रसखान की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए ।
रसखान की भक्ति भावना उच्च कोटि के भावावेशी कृष्ण भक्त थे। उन्होंने एक रूपवती स्त्री के ‘मान’ को तोड़कर और उसके रूप-गर्व के घड़े को ‘फोड़कर’ नन्द के कुमार श्रीकृष्ण से अपना नाता जोड़ा था। यह उनकी लौकिक प्रीति का भग्वत्प्रीति में पर्यवसान था। प्रेम का यह रूपान्तरण और उदात्तीकरण इतने सहज और स्वाभाविक रूप में हुआ था कि फिर उसमें कभी किसी तरह का व्यवधान न पड़ा और रसखान जब एक बार रस की ‘खानि’ श्रीकृष्ण को समर्पित हुए तो फिर उन्हीं के होकर रह गये।
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रसखान की भक्ति भावना-दर्शन
भक्ति की अनेक तरह से परिभाषा की गई है। इसे ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति कहा गया है। रसखान भी इसी प्रेम-पंथ के पथिक हैं। श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य और उनके लीला-माधुर्य में पगा रहना ही उन्हें अभीष्ट है और इसे ही वे कृष्ण भक्ति मानते हैं। उनकी दृष्टि में वही प्राण सार्थक है जो कृष्ण के रूप पर रीझता है, वही सिर सार्थक है जो कृष्ण के चरणों में झुकता है और वही भाव सार्थक है जो कृष्णार्पित है।
इस तरह रसखान मन, वचन, कर्म और भाव से कृष्णमय हो जाने को ही भक्ति मानते हैं। उनकी यह भक्ति परम-प्रेम स्वरूपा है। इस भक्ति में किसी प्रकार के विधि-निषेध, व्रत-उपवास और पूजा-पाठ की कोई जरूरत नहीं है। रसखान स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि शरीर में भस्म लगाने, पंचाग्नि तापने, तीर्थाटन और जप-तप करने से कोई फायदा नहीं होगा, यदि प्यार से नन्द के कुमार के दरबार में सेवा नहीं की और उनको चाहभरी दृष्टि से देखा नहीं
जप बार-बार, तप, संजम, बयार व्रत
तीरथ हजार अरे बूझत लबार को।
कीन्हों नहिं प्यार, सेयो दरबार चित,
चाह्यो न निहारो जो पै नन्द के कुमार को।।
रसखान निश्छल प्रेमाभक्ति के अनुयायी हैं। वे प्रेम-मार्ग की सहजता के कायल हैं। उनका उपदेश है कि दुर्भाव रहित होकर और सत्संग करते हुए श्रीकृष्ण में अपने मन को वैसे ही लगाना चाहिए जैसे जल भरते समय पनिहारिन का ध्यान गागर पर होता है
मिलिये सबसौं दुरभाव बिना,
रहिये सतसंग उजागर में।
रसखान गुबिन्दहि यों भजिये
जिमि नागरि को चित गागर में।।
यह वह सहज प्रेमाभक्ति है जिसके लिए किसी प्रकार के कर्मकांड की जरूरत नहीं होती। प्रभु इसी सहज, निश्छल और अगाध प्रेमासक्ति के वशीभूत हैं। इसका प्रमाण यह है कि शेष, महेश, गणेश, दिनेश आदि जिसका गुणगान करते थकते नहीं, वेद जिसे अछेद्य और अभेद्य बताते हैं और नारद- -शुकदेव आदि जिसका पार (रहस्य) नहीं पाते हैं।
वही ब्रह्म (ईश्वर) प्रेम के वशीभूत होकर नन्द और यशोदा की गोदी में खेलता है, राधा के पैरों को पलोटता (दबाता) है और ब्रज की गोप-बालाओं के जरा से मक्खन के लिए नाना नाच नाचता रहता है। अभिप्राय यह कि जो ज्ञान-ध्यान से परे है, वह भक्ति और प्रेम के इतना अधीन है कि वह अपने भक्तों और प्रेमियों की हर इच्छा को पूरा करने के लिए सदा तत्पर रहता है। यह भक्ति की सहजता, सरलता, महत्ता के साथ-साथ उसकी प्रभुता का श्रेष्ठ उदाहरण है।
रसखान की भक्ति के आलंबन
रसखान की भक्ति के आलंबन अतुलित रूप-सौन्दर्य सम्पन्न श्रीकृष्ण हैं जिनकी रूप-छवि और मधुर लीलाओं ने सम्पूर्ण ब्रज की गोपियों को प्रेमोन्मत्त कर दिया। रसखान जब दिल्ली के सत्ता-संघर्ष और मारकाट से ऊबकर शान्ति की खोज में वृन्दावन पहुँचे तो वह श्रीकृष्ण की छवि को देखकर ठगे से रह गये।
उस क्षण उनके नेत्रों और हृदय में कृष्ण की जो छवि समाई, वह जीवन भर न निकली और रसखान उसी छवि में डूबे हुए सरस कवित्तों की रचना करके अपनी भावाभिव्यक्ति करते रहे। कृष्ण-दर्शन के बाद रसखान की जो दशा हुई, उसका वर्णन उहोंने इन शब्दों में किया
प्रीतम नन्द किशोर,
जा दिन तें नैननि लग्यौ।
मन पावन चितचोर,
पलक ओट नहिं सहि सकौं।।
रसखान ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की मोहक रूप-छवि का वर्णन करते हुए उस पर अपने को गोपी-भाव से न्योछावर किया है। स्पष्ट है कि रसखान का ध्यान योगिराज कृष्ण या महाभारत के युद्ध-नायक कृष्ण पर नहीं रहा, उसके स्थान पर उन्होंने मोहक व्यक्तित्व के प्रति अपने को समर्पित किया और अपने भीतर यह भरोसा भी रखा कि यह माखन चाखन हारो’ व्यक्तित्व वाला प्रभु ही उनकी हर तरह से रक्षा करने में समर्थ है
काहे को सोच करै रसखानि कहा करिहै रविनन्द विचारो।
ता खन जा खन राखिए माखन चाखन हारो सो राखन हारो।।
रसखान ने एकाध छंद में यद्यपि कृष्ण के दनुज-दलन और पतितोद्धार संबंधी कृत्यों का स्मरण किया है किन्तु उनके मन में कृष्ण की लीलामूर्ति ही समाई रही और वे उसी की रूप-छवि का बराबर गान-ध्यान करते रहे।
उनके आराध्य श्रीकृष्ण का रूप कुछ इस प्रकार है – सिर में मोर-मुकुट, कानों में कुंडल, शरीर पर पीताम्बर, अधरों पर मीठी तान वाली मुरली, कटाक्ष युक्त बड़ी-बड़ी आँखें, घुघराली अलकें, मृदु मुस्क्यानि और छेड़खानि करने वाली रसीली एवं बाँकी अदा। ब्रज-गोपियाँ कृष्ण के इसी रूप पर मुग्ध थीं और रसखान भी उसी पर न्योछावर थे।
रसखान की भक्ति भाव
प्रत्येक भक्त भगवान को किसी न किसी भाव से भजता है। भक्ति-शास्त्रों में दास्य, सख्य, वात्सल्य, श्रृंगार और शांत में से किसी भाव का आश्रय लेकर भगवद्भक्ति का उपदेश दिया गया है। रसखान ने मुख्यतया श्रृंगार भाव से श्रीकृष्ण की उपासना की है जिसे ‘गोपी-भाव’ कहना अधिक समीचीन है। जिस भाव से ब्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण को चाहा, वही भाव रसखान का भी है।
जैसे गोपियाँ श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर लुट गईं, उनकी मुरली की मधुर ध्वनि को सुनकर कुलकानि छोड़ बैठीं, उसी तरह रसखान भी कृष्ण के एक-एक अंग की शोभा और उनकी मोहनी अदा पर न्योछावर हो गये। उनकी ‘सुजान-रसखान’ रचना के सभी कवित्त और सवैये गोपी-भाव से ही लिखे गये हैं। हर छंद में कोई न कोई गोपी अपने सौन्दर्याकर्षण, प्रेम विह्वलता और श्रीकृष्ण के मधुर व्यक्तित्व के के प्रति उत्सर्गशीलता का ही वर्णन करती हुई चित्रित हुई है।
वह गोपी स्वयं रसखान हैं। कहते हैं कि रसखान को गोपी भाव सिद्ध हो गया था। वे हमेशा उसी भाव-दशा में निमग्न रहते थे। रसखान के सवैये गोपी-भाव की चरम अभिव्यक्ति हैं। गोपियों की प्रेम-दशा ही रसखान की अन्तर्दशा है। रसखान की भक्ति भावना – गोपी-भाव उदात्त श्रृंगार या विशुद्ध प्रेम-भाव का पर्याय है। रसखान की भक्ति में यह भावना अपने चरम रूप तक भी पहुँची है लेकिन वहाँ वासना न होकर प्रेम की सान्द्रता (प्रगाढ़ता) है और वह अकुंठ प्रेम का उदाहरण बन गई है।
रसखान ने कृष्ण के युवा-रूप-सौन्दर्य के साथ-साथ उनके बाल रूप के प्रति भी अपनी निष्ठा दिखाई है लेकिन वह ज्यादा परिपुष्ट नहीं हुई है, हालाँकि वात्सल्य-भाव वाले उनके दो छंद भी काफी मार्मिक एवं प्रभावशाली हैं।
रसखान की भक्ति का उद्देश्य
रसखान निष्काम भाव के भक्त हैं। वे श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी हैं। कृष्ण प्रेम ही उनका साधन है और वही साध्य भी। इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ न चाहिए-न धन-दौलत, न रूप-यश और न राजपाट का सुख, ऐश्वर्य। वे तो इन सबको व्यर्थ मानते हैं। उनकी धारणा है कि मणि-माणिक्य से बने बड़े-बड़े महल, उनपर लगी गजमोतियों की झालरें और इन्द्र के सिंहासन को लज्जित करने वाला राजपाट आदि सब व्यर्थ है यदि नन्द के कुमार श्रीकृष्ण के प्रति स्नेह नहीं है – ‘ऐसे भये तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वाल सों नेइ न लैयत।” उन्हें तो श्रीकृष्ण के प्रेम की दरकार है, उनके रूप-सौन्दर्य को देखते रहने की विकलता है
उन्हीं के संसर्ग-सान्निध्य में नित्य रहने की एकमात्र अभिलाषा है। उन्हें ब्रज में बसने, नन्द की गायों के बीच चरने, ब्रज की गलियों को बुहारने और कालिन्दी के तट पर कदम्ब की डालों पर पक्षी के रूप में कलरव करने में ही सबसे बड़ा सुख है। वे ब्रज के करील-कुंजों की सुखद छाया के समक्ष करोड़ों सोने के महलों को न्योछावर कर सकते हैं और नन्द की गायों को चराकर ऋद्धियों और सिद्धियों के सुख को बिसार सकते हैं। तात्पर्य यह है कि उन्हें अपनी भक्ति और प्रीति के फलस्वरूप केवल श्रीकृष्ण का रूप-दर्शन, उनका सामीप्य-सुख और ब्रजधाम में निवास ही काम्य है। वे भगवान से कहते हैं
जो रसना रसना विलसै तेहि देहु सदा निजनाम उचारन।
मो कर नीकी करें करनी बु पै कुंज कुटीरन देह-बुहारन।।
सिद्धि समृद्धि सबै रसखानि लही ब्रज-रेनुका अंग संवारन।
खास निवास मिलै जु पै, तो वही कालिन्दी कूद-कदम्ब की डारन।।
यह भी पढ़े :—
- रसखान की काव्य-भाषा |
- रसखान का जीवन परिचय ।
- कल कानन कुंडल मोर पखा उर पै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | रसखान |
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