रीतिकाल के प्रमुख कवि || हम इस लेख में चिंतामणि त्रिपाठी, भिखारीदास, देव एवं पद्माकर, बिहारी, भूषण, घनानन्द आदि लेखकों पर बात करेंगे इसलिए आप इस लेख को अंत तक पढ़े ||
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रीतिकाल के प्रमुख कवि
चिंतामणि त्रिपाठी
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने चिंतामणि को रीतिकाल का प्रथम आचार्य कवि माना है। आचार्यत्व और कवित्व दोनों दृष्टियों से रीतिकालीन काव्य के विकास इनका स्थान महत्वपूर्ण है। इन्होंने नौ ग्रंथ लिखे थे जिसमें से आज केवल पाँच ही उपलब्ध हैं। ‘रसविलास’ इनका रस-संबंधी ग्रंथ है। ‘शृंगार मंजरी’ नायक-नायिका भेद का ग्रंथ है। ‘कविकल्पतरु’ में काव्यांगों का विवेचन मिलता है।
‘छंदविचार’ में छंदों के आधार पर कृष्णचरित वर्णित है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग के निवासी होने पर भी उन्होंने स्वच्छ एवं परिनिष्ठित ब्रज का प्रयोग किया है। यह मुख्यतः रसवादी हैं और अलंकारों का प्रयोग मात्र रसोत्कर्ष के लिए ही वांछनीय मानते हैं।
भिखारीदास
रीतिनिरूपण के क्षेत्र में मौलिक चिंतन के लिए भिखारीदास का स्थान प्रथम श्रेणी के आलोचकों में गिना जाता है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत और हिंदी के आलोचकों के काव्य सिद्धांतों का अध्ययन करके हिंदी आलोचना का सूत्रपात किया है। उनका प्रामाणिक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ ‘कांस्य निर्णय’ है जिसमें सभी काव्यांगों का गंभीर विवेचन मिलता है।
भिखारीदास का छंद विवेचन संबंधी ग्रंथ ‘छंदोर्ण व पिंगल’ भी इस विषय का प्रौढ़ ग्रंथ है। नवीन छंदों का निरूपण इनकी मौलिक सूझबूझ का ज्वलंत प्रमाण है। कवित्व के क्षेत्र में भी भिखारीदास महत्वपूर्ण हैं। इनकी सीधी और सरल बिंब योजना पाठक के हृदय पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती है। इनकी भाषा सहज, स्वभाविक तथा विषयानुरूप है। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने अरबी-फारसी शब्दावली का भी निःसंकोच प्रयोग किया है।
देव एवं पद्माकर
देव और पद्माकर रीतिबद्ध कवि हैं इसलिए हम इनकी चर्चा एक साथ कर रहे हैं। रीतिकाल के कवियों में देव की रचना परिमाण की दृष्टि से सबसे ज्यादा है। इनमें भावविलास, अष्टयाम, सुजान विनोद, प्रेम तरंग आदि उल्लेखनीय है। देव आचार्य और कवि दोनों ही थे। पर आचार्य के रूप में इनका कोई स्थान नहीं है। मुख्य रूप से ये कवि हैं। रीतिकाल के कवियों में इनका प्रमुख स्थान था।
लोकप्रियता की दृष्टि से बिहारी के बाद पद्माकर का नाम लिया जाता है। पद्माकर की लोकप्रियता का कारण कविता की रमणीयता है। इनकी कविता में कल्पना और भावुकता का अद्भुत संयोग हुआ है। इनकी भाषा में अनेकरूपता है। पद्माभरण, जगद्विनोद, प्रबोध पचासा, ‘हिम्मत विरुदावली’ इनके प्रमुख ग्रंथ है।
बिहारी
रीतिसिद्ध कवियों में ही नहीं बल्कि समूचे रीतिकाल में बिहारी का साहित्य अन्यतम है। ‘बिहारी सतसई’ नामक सात सौ दोहों की लघु रचना लिख कर जितनी अक्षय कीर्ति बिहारी को प्राप्त हुई वैसा कोई दूसरा ढूँढ पाना सरल नहीं है। वास्तव में यह रचना के परिमाण में छोटी जरूर है परंतु सागर को गागर में भरने की उक्ति को चरितार्थ करती है।
कवि ने शृंगार के कोने-कोने को, प्रेम-सागर से उमड़ी प्रत्येक भाव तरंग को अपने कलाफलक पर इस व्यापकता से अंकित किया है कि श्रोता एवं पाठक अवाक रह जाता है। इसीलिए यदि सूर सूर हैं तो राधाचरण गोस्वामी के शब्दों में ‘बिहारी पीयूषवर्षी मेघ हैं जिसके उदय होते ही सबका प्रकाश आच्छन्न हो जाता है। कवि कोकिल कुहकने, मनोमयूर नृत्य करने और चतुर चातक चुहकने लगते हैं।’
आचार्य शुक्ल ने भी बिहारी की कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसी विशेषता के कारण बिहारी के दोहों को नावक के तीर कहा गया है :–
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर ।
देखत में छोटे लणें घाव करें गंभीर ।।
भूषण
भूषण वीर रस के कवि थे। रीतिकाल में शृंगार रस की प्रधानता थी, पर भूषण ने आदिकाल की वीर गाथात्मक परंपरा को जिंदा रखा। इन्होंने अपने दो आश्रयदाताओंछत्रसाल और शिवाजी को अपने वीर काव्य का विषय बनाया। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने ‘शिवराज भूषण’ नाम से एक अलंकार ग्रंथ भी लिखा, पर अलंकार निरूपण की दृष्टि से इसे श्रेष्ठ ग्रंथ नहीं कहा जा सकता।
घनानन्द
घनानन्द स्वच्छंद काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। इस काव्य प्रवृत्ति के सभी गुण इनके काव्य में समाहित हैं। अपनी रचना प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कवि ने स्पष्ट कहा है कि उसे काव्य की प्रेरणा अपनी प्रेयसी सुजान के मादक रूप से मिली है। कवि का प्रेम एकनिष्ठ एवं अंतर्मुखी है, अतः उसमें हृदय की सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का मार्मिक चित्रण मिलता है।
आचार्य शुक्ल इनके संबंध में लिखते हैं-‘ये वियोग शृंगार के मुक्तक प्रधान कवि हैं। ‘प्रेम की पीर’ लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण एवं धीर पथिक तथा जबादानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।’ शुक्ल जी की उपर्युक्त टिप्पणी से सिद्ध हो जाता है कि यह भाव और कला दोनों क्षेत्रों में अपने वर्ग के सर्वश्रेष्ठ कवि रहे हैं।
यद्यपि घनानन्द ने शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन किया है परंतु विरह वर्णन में उनकी मनोवृत्ति अधिक रमी है। इनके विरह वर्णन में पर्याप्त गंभीरता और तड़प है। रीतिकाल के रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों की तरह इन्होंने अपनी विरह व्यथा को अभिव्यक्त करने में अतिशयोक्ति से काम न लेकर उसे स्वाभाविक बना दिया है।
इनके ग्रंथों के नाम हैं- सुजानसागर, विरह लीला, कोकसार, रसकेलिवल्ली और कृपाकाण्ड।
मूल्यांकन
रीतिकालीन काव्य मूलतः दरबारी काव्य था, जिसने शृंगार को अपना केंद्रीय विषय बनाया। कविता राजा और उसके दरबारियों के मनोरंजन का साधन बन गई। कवि राजा के मनोरंजन के लिए शृंगार का विकृत रूप अपनी कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने लगा। उसका एक ही उद्देश्य था राजा की प्रशंसा और अशर्फी प्राप्त करना। कविता जब व्यावसायिक हो जाती है और उसका उद्देश्य सत्ताधारी वर्ग का मनोरंजन करना हो जाता है, तब वह अपने श्रेष्ठ पद से गिर जाती है।
इस काल की कविता का भी यही परिणाम हुआ। यह कविता रुग्ण मानसिकता का प्रतिफलन है। इस काल के कवियों ने लक्षण ग्रंथ भी लिखे, पर ये कुशल आचार्य भी न बन सके। उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्रों का अनुवाद भर प्रस्तुत कर दिया इस क्षेत्र में उनका एक योगदान यह रहा कि उन्होंने रस और अलंकार के उदाहरण प्रचुर मात्रा में निर्मित किए।
रीतिकाल में कविता की प्रस्तुति और भाषा भी सहज नहीं रह गई। इस काल के कवि अपनी प्रस्तुति से अपने आश्रयदाता को चमत्कृत करना चाहते थे, अतः इस काल की भाषा में चमत्कार की प्रधानता मिलती है। अलंकार का बहुत प्रयोग इस काल में हुआ। इन चमत्कारी कवियों ने अलंकार को साधक न मानकर साध्य माना।
रीतिकालीन कवियों ने यत्नपूर्वक कठोर शब्दों का बहिष्कार किया। इन्होंने उन सभी शब्दों को निकाल फेंका, जो माधुर्य गुण से ओतप्रोत न हो। डॉ. नगेन्द्र रीतिकाल की भाषा पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं : ‘इस प्रकार यह केवल काव्य की भाषा थी, जन-जीवन की भाषा नहीं थी इसीलिए उसमें रचनात्मकता-मात्र थी, महाप्राणता और व्यापकता नहीं रह गई है।
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