रीझि बिकाई निकाइ पै रीझि थकी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
रीझि बिकाई निकाइ पै रीझि थकी गति हेरत हेरन की गति ।
जोबन घूमरे नैन लखें मति बौरा गई गति वारि के भोमति ।
बानी बिलानी सुबोलनि मैं अनचाहिनि – चाह जिबावति है हति।
जान के जी करि न जानि परै घनआनन्द या हूँ तें होति कहा अति ॥ ३४ ।।
रीझि बिकाई निकाइ पै
प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द – विरचित ‘सुजानहित’ से लिया गया है। कई बार अपना सब कुछ गंवा या न्यौछावर करके भी सामने वाले की गति दिशा – एवं मानसिकता का पता नहीं चल पाता – विशेष कर प्रेम में तो नहीं ही चल पाता। तब बड़ी ही विचित्र दशा होती हैं। व्याख्येय पद्य में इसी प्रकार की अनबूझ-सी गतिविधियों का चित्रण करते हुए कवि कह रहा है-
व्याख्या : मेरी अपनी रीझ तो स्वयं ही उसकी रीझ या प्रसन्नता की भावना पर रीझ कर बिक गई, पर उसके मन की बात फिर भी समझ में न आ सकी। उस सुन्दरी सुजान के देखने की गति-दिशा या ढंग को देखकर मेरी अपनी गति दिशा रुक गई या जाती रही; फिर भी उसे ठीक प्रकार से बूझ पाना सम्भव न हो सका।
उसके यौवन-मद से मतवाले नयनों को देखकर मेरी अपनी बुद्धि बौरा गई, मैंने अपनापन भी उसके यौवन-मद से मतवाले नयनों पर न्यौछावर कर दिया, फिर भी उसकी अनबूझ मानसिकता को समझा पा नहीं सका। उसकी मीठी-मीठी बातें सुनकर मेरी अपनी बोलती बन्द हो गई । अर्थात् मेरी वाणी ने मेरा साथ छोड़ दिया, पर वह फिर भी अनजान – अपरिचित ही रही ।
चाहने पर भी उसने चाहने वाले निष्ठुर प्रिय की चाह मुझे मार-मारकर भी जीवित रखे हुए है। इस प्रकार कविवर घनानन्द कहते हैं कि उस प्राण सुजान के मन की बात ओर दशा हर प्रकार के प्रयत्न करने पर भी जान नहीं पड़ती या समझ में नहीं आती। इसी कारण यह अति हो रही हैं। अर्थात् उसकी किसी भी बत की कोई हद नहीं हैं। वह एकदम अबूझ है।
विशेष
1. विपरीत लक्षणा का आरूप लेकर कवि ने निष्ठुर प्रेमिका की अबूझ मानसिकता का चित्रण किया है।
2. ‘मोमति’ पद का प्रयोग नया प्रतीत होता है।
3. भाषा सानुप्रासंगिक प्रसाद गुण से संयत और गत्यात्मक है।
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