी जन्म निरर्थक ही चला जाएगा और यह मानव जन्म अमूल्य है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद जीव मनुष्य देह धारण करता है। वे चेताते हुए कहते हैं कि यदि इन मानव योनियों में भक्ति नहीं की, तो कब करोगे। तुम्हारे जितने संगी-साथी हैं, वे सब चार दिनों के हैं। स्थायी संबंध को परमात्मा से है। अतः हमें उस स्थायी, शाश्वत संबंध पर हो ध्यान देना चाहिए
जनम अमोल अकारथ जात रे।सुमरन करौ कभउं नहिं हरि कौ, ज्यौं लौ नहिं छरत गात रे।ऐ सबु संगी दिवस च्यार के, धन दारा सुत पित मात रे ।बिछुरे मिलन बहुरि नह वैहो, ज्यौं तरवर छिन पात रे।।तौ कैसे हरिनाम लेहुगे, गर अटकै कफ-सिट बात रे।काल कराल भ्रमत फंदक जयूं करत अचानौ घात रे।।चेतै नहिं अलपु मति मूरखि, छांडि अम्रित, विषु खात रे।कहि ‘रविदास’ आस तज औरे, स्त्री गोपालह रंग रांच रे।।
ऐसी भाषा कबीर में दृष्टिगत नहीं होती। कबीर ‘मूरख’ व्यक्ति को फटकारते हैं, जबकि रविदास उसे आत्मीय सलाह देते हैं। प्राकृतिक जीवन के उदाहरण देते हैं। मनुष्य के भाव-विवेक को जाग्रत करते हैं। रविदास इस नादान व्यक्ति के लिए पीड़ा महसूस करते हैं जो अपने अमूल्य जन्म को ‘अकारथ’ नष्ट कर रहा है।
भक्ति का उद्देश्य
कई बार मन में यह प्रश्न उठता है कि आखिर भक्ति द्वारा भक्त क्या प्राप्त करना चाहता है। परमात्मा से मिलने का तात्पर्य क्या है ? रविदास ने इस विषय पर विचार किया है। एक पद में उन्होंने कई उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति ही भक्ति का चरम उद्देश्य है और कबीर की तरह देह सहित इस पृथ्वी से जाने का कोई रास्ता निकल जाए । अर्थात् अमरता की प्राप्ति ही भक्ति का चरम उद्देश्य माना है।
सो जप जपौं जो बहुरि न जपना, सो तप तपौ जो बहुरि न तपना।सो गुरु करौं जो बहुरि न करना, ऐसो मरौ जो बहुरि न मरना।
इस कामना की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति करना आवश्यक है। ऐसा मरें कि फिर न मरना पड़े अर्थात् पुनः जन्म लेना न पड़े। जनम होगा तभी मृत्यु
वे ऐसे स्थान या शहर में रहने की परिकल्पना करते हैं, जहाँ कोई कष्ट है। अतः रविदास ने ‘बेगमपुरा की अवधारणा प्रस्तुत की। इस संसार में तो दुःख, क्लेश और पीड़ा है। कायिक, भौतिक और आत्मिक कष्ट है। इन सबसे मुक्ति की कामना भी रविदास करते हैं।
अब हम खूब वतन कर पाया, ऊंचा खेर सदा मन भाया।बेगमपुरा सहर का नाऊ, दुःख अंदेस नहीं तिहिं ठाऊं।ना तसबीस, खिराजु न मालू, खौफ न खता न तरसु जवालु ।काइमु दाइमु सदा पातिसाही, दाम न, साम एक सा आही।आवादानु सदा मसहूर, ऊहां गनी बसहिं मामूर ।तिउ-तिउं सैर करहिं जिउ भावै, हरम महल मोहिं अटकावै ।कह रविदास खलास चमारा, जो उस सहर सों मीत हमारा।
यह रविदास का आदर्श समाज है, आदर्श जीवन है। ‘बेगमपुरा’ नामक शहर के प्रत्येक वासी को रविदास मित्र मानते हैं।
हालाँकि ऐसा बेगमपुरा कहीं है नहीं। रविदास ने भी इसे देखा नहीं है, सिर्फ कामना की है। इसी तरह जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति की कामना की है। चूँकि मुक्ति अभी मिली नहीं है अतः रविदास का मूल भाव उदासी है। रविदास निराश नहीं है। उन्हें अपने परमेश्वर पर पूरा भरोसा है। उन्हें उनका मनचाहा मिल नहीं रहा अत
भन रविदास उदास ताहि थै, करता को है भाई।केवल करता एक सही सिर, सत्तराम तिहिं ठाई।
यह भी पढ़े
- रसखान की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए ।
- तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए |
- सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं बताइए |
रविदास की भक्ति भावना – अगर आपको यह पोस्ट पसंद आई हो तो आप कृपया करके इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। और हमारे FaceBook Page को फॉलो करें। अगर आपका कोई सवाल या सुझाव है तो आप नीचे दिए गए Comment Box में जरुर लिखे ।। धन्यवाद 🙏 ।।
Recent Comments