विद्यापति की कविता में प्रेम और शृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए |
विद्यापति की कविता में प्रेम और शृंगार :– विद्यापति की ‘पदावली’ के पद दो तरह के हैं- शृंगारिक पद और भक्ति पद । इसके अलावा कुछ ऐसे पद भी हैं, जिनमें प्रकृति, समाज, नीति, संगीत आदि जीवन-मूल्यों को रेखांकित किया गया है। शृंगारिक पदों में वयःसंधि, नायिका-भेद, नख-शिख वर्णन, मिलन-अभिसार, मान-मनुहार, संयोग-वियोग, विरह-प्रवास आदि का विलक्षण चित्र उकेरा गया है।
विद्यापति की कविता में प्रेम और शृंगार
ऐसे पदों की संख्या साढ़े सात सौ से अधिक है। उल्लेखनीय है कि अपने प्रिय सखा राजा शिवसिंह के तिरोधान (1406 ई.) के बाद से विद्यापति ने कोई शृंगारिक पद नहीं रचा; बाद के समय सा गा समय की उनकी सारी ही रचनाएँ भक्ति-प्रधान पद हैं, या फिर नीति, शास्त्र, धर्म, आचार से संबंधित विचार |
भक्ति-प्रधान पदों की संख्या लगभग अस्सी हैं, जिसमें शिव-पार्वती लीला, नचारी, राम-वंदना, कृष्ण-वंदना, दुर्गा, काली, भैरवि, भवानी, जानकी, गंगा वंदना आदि शामिल हैं। शेष पदों में ऋतु-वर्णन, बेमेल विवाह, सामाजिक जीवन-प्रसंग, रीति-नीति-संभाषण-शिक्षा आदि रेखांकित है।
उनके शृंगारिक पदों के प्रेम और सौंदर्य-विवेचन के आधार राधा-कृष्ण विषयक पद हैं। = गौरतलब है कि पूरे भारतीय वाङ्मय में राधा-कृष्ण की उपस्थिति पौराणिक गरिमा और विष्णु के अवतार- कृष्ण की अलौकिक शक्ति एवं लीला के साथ है। पर, विद्यापति के राधा-कृष्ण अलौकिक नहीं हैं, पूरी तरह लौकिक हैं, उनके प्रेम- -व्यापार के सारे प्रसंग सामान्य नागरिक की तरह हैं। पूरी ‘पदावली’ में प्रेम और सौंदर्य वर्णन के किसी बिंदु पर वे आत्मलीन नहीं दिखाई देते। हर पद में रसज्ञ और रसभोक्ता के रूप में किसी न किसी राजा, सुलतान की दुहाई देते हैं; या नायक-नायिका को प्रबोधन-उपदेश देते हैं।
पूरी ‘पदावली’ में प्रेम-व्यापार के हर उपक्रम- विभाव, अनुभाव, दर्शन, श्रवण, अनुरक्ति, संभाषण, स्मरण, अभिसार, विरह, वेदना, मिलन, उल्लास, सुरति-चर्चा, सुरति-बाधा, आशा-निराशा या फिर सौंदर्य-वर्णन के हर स्वरूप- नायिका भेद, वयःसंधि, सद्यःस्नाता, कामदग्धा, नवयौवना, प्रगल्भा, आरूढ़ा, स्वकीया, परकीया आदि को रेखांकित करते हुए विद्यापति सतत तटस्थ ही दीखते हैं।
पूरी ‘पदावली’ में विद्यापति भगवद्गीतोपदेश के कृष्ण की तरह लिप्त होकर भी निर्लिप्त प्रतीत होते हैं। हर समय वे अपने नायक-नायिका के मनोभावों को रेखांकित कर एक संदेश देते हुए दीखते हैं। जीवन में सौंदर्य और प्रेम के शिखरस्थ स्वरूप को रेखांकित करते हुए वे सभी पदों में जीवनमूल्य का संदेश देते प्रतीत होते हैं। नागरिक मन से हताशा मिटाने और राजाओं, सुलतानों दौर और कु के हृदय में मानवीय कोमलता भरने का इससे बेहतर उपाय संभवतः उस दौर में और कुछ नहीं हो सकता था।
इसलिए विद्यापति रचित ‘पदावली’ के अनुशीलन की पद्धति उसमें चित्रित प्रेम-प्रसंग और सौंदर्य-निरूपण में कामुकता से परांग्मुख होकर जीवन-मूल्य की तलाश होनी चाहिए। आम नागरिक की तरह उनकी नायिका विरह में व्यथित-व्याकुल होती है और नायक का स्मरण करती है।
उन्हें पाने का उद्यम करती है, किसी तरह की अलौकिकता उनके प्रेम को छूती तक नहीं। उन्हें चंदन-लेप भी विष-बाण की तरह दाहक लगता है, गहने बोझ लगते हैं, सपने में भी कृष्ण दर्शन नहीं देते, उन्हें अपने जीने की स्थिति शेष नहीं दीखती।
अंत में कवि नायिका को गुणवती बताकर मिलन की सांत्वना के साथ प्रबोधन देते हैं। मिलन की स्थिति में प्रेमातुर नायिका सभी प्रकार से सुखानुभव लेती है। भावोल्लास से भरी नायिका अपने प्रियतम की उपस्थित का सुख अलग-अलग इंद्रियों से प्राप्त कर रही है- रूप निहारती है, बोल सुनती है, वसंत की मादक गंध पाती है।
यत्नपूर्वक क्रीड़ा-सुख में लीन होती है, रसिकजन के रसभोग का अनुमान करती है। जाहिर है कि योजनाबद्ध ढंग से अपनी रचनाशीलता में आगे बढ़ रहे कवि को अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विलक्षण रूप से संपन्न भाषा के साथ-साथ अभिव्यक्ति के सभी अवयवों पर पूर्ण अधिकार था।
विद्यापति के काव्य में भक्ति
भक्ति और शृंगार- भले ही दो भाव हों, पर दोनों का उत्स एक ही है। दोनों का मूल अनुराग और समर्पण है। दोनों ही भाव व्यक्ति के मन में प्रेम से शुरू होते हैं। वैसे तो अभी भी कुछ लोग मिल जाएँगे जो भक्ति और प्रेम को दो दिशाओं का व्यापार मानते हैं। वे सोचते हैं कि जब तक मनुष्य को ज्ञान नहीं होता, युवावस्था के उन्माद वह स्त्री के रूप जाल में मोहवश फँसा रहता है, भोग में लिप्त रहता है; जब आँखें खुलती हैं, ज्ञान चक्षु खुलते हैं।
तब वह शशिक भक्ति-भाव से ईश्वर की ओर मुड़ता है। पर ऐसा सोचना सर्वथा उचित नहीं है। वास्तविक अर्थों में दोनों ही उपक्रमों का प्रस्थान बिंदु एक ही है, व्यापार क्रम एक ही है। दोनों का क्रिया-व्यापार प्रेम के कारण ही होता है और दोनों ही में समर्पण भाव रहता है, स्वीकार भाव रहता है।
प्रेम में प्रेमिका, प्रेमी के प्रति समर्पित होती है या प्रेमी प्रेमिका के प्रति, ठीक इसी तरह भक्ति में भक्त, भगवान के प्रति समर्पित होते हैं। मीराबाई की काव्य साधना का उदाहरण हमारे सामने है, उन्हें कृष्ण की प्रिया माने अथवा कृष्ण की भक्त, संशय हर स्थिति में मौजूद रहेगा। विद्यापति की ‘पदावली’ में भक्ति और शृंगार के बीच की विभाजक रेखा को समझना थोड़ा कठिन है।
माधव की प्रार्थना ‘तोहि जनमि पुनु तोहि समाओत, सागर लहरि समाना’ में भक्ति , और शृंगार के इस सघन भाव को समझा जा सकता है। उत्स में विलीन हो जाने का यह एकात्म, आत्मा और परमात्मा की यह एकात्मता उनके यहाँ शृंगारिक पदों में बड़ी आसानी से मिलती है। अपने प्रेम-इष्ट के प्रति उपासिका का समर्पण इसी तरह का भक्तिपूर्ण समर्पण है।
अन्य भक्तिकालीन कवियों की तरह विद्यापति के यहाँ न तो स्पष्ट एकेश्वरवाद दिखेगा, न ही अन्य शृंगारिक कवियों की तरह लोलुप भोगवाद । एक डूबे हुए काव्य रसिक के इस समर्पण में ऐसी जीवनानुभूति है कि कहीं भक्ति, शृंगार पर और ज्यादातर जगहों पर शृंगार, भक्ति पर चढ़ता नजर आता है। उनके यहाँ भक्ति और शृंगार की धाराएँ कई-कई दिशाओं में फूटकर उनके जीवनानुभव को फैलाती हैं और कवि के विराट अनुभव संसार को दर्शाती है।
संसार को दर्शाती राम का राम याशा , उस आधार पर भक्ति और शृंगार के जो मानदंड आज के प्रवक्ताओं की राय में व्याप्त हैं, उस आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संसार को बाँटें, तो राधा-कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत शृंगारिक हैं, पर जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं- शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना आदि ।
भक्ति और शृंगार के विषय में वस्तुतः हमने कुछ धारणाएँ बद्धमूल कर ली हैं। विद्यापति के नख-शिख वर्णनों के कारण कुछ लोगों को उनकी भक्ति-भावना पर ही शक होने लगता है। पर विद्यापति के काव्य को समझने के लिए तत्कालीन काव्य की मर्यादाओं को समझना जरूरी है। विद्यापति के यहाँ जब-तब भक्तिपरक पदों में श्रृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है।
शृंगारिक गीतों में सौंदर्य, समर्पण, रमण, विलास, विरह, मिलन के इतने पक्षों में तल्लीन विद्यापति; ‘की यौवन पिय दूरे’ के कवि विद्यापति; भक्तिपरक गीतों में एकदम से विनीत हो जाते हैं; पूर्व में किए गए रमण-विलास को सर्वथा निरर्थक बताते हुए ‘तोहे भजब कोन बेला’ कहकर पछताते हैं; ‘तातल सैकत वारि बिंदु सम सुत मित रमणि समाजे’ कह देते हैं।
शृंगारिक गीतों की नायिका के मनोवेग को जीवन देने वाले विद्यापति उस ‘रमणि’ को तप्त बालू पर पानी की बूंद के समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं। ‘अमृत तेजि किए हलाहल पीउल’ कहकर महाकवि स्वयं शृंगार और भक्ति के सारे द्वैध को खत्म कर देते हैं। यहाँ कवि की शालीनता स्पष्ट दीखती है। दो कालखंडों और दो मनःस्थितियों में एक ही रचनाकार द्वारा रचनाधर्म का यह फर्क कवि का पश्चाताप नहीं, उनकी तल्लीनता प्रदर्शित करता है कि वह जहाँ कहीं है, मुकम्मल है।”
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