विद्यापति के काव्यगत विशेषताएं का मूल्यांकन करें |
विद्यापति के काव्यगत विशेषताएं:
पदों का वर्गीकरण :
विद्यापति के पदों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
1. शृंगारिक (संयोग और विप्रलंभ)
2. भक्तिरसात्मक (स्तुतियाँ/ अलौकिकभाव)
3. विविध ( कूटपद, शिवसिंह का सिंहासनारोहण )
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विद्यापति के काव्यगत विशेषताएं ( प्रगीत काव्य )
मुक्तक काव्य और गीतिकाव्य की परंपरा बहुत ही प्राचीन है । संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में यह मिलती है । इसमें अनेक प्रख्यात रचनाएँ हैं । सबसे प्रसिद्ध रचना जय देव का ‘गीतगोविन्द’ है । इसमें विभिन्न राग रागिनियों में बद्ध संस्कृत की कोमलकांत पदावली में राधाकृष्ण की लीलाओं के अंतर्गत शृंगारपरक पद लिखे गए हैं ।
यद्यपि जयदेव का आग्रह है कि ‘हरिस्मरण’ करना हो तो ‘गीतगोविन्द’ गाओ अथवा काव्य -संगीत आदि कलाओं के विलास में रुचि हो तो इसे गाओ, फिर भी अधिकतर उनकी यह छोटी-सी रचना सहृदय काव्य-रसिकों की आदर -वस्तु रही ||
विद्यापति उसकी आगे की कड़ी है । उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, आदि समर्थ सभी भाषाओं को छोड़ देशी भाषा मैथिली में पद रचना करने का साहसिक कार्य किया । देशी भाषाओं के उदय-काल में विद्यापति जैसे कुशल कवि ने उसकी सामर्थ्य, माधुर्य, सौहार्द को निखार कर रसिकों के सामने धर दिया । इसीसे आगे के कवियों (जैसे सूरदास, तुलसीदास) को भाषा में रचना करने की प्रेरणा और साहस मिला । विद्यापति ने साफ शब्दों में देशी भाषाओं के माधुर्य की प्रशंसा की –
देसिल बयन सब जन मिट्ठा ।
से तैसन जंपेउ अबहट्टा ॥
दोष देखने वाले विपक्षियों को तो उन्होंने खुला आह्वान किया । वे कहते हैं कि बालचंद्र और मेरी भाषा को कोई दोष नहीं दे सकता । क्योंकि वह शिवजी के मस्कक पर चमकता है और मेरी भाषा नागर रसिक काव्यकला के पारखियों का मन हरण करेगी।
बालचन्द विज्जावइ भासा ।
दुहु नहिं लागइ दुज्जन हासा ।।
ओ परमेसर हर सिर सोहई ।
ई णिच्चय नाअर मन मोहई ॥
प्रकृति वर्णन
मानवीय चेतना अपनी चारो ओर की प्रकृति के प्रति आरंभ से ही संवेदनशील रही । प्रकृति का सौन्दर्य और भयानक रूप दोनों मनुष्य के मन में अनुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । प्राकृतिक शोभा को में देखकर वह खुश होता है । प्रकृति में पावस, हेमंत का रूप देखकर वह भीत, चकित भी होता है । प्रकृति की सुन्दरता का स्वच्छन्द वर्णन करने में कवि का हृदय उल्लसित होता है ।
प्रकृति का यह रूप आलंबन होता है । प्रकृति को देख कर सुख या दु:ख का अनुभव करना उसका उद्दीपन रूप है । विद्यापति का प्रकृति वर्णन अधिकतर उद्दीपन रूप में हुआ है । परंतु कवि प्रतिभा प्रकृति के रूप को देख मुग्ध होकर भी वर्णन करती है । इसलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि विद्यापति की पदावली में प्रकृति तीन रूपों में दिखाई पड़ती हैं –
1, शुद्ध या नैसर्गिक रूप में
2. आलंबन रूप में
3. उद्दीपन रूप में।
– इनमें से तीसरे रूप में प्रकृति का वर्णन बहुत हुआ है । संयोग शृंगार वर्णन में प्रकृति का षड़तु’ रूप में वर्णन हुआ है तो वियोग शृंगार के संदर्भ में बारहमासा’ शैली में । विद्यापति का प्रकृति – प्रेम साफ दिखाई देता है । क्योंकि साहित्यिक परंपराओं के पालन में भी नया कौशल दिखाया | उदाहरण के लिए उद्दीपन विभाव के रूप में पावस ऋतु का वर्णन देखें –
सखि हे हम र दुखक नहिं ओर ।
इ भर बादर माह भादर, सून मंदिर मोर ॥
झंपि घन गरजंति संतत भुवन भरि बरसंतिया ।
केत पाहुन काम दारुन सघन खर सर हंतिया ॥
कुलिस कत सत पात मुदित, मयूर नाचत मातिया ।
दादुर डाक डाहक, काटि जाए न छातिया ॥
तिमिर दिग भरि घोर जामिनि, आथिर पिचुरिक पाँतिया ।
विद्यापति कह कइसे गमाओ, हरि बिना दिन रातिया ।।
इसमें पावस का सांगोपांग रूप आया है । बादलों का घिरना, घुमड़ना, गरजना, मूसलाधार बरसना, बिजली चमकना, मेंढक बोलना, सघन अंधकार छा जाना आदि विरह की अवस्था को असहनीय बताते हैं ।
श्रृंगार रस
संयोग शृंगार में नायिका – नायक का रूप वर्णन अत्यंत सुन्दर बन पड़ा है । विद्यापति वय:संधि के वर्णन में अत्यंत पारंगत हैं । नायिका के शारीरिक और मानसिक – परिदर्शन का आनन्द इस पद में स्पष्ट है
खने खने नयन कोन अनुसरई,
खने खने वसन धुलि तन भरई |
खने खने दसन दसा छूट हास,
खने खने अधर सामे बहु वास ||
चओंक चलए खने खन चलु मन्द,
मन मथ पाठ पहिल अनुबन्ध |
हिरदय मुकुल हेरि हेरि थोर,
खने आंचर दए खने होए भोर ||
* सघःस्नाता का वर्णन इन शब्दों में देखिये :
कामिनि करए सनाने ।
हेरितहि हृदय हनए पंच बाने ।
चिकुर जरए जलधारा ।
जनि मुख – ससि डर रोअए अंधारा ॥ (इत्यादि)
प्रेम का स्वरूप
सखि , कि पूछसि अनुभव मोय |
से हो पिरित अनुराग बखानिए, तिल तिल नूतन होय ||
जनम अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपति भेल |
से हो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुतिपथ परस न भेल ||
वयःसंधि
क) वय:संधि है – शैशव और यौवन – दोनों मिल गए हैं ।
शैशव यौवन दुहुँ मिलि गेल |
स्रवनक पथ दुहुँ लोचन लेल ||
वचनक चातुरी लहुलहु हास |
धरनीय चाँद करए परगास ||
वयःसंधि की चेष्टाएँ ख) नीचे के पदों में किशोरी के मन की चंचलता और क्रियाकलाप वर्णित है –
सैसव जोवन दरसन भेला |
दुइ दल बलहि दद पुरि गेला ||
कबहुँ बाँधुए कच, कवहुँ बिथार |
कबहुँ झाँपए अंग, कवहुँ उघार ||
थीर नयान अथिर किछु भेल |
उरज उदय थल लालिम देल ||
चपल चरन चित चंचल मान |
जागल मनसिज मुदित नयान ||
रूपमाधुरी
जाहाँ जाहाँ पदयुग धरइ ताहाँ ताहाँ सरोरुह भरइ ||
जाहाँ जाहाँ झलकत अंग ताहाँ ताहाँ बिजुरी तरंग ||
जहाँ जहाँ नयन विकास तहँ तहँ कमल प्रकास ||
जहाँ रूप का वस्तुनिष्ठ (जैसा दिखता है वैसा) वर्णन, आलंबन का वर्णन वहाँ शुद्ध सौन्दर्य चेतना है । किन्तु अनेक स्थानों में रूप वर्णन कामुकता और वासना से प्रभावित है । ऐसे में आलंबन भी उद्दीपन बन जाते हैं और आलंकारिकता स्वतः आ जाती है । जैसे नीचे के उद्धारण को देखिए । राधा के घने केश उरोजों पर फैले हैं । उनसे हार भी उलझ गया है । अतएव हार के मोती सुमेरु पर्वत पर चंद्रविहीन ताराओं की भाँति दिखाई देते हैं । यहाँ शारीरिक सौन्दर्य का कामोद्दीपक प्रभाव स्पष्ट है
कुच जुग परसि चिकुर फुनि परसल, ता अरु झाइल हारा ||
जनि सुमेरु ऊपर मिलि उगल, चन्द्रविहीन सब तारा ||
कवि की दृष्टि प्राय: नायिका के कुचों पर आ जाती है, वह वासनात्मक है । यहाँ नायिका का सौन्दर्य आलंबन न रह कर उद्दीपन विभाव बन जाता है
ते भेल बेकत पयोधर सोभ, कनक कमल हेरि काहि न लोभ ||
आध लुकाइल आध उदास, कुच कुम्भे कहि गेल आपन आस ||
श्रीराधा के ‘अपरूप’ रूप – सौन्दर्य का चित्रात्मक वर्णन बड़ा ही मर्मस्पर्शी बन पड़ा है – –
ऐ सखि पेखल एक अपरूप | सुनइल मानवि सपन सरूप ||
कमल जुगल पर चाँद क माला | तापर उपजल तरुन तमाला ||
तापरि बेढ़लि बिजुरी लता | कालिन्दी तट धीरे चलि जाता ||
साखा सिखर सुधाकर पाँती | लाहि नवपल्लव अरुनक भाँती ||
बिमल बिंबफल जुगल बिकास | तापर कीर धीर करु बास ||
तापर चंचल खंजन जोर | तापर साँपिनि झाँपल मोर ||
दो कमल जैसे चरण, चंद्रपक्ति -सी नखों की ज्योति, नययौवन से दीप्त श्यामशरीर, नवपल्लव की लालिमातुल्य हथेलियाँ, बिंबाफल जैसे अधरोष्ठ, स्थिर शुक-सी नासिका, चंचल खंजन जैसे नेत्र, घने काले केश, उस पर मोरपंख । कौन नायिका इस रूप से मुग्ध नहीं होती ? विद्यापति का बाह्य सौन्दर्य के कुशल चित्रकार हैं । पर वे सूक्ष्म मनोभावों और मनोदशाओं को देख सकने में असमर्थ रहे । विलास का वर्णन उन्हें रुचिकर लगता था ।
इसीलिए रवीन्द्रनाथ ने कहा – “विद्यापति की राधा में प्रेम की अपेक्षा विलास अधिक है । उसमें गंभीरता का अटल स्थैर्य नहीं है ।
विरह वर्णन
विद्यापति के विरह वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्मता और मानसिक अवस्था के चित्र मिलते हैं । यहाँ भी अनेक पद काम-पीड़ा के बाह्य -वर्णन में लगाये गए हैं । विरह के बाद मिलन की संभावना से आनन्द और उल्लास काफी बढ़ जाता है –
कि कहव रे सखि आनन्द मोर | चिर दिन या माधव मंदिर मोर ||
दारुन वसन्त जता दुख देल | हरि मुख हेरत सब सुख पेल ||
लेकिन विरह की अवस्था में तन्मयता भी इस पद में मिलती है अनुखन माधव माधव रटइत राधा भेलि मधाहि । विरह और यह एक अद्भुत तल्लीनता पैदा करती है । राधा और कृण एक-दूसरे में मग्न हैं और -वेदना बढ़ जाती है – –
राधा संय जब पुनतेहि माधव,
माधव संय जब राधा दारुन प्रेम तबहि नहिं टूटत,
बाढ़त विरहक बाधा ।
एक और सुन्दर वर्णन निम्न पंक्तियाँ देखिए :
माधव अपसब तोहर सिनेह | अपने बिरहें अपन तनु जरजर जिबइते भेल संदेह ||
भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरु छल-छल लोचन पानि | अनुखन राधा -राधा रटइत, आधा आधा बानि ||
अंत में यह कहा जा सकता है कि विद्यापति प्रेम, सौन्दर्य, संयोग और वियोग के वर्णन में बड़े कुशल कवि हैं । उनका जीवन दरबारी था । आश्रयदाता के मनोरंजन, विलास आदि के संवर्धन के लिए उन्होंने बहुत से पद लिखे । विलासी मानसिकता के कारण बाह्यजगत का स्थूल वर्णन स्वाभाविक था । विद्यापति के काव्यगत विद्यापति के काव्यगत
पर हार्दिकता तो प्रेम का लक्षण है । वह भी बराबर झाँकता है । इसीलिए परवर्ती शृंगार काव्य पर विद्यापति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है । भक्तिकाल में सूक्ष्मता है तो रीतिकाल में स्थूलता अधिक दिखाई पड़ती है ।
यह भी पढ़े :–
- नागमती वियोग खण्ड में विरह वेदना और प्रकृति संवेदना पर प्रकाश डालिए ||
- उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए ||
विद्यापति के काव्यगत विद्यापति के काव्यगत
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