सामाजिक एवं नैतिक उत्थान में रामचरितमानस का योगदान
सामाजिक एवं नैतिक उत्थान :— यद्यपि तुलसीदास प्रधान रूप से भक्त कवि हैं, व्यक्तिगत जीवन में वैरागी हैं, लेकिन अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों के प्रति सचेत हैं। एक ओर अगर वे ऐसी कविता । को ही वरेण्य मानते हैं जिसमें राम का नाम हो वहीं कविता के लिए उनका एक आदर्श यह भी है कि वह सबके लिए हितकारी हो, ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।’ लोकमंगल उनके काव्य का प्रमुख तत्व है।
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उनकी नजर में रघुनाथ की जिस कथा को वे कह रहे हैं वह कलियुग के पापों को हरने वाली तथा लोगों का कल्याण करने वाली है, ‘मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।’ मध्यकालीन कवियों में तुलसीदास अकेले कवि हैं जिन्होंने न सिर्फ जन विमुख सामंती राजकीय एवं सांस्कृतिक मूल्यों को प्रश्नांकित किया, बल्कि उसके बरक्स ‘रामराज्य’ के रूप में एक बेहतर व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत किया। उनकी दृष्टि आम लोगों की दीनता और दुर्दशा की ओर है। नला और द्वारा तुलसीदास ने अपने जीवन में अकाल और महामारी को देखा था। इन दोनों प्रतिकूलताओं के बीच आम लोगों की बेबस स्थिति को उन्होंने अपने काव्य में दर्ज किया है।
कलियुग में बार-बार अकाल पड़ रहा है, अन्न के अभाव में लोग भूखों मर रहे हैं, “कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।‘ शंकर के शहर काशी में आई महामारी में लोग उसी प्रकार मर रहे हैं जैसे जल में वास करने वाले जीव-जंतु माजा नामक बीमारी के कारण मर जाते हैं। महामारी से त्रस्त लोगों के लिए न तो राजा को चिंता है और न ही कोई देवता सहायक हो रहे हैं। तुलसी राम से तथा राम के दूत हनुमान से लोगों की रक्षा की प्रार्थना करते हैं :—
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संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर
बिकल, सकल, महामारी माजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात, भभरि भगात जल-थल मीचुमई है।।
देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित, बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज! पाहि कपिराज रामदूत! समहूकी की बिगरी तुहीं सुधारि लई है।।
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कलिकाल के रूप में तुलसीदास ने अपने समय की विद्रूपता पर व्यापक रूप से विचार किया है। इस संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, तुलसीदास जब कलियुग का उल्लेख करते हैं तब वे पौराणिक कलियुग का उल्लेख नहीं करते बल्कि अपनी आँखों देखे उस समाज का वर्णन करते हैं जो पाप, ताप, दोष और दरिद्रता से पीड़ित है।” तुलसीदास ने कलिकाल का वर्णन ‘रामचरितमानस’ तथा ‘कवितावली’- दोनों के उत्तरकांड में किया है। ‘दोहावली’ में भी इससे संबंधित कुछ दोहें हैं।
‘रामचरितमानस‘ में इसका वर्णन काकभुशुंडि गरुड़ के समक्ष करते हैं। इस वर्णन में बहुपंथ एवं दंभ के उभार, आश्रम व्यवस्था में आई गिरावट, वेद मार्ग से विचलन, गुरु के प्रति शिष्यों में आदर का न होना, संतान का अभिभावक के प्रति उपेक्षा का भाव, मनमाना आचरण, पर स्त्री के प्रति असक्ति का भाव आदि को कलियुग की प्रवृत्ति के रूप में दर्शाया गया है। यहाँ मुख्य रूप से तुलसीदास ने धर्म विरुद्ध, मर्यादा विरुद्ध आचरण तथा लोभादि प्रवृत्ति के समाज में प्रबल होने की वस्तुस्थिति को अभिव्यक्त किया है। तुलसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था के टूटने तथा वेद के अनुशासन की अवज्ञा पर दुखी होते हैं
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ।।
तुलसीदास द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थन के संदर्भ में रामजी तिवारी ने लिखा है, “यह सच है कि गोस्वामी जी वैदिक काल से चली आ रही शास्त्र सम्मत और श्रुतिसमर्थित वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे किंतु उसका आधार जाति न होकर गुण-कर्म विभाग ही था।” रामजी तिवारी की इस मान्यता की पुष्टि तुलसी-साहित्य के विभिन्न संदर्भो से होती है। तुलसीदास जहाँ कहीं किसी के आचरण में गिरावट देखते हैं उसकी ओर संकेत करते हैं, इसमें वे जन्मना जाति की श्रेष्ठता का आग्रह नहीं रखते। सामाजिक एवं नैतिक उत्थान सामाजिक एवं नैतिक उत्थान सामाजिक एवं नैतिक उत्थान सामाजिक एवं नैतिक
इस तथ्य की पुष्टि तुलसीदास के इस कथन से होती है, ‘द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ।’ जातिगत भेद-भाव के प्रति तुलसीदास ने अपना प्रतिरोध अन्यत्र भी प्रकट किया है। ‘रामचरितमानस‘ के अरण्यकांड में शबरी जब अपने को नीच जाति की बताती है तो राम जाति, कुल, धन, बल आदि सभी चीजों से ऊपर भक्ति को बताते हैं : :
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा “
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‘कवितावली‘ में तुलसीदास कहते हैं कि न मेरी कोई जाति है, न मैं किसी की जाति-पाँति चाहता हूँ। न मैं किसी के काम का हूँ, न कोई मेरे काम का है। मेरा लोक-परलोक राम के हाथ है और मुझे उन्हीं का भरोसा है :—
मेरें जाति-पाँति न चहौं काहूकी जाति-पाँति,
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको ।
लोक परलोकु रघुनाथही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसीकें एक नाम को ।।
‘कवितावली‘ के कलिकाल वर्णन में तुलसीदास ने अपनी सामाजिक दृष्टि को आम लोगों की दुर्दशा और वंचना से जोड़ दिया है। समाज में आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प हो गई हैं। जीविका विहीन स्थिति में लोग बेबसी में एक दूसरे को देख रहे हैं :— सामाजिक एवं नैतिक उत्थान सामाजिक एवं नैतिक उत्थान
खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी ।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?’
ऐसा समय आ गया है कि मजदूर, किसान, व्यापारी, भिखारी, चारण, नौकर, चोर सभी सिर्फ पेट पालने के लिए पढ़ रहे हैं; पर्वत और वन में शिकार के लिए घूम रहे हैं। ऊँचे-नीचे कार्य कर रहे हैं। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की अग्नि समुद्र की अग्नि से भी प्रचंड होती है :—
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी ।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी ।।
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कलियुग में विवेकहीनता का बोलबाला हो गया है। लोग राजहंस के बच्चे को हटाकर उल्लू पाल रहे हैं । अर्थात गुण का अनादर कर रहे हैं। लोग ज्ञान के अभिमान में डूबे हुए हैं। झूठे मुनि अपने को ईश्वर कहलवाना चाहते हैं।
कलियुग की विद्रूपता के साथ ही तुलसीदास ने राज्य-व्यवस्था के कपटी चरित्र को भी उजागर किया है। इस कठिन समय में राजा दयाहीन हो गया है तथा उसका समाज अर्थात कर्मचारी छली हो गए हैं, “कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु, बड़ोई छली है। राजा प्रजा संबंध पर तुलसीदास ने व्यापक रूप से विचार किया है।
‘दोहावली’ में तुलसीदास ने कर-व्यवस्था एवं दंड-व्यवस्था- दोनों पर टिप्पणी की है। उनका मानना है कि कलियुग में जिनके हाथ में शासन है उनमें दंड का विवेक नहीं है। राजा को चाहिए कि राजकाज में साम, दाम, भेद का भी इस्तेमाल करे पर विवेकहीन सत्ता लोगों को सिर्फ कठोर दंड दे रही है :
गोंड़ गवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल |
साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल ।।
अपने समय की कठोर दंड-व्यवस्था के विरुद्ध वे रामराज्य की सुव्यवस्था तथा उसमें दंड के लोप का आदर्श प्रस्तुत करते हैं :—सामाजिक एवं नैतिक उत्थान सामाजिक एवं नैतिक उत्थान
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज |
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र के राज ।।
अर्थात रामचंद्र के राज में दंड संन्यासियों के हाथ में तथा भेद सिर्फ नर्तक के समाज (उसकी कला में) में ही बचा हुआ है। जीत शब्द मन को जीतने के संदर्भ में सुनाई देता है।
रामराज्य के रूप में तुलसीदास एक आदर्श समाज की परिकल्पना पेश करते हैं। कलिकाल वर्णन में जिस विकल्पहीनता, दंभ, लोलुपता, कपट, व्यवस्थागत दुरावस्था का जिक्र उन्होंने किया है, रामराज्य की परिकल्पना में एक तरह से उन सबका समाधान प्रस्तुत किया है। यह ऐसा राज्य है जिसमें सभी प्रकार की विषमता का अंत हो गया है, कोई किसी से द्वेष नहीं ! रखता, ‘बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ।।’
लोग वर्णाश्रम धर्म तथा वेद पंथ का अनुसरण करते हैं। कोई दरिद्र और दुखी नहीं है। सभी दंभ रहित हैं। उस समय की भोगवादी जीवन शैली (राजा तथा सामंतों के यहाँ हरम आदि) के बरक्स तुलसीदास ने एकनारी ब्रत की उपस्थिति रामराज्य में दिखलाई है। यहाँ सागर भी अपनी मर्यादा में रहते हैं, ‘सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।’
दरअसल सागर का मर्यादा में रहने की बात कर तुलसीदास ने रामराज्य में समर्थ व्यक्तियों के द्वारा अनुशासन के पालन की वस्तुस्थिति को दर्शाया है। (ध्यान देने की बात है कि अयोध्या में जहाँ राम का शासन हुआ उसकी सीमा से लगा कोई सागर नहीं है।) रामराज्य की परिकल्पना में जिस सुव्यवस्था की उपस्थिति तथा सामंती व्यवस्था और जीवन संस्कृति का प्रतिकार किया गया है वह अपने समय में एक अनूठा हस्तक्षेप है।
तुलसीदास के महत्व को रेखांकित करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, ‘… ऐसा नहीं है कि तुलसी सामंतवादी व्यवस्था के स्थान पर किसी जनवादी या समाजवादी व्यवस्था की कल्पना करते हैं। 16वीं-17वीं शताब्दी में कोई भी व्यक्ति कहीं भी समाजवादी व्यवस्था की कल्पना नहीं कर सकता था। तुलसी सामंती व्यवस्था की त्रुटियाँ ही देख सकते थे, प्रजा के सुखी और राजा के प्रजापालक रूप की ही कल्पना कर सकते थे। उन्होंने रामराज्य के रूप में यही कल्पना की थी।”
तुलसीदास का जो सामाजिक आदर्श है उसमें दीन-हीन, आभिजात्य जीवन-स्थिति से बाहर के लोगों के लिए प्रेम, उनके कष्टों के प्रति सहानुभूति का भाव छलकता है। लंका से लौटने के बाद राम बंदर-भालुओं को अपना मित्र बताते हैं, ‘ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे । भय समर सागर कहँ बेरे।
तुलसीदास दूसरों के हित के लिए किए गए कार्य से बड़ा कोई कार्य नहीं मानते, ‘पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।’ जब वे आम लोगों की ओर देखते हैं उनकी दृष्टि पूरी तरह ययार्थवादी हो जाती है। वे दरिद्रता से बड़ा कोई दुख नहीं मानते, ‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।’
वर्णाश्रम, कलिकाल, रामराज्य, दरिद्रता पर विचार करने के साथ तुलसीदास सामाजिक पारिवारिक मर्यादा पर बहुत जोर हैं। रामकथा में भरत का त्याग, पिता के वचन को निभाने के लिए राम द्वारा वन गमन को सहर्ष स्वीकारना, राम का कैकेयी के साथ आदरपूर्ण और कटुता रहित व्यवहार, राम का गुरुओं के प्रति आदर आदि प्रसंग तुलसीदास के मर्यादा के प्रति आग्रह को दर्शाते हैं।
तुलसीदास के काव्य की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता है- लोक जीवन का चित्रण। ‘रामलला नहछू’, ‘पार्वती मंगल’, ‘जानकी मंगल’ आदि रचनाएँ तो पूरी तरह लोक व्यवहार, रीति रिवाज को समर्पित हैं। ‘रामचरितमानस’ में भी राम का बचपन, राम सहित चारों भाइयों का विवाह, शिव-पार्वती विवाह आदि अवसर पर लोक जीवन की गहनता से अभिव्यक्ति हुई है।
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